प्रश्न: ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व क्यों? तुलसीदास जी ने एक जगह कहा है- ‘पूजिय विप्र ज्ञान-गुण हीना’ ऐसे ही मनुस्मृति में कहा कि पतित होते हुये भी द्विज श्रेष्ठ है। क्या यह ब्राह्मणवाद का पक्षपात नहीं?
उत्तर: ब्राह्मण का महत्त्व उसके गुण व कर्म की श्रेष्ठता के कारण है। शरीर में सिर (मस्तिष्क) का महत्त्व अन्य अंगों से अधिक है। सिर कट जाने पर व्यक्ति एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता जबकि अन्य अंग के कट जाने पर व्यक्ति लूला-लंगड़ा, अपंग होकर भी जीवित रह सकता है। यदि ब्राह्मण वर्ग नष्ट हो जाये तो समस्त राष्ट्र की आध्यात्मिक, मानसिक व नैतिक शक्ति नष्ट हो जायेगी। जिस प्रकार सर्वांगक्षीण व्यक्ति मस्तिष्क के विकृत हो जाने पर किसी काम का नहीं रह जाता है उसी प्रकार बुद्धि, शिष्टाचार एवं संस्कार से हीन मनुष्य पशु, राक्षस व पिशाच कहलाता है। जैसे सभी लकड़ियां दाहक शक्ति से युक्त, एक समान दिखने पर भी चंदन का अधिक महत्व उसकी सुगंध व गुण के कारण है, जैसे अन्य धातु एक समान भार व रंग की हों तो भी उसमें कंचन (सुवर्ण) का अधिक महत्त्व है।
सुवर्ण यदि गंदी नाली में भी गिर जाये (पतित हो) तो लोग उसे गंदी नाली में से भी उठाकर धोकर वापस अपने संग्रह में रख लेते हैं। इसमें न तो कोई वाद है न ही किसी के प्रति कोई पक्षपात है। चंदन व कंचन के गुणों की प्रशंसा एक नैसर्गिक प्रतिक्रिया है। यह नैसर्गिक प्रतिक्रिया ब्राह्मण के प्रति ही नहीं, शूद्र कुलोत्पन्न पक्षी काक भुसण्डि, श्वपच-धर्म व्याध, राक्षस कुल उत्पन्न विभीषण, दैत्यराज प्रींाद को उनके गुणों के कारण सनातन धर्म में ऊंचा स्थान दिया गया। उनकी प्रशंसा में कथाएं आज भी जन-जन में प्रचलित हैं। अतः गुण की प्रशंसा, अवगुण का निरादर सहज मानवीय प्रतिक्रिया है, इसमें किसी प्रकार के दुराग्रह की कहीं कोई बात ही नहीं है।
प्रश्न: हिन्दू सनातन धर्म में अंतर्जातीय विवाह को मान्यता क्यों नहीं?
उत्तर: सभ्य एवं विकसित देशों में घोड़ों और कुत्तों की नस्ल सुरक्षित रखने के प्रयत्न किये जा रहे हैं पर दुर्भाग्यवश आध्यात्मिक आधार पर आधारित वर्ण संस्थारूप मानव नस्ल की सुरक्षा हेतु कोई उपाय नहीं किये जा रहे हैं। शास्त्रों में दो विरूद्ध जाति से उत्पन्न हुई संतान को वर्णसंकर कहा गया है। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं- स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकरः। संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।। -अध्याय 1/श्लोक 41-43 अर्थात स्त्रियों के व्यभिचार करने पर वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। यह वर्णसंकर संतान कुल का नाश करके समस्त कुल को नरक में ले जाने का कारण बनती है। वर्णसंकर श्राद्धादि कर्म में निवृत्त नहीं होता तथा पिंडतर्पण न करने से पितरों की तृप्ति का कारण नहीं होते।
फलतः व्यक्ति के इहलोक व परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से पता चलता है कि आम, बेर आदि वृक्षों में दूसरी नस्ल के पौधों की पैबन्द लगाने पर विलक्षण फलों का प्रादुर्भाव प्रत्यक्ष देखा जाता है परंतु किसी भी पैबन्दी पेड़ के बीज में आगे वृक्ष उगा सकने की सामथ्र्य नहीं रहती अर्थात् पैबन्दी पेड़ अपनी समाप्ति के साथ ही अपने वंश को भी समाप्त कर बैठता है। गधे और घोड़ी के संसर्ग से ‘खच्चर’ नामक विलक्षण जाति उत्पन्न होती है परंतु खच्चर का आगे वंश नहीं चलता है। राष्ट्र में यदि वर्ण संकर संतानें उत्पन्न होने लगेंगी तो उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता एवं कुलाभिमान सभी विनाश को प्राप्त होंगे। अतः वैज्ञानिक रीति से अत्यंत विजातीय असवर्ण से विवाह संबंध का निषेध है। फिर विजातीय संपर्क से दोनों वस्तुओं के गुण नष्ट होकर नवीन विकृति का प्रादुर्भाव होता है।
जैसे यव, गुड़ और बबूल - किसी में भी नशा नहीं होता परंतु इन तीनों विजातीय द्रव्यों के मिश्रण से घातक शराब का प्रादुर्भाव होता है। घृत और मधु जैसे उत्तमोत्तम स्वादिष्ट दो विजातीय द्रव्यों के सम्मिश्रण से घातक विष का निर्माण हो जाता है। इतना ही नहीं, अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न वर्णसंकर संतानों का आगे विवाह किसके साथ होगा? उनका भविष्य क्या होगा? वे किस नाम व कुलाभिमान से अलंकृत होंगे?- समाज में एक विकृत समस्या उठ खड़ी होगी। लौकिक, व्यावहारिक, धार्मिक एवं वैज्ञानिक सभी दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए, दूरदर्शिता के कारण हिंदू सनातन धर्म में अंतर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं दी गई।