प्रश्न: सूर्य के रथ में सात घोड़े का वैज्ञानिक रहस्य क्या है?
उत्तर: वेद कहते हैं- ‘‘सप्तयुज्जंति रथमेकचक्रमेको अश्वोवहति सप्तनामा’’ -ऋ 1/164/2 अर्थात एक चक्र वाले सूर्य के रथ में सात घोड़े जुड़े हुए हैं, वस्तुतः एक ही सात नाम का घोड़ा रथ को चलाता है। हिंदू धर्म में प्रत्येक बात को आलंकारिक व रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया, पर विचार करें तो बात बड़ी गहरी है एवं वैज्ञानिक रहस्यों से ओत-प्रोत है। न तो सूर्य के पास कोई रथ है और न कोई घोड़ा। वस्तुतः किरण कांत ब्रह्मांड ही उसका रथ है और कान्तिमंडल परिक्रमा पथ ही उस रथ का एक पहिया है। सूर्य हमसे दूर है, हमारे समीप उसकी किरणें ही पहुंचती हैं। अतएव सूर्य में वहन करने वाली ये सप्तवर्ण किरणें ही सात घोड़े हैं। ज्योतिष ग्रंथों में और रश्मियों में सप्तवर्ण का विश्लेषण किया गया है।
ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डी- ये सात रंग वही हैं जो प्रायः इन्द्रधनुष में देखे जाते हैं। ये सूर्य के सात घोड़े कहे गये हैं।
प्रश्न: गणपति के वाहन मूषक का रहस्य?
उत्तर: गणपति बुद्धि के अग्रगण्य हैं, लंबोदर हैं, गजबदन-हाथी का शरीर है, ऐसे भारी भरकम देवता का वाहन मात्र छोटा-सा चूहा हो? यह बात कुछ अटपटी-सी लगती है। कई बार इस विषय में लोग प्रश्न भी करते हैं। जैसे सत्त्वगुण का प्रतीक गौ माता हैं, रजो गुण का प्रतीक सिंह, तमोगुण का प्रतीक सूर्य है। ठीक उसी प्रकार से तर्क का प्रतीक चूहा रहा है। अहर्निश काट-छांट करना, अच्छी-से-अच्छी वस्तुओं को निष्प्रयोजन कुतर डालना- यह चूहे का स्वभाव है। परंतु तर्क को स्वतंत्र विचरने देना चाहिये उस पर भारी भरकम बुद्धि वाला अंकुश होना चाहिये। ‘लम्बोदर’ का मतलब बड़े पेट से है, बड़ी-से-बड़ी बात को पचाने वाले गंभीर व धैर्यशाली पुरुष को लंबोदर कहा जाता है। तभी व्यक्ति गणपति बन सकता है। गणपति-गणाध्यक्ष अर्थात् मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ सबका लोकप्रिय नेता बन सकता है। वेद पुराणों के आख्यान समाधि भाषा में लिखे गये हैं। इनके प्रतीकात्मक रहस्य को समझने के लिये भी सकारात्मक एवं तीक्ष्ण बुद्धि चाहिए।
प्रश्न: गणपति अग्रपूज्य क्यों?
उत्तर: अनेक बुद्धिजीवी प्रायः यह प्रश्न करते हैं कि अनेक सुंदर, शक्तिशाली व ओजस्वी देवताओं के होते हुए गणपति को ही अग्रपूज्य एवं देवताओं का अध्यक्ष क्यों बनाया गया? इसका पौराणिक दृष्टांत तो यह है कि अपना अध्यक्ष चुनने के लिए देवताओं ने सभा बुलाई तथा उसमें यह प्रस्ताव रखा कि जो अपने वाहन पर तीनों लोकों (पृथ्वी, पाताल व आकाश) की सबसे पहले परिक्रमा कर आयेगा, वही हमारा अध्यक्ष बनने की योग्यता रखेगा। सभी देवता अपने-अपने तेज गति के वाहनों में आकाश मार्ग में उड़ चले। गणेश जी का भारी शरीर और वाहन चूहा वहीं रह गये। गणेश जी ने धैर्य नहीं खोया अपितु अपने माता-पिता की तीन परिक्रमा करके सभापति के आसन पर बैठ गये। सबसे पहले मयूर पर आरूढ़ कार्तिक स्वामी आये।
सभापति के आसन पर गणेश को देखकर उन्हें क्रोध आया तथा हाथ में पड़े मुग्दर में लड्डू खाते हुए गणेश के दांत पर प्रहार किया। उनका एक दांत टूट गया। तब से गणेश जी ‘एकदंत’ कहलाये। गणेश जी ने तर्क दिया कि तीनों लोकों के सुख-ऐश्वर्य के निवास माता-पिता के चरण-सेवा में है। मैंने उनकी चरण-वंदना करके तीन परिक्रमा की।
इसमें मुझे तीनों लोकों की परिक्रमा का पुण्य मिल गया और माता-पिता को छोड़कर जो तीनों लोकों की परिक्रमा करता है वह निष्फल है? व्यर्थ है? उसे तीनों लोकों की यात्रा का फल नहीं मिलता। गणपति के बुद्धिमत्तापूर्ण तर्क में सभी निरुत्तर हो गये। फलतः गणेश जी गणाध्यक्ष बन कर देवताओं के सभापति, अध्यक्ष व अग्रपूज्य हो गये।