शनि की ढईया और साढ़ेसाती
शनि की ढईया और साढ़ेसाती

शनि की ढईया और साढ़ेसाती  

अंजना अग्रवाल
व्यूस : 20804 | नवेम्बर 2014

युगों-युगों से मनुष्य को सत्कर्म या दुष्कर्म करने पर मिलने वाले प्रतिसाद या दंड का बोध कराने वाले शनिदेव से सभी परिचित हैं। एक ग्रह के रूप में शनिदेव की गति का यदि आकलन करें तो पता लगता है कि अत्यंत मन्द गति से विचरण करने वाले शनिदेव सूर्य के चारों ओर 30 वर्षों में एक चक्कर लगाते हैं। स्पष्ट है कि किसी मनुष्य के पूर्ण जीवन काल में औसतन दो या तीन बार साढे़-साती आ सकती है और यही काल शनिदेव द्वारा कर्मों के आधार पर मनुष्य को परिणाम देने का समय होता है।

हमारी जन्मकुंडली में स्थित सभी 9 ग्रह 12 राशियों में विचरण करते रहते हैं। एक ग्रह एक राशि में निश्चित समय के लिए ही रुकता है। चूंकि शनि ग्रह सबसे मन्दगामी ग्रह है यह एक राशि में ढाई वर्ष रुकता है। सभी 12 राशियों के भ्रमण में शनि को लगभग 30 वर्ष का समय लगता है। शनि अपनी गोचर साढे़-साती के दौरान हर पिछले अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब लेता है।

वैदिक शास्त्रों के अनुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण न्यायाधीश का पद शनिदेव को प्राप्त है। अतः शनिदेव ही सबसे शक्तिशाली और हमारे भाग्य विधाता हैं। हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का फल शनिदेव ही प्रदान करते हैं। ज्योतिष के अनुसार शनिदेव साढ़े-साती और ढैय्या के दौरान व्यक्ति को उसके कर्मों का फल प्रदान करते हैं। हर 30 साल में प्रत्येक जातक को शनि देव के आगे हाजिर होना पड़ता है। शनिदेव ऐश्वर्य के दाता हैं और गरीब वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। शनि का शाब्दिक अर्थ है


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‘शनैः शनैः चरति इति शनैश्चरः’ अर्थात धीमी गति से चलने के कारण यह शनैश्चर कहलाए। नवग्रहों में शनि की सबसे मंद गति है। तुला राशि में शनि उच्च के होते हैं और मेष राशि में नीच के होते हैं। चंद्र के गोचर से शनि जब 12वीं राशि में आते हंै तब साढ़े-साती शुरू होती है। जिस राशि में शनि होता है उससे आगे राशि वाले जातकों को साढ़े-साती का प्रथम चरण चल रहा होता है जबकि पिछली राशि वाले जातकों को साढ़े-साती का आखिरी चरण चल रहा होता है।

शनि की ढईया और साढ़े-साती का नाम सुनकर बड़े-बड़े महारथियों के चेहरे की रंगत उड़ जाती है। विद्वान ज्योतिष शास्त्रियों की मानें तो शनि सभी व्यक्ति के लिए कष्टकारी नहीं होते हैं। शनि की दशा के दौरान बहुत से लोगों को अपेक्षा से बढ़कर लाभ-सम्मान व वैभव की प्राप्ति होती है जबकि कुछ लोगों को शनि की इस दशा के दौरान काफी परेशानी और कष्टों का सामना करना पड़ता है। इस तरह देखा जाय तो शनि केवल कष्ट ही नहीं देते बल्कि शुभ फल भी प्रदान करते हैं। शनि का प्रभाव सभी व्यक्ति पर उनकी जन्म-कुण्डली/राशि-कुण्डली में विद्यमान विभिन्न तत्वों व कर्म पर निर्भर करता है।

साढ़े-साती के प्रभाव के लिए कुण्डली में लग्न व लग्नेश की स्थिति के साथ ही शनि और चन्द्र की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। शनि की दशा के समय चन्द्रमा की स्थिति बहुत मायने रखती है। अगर कुण्डली में चन्द्रमा उच्च राशि में होता है तो जातक में अधिक सहन शक्ति आ जाती है और कार्यक्षमता बढ़ जाती है जबकि कमजोर व नीच का चन्द्र जातक की सहनशीलता को कम कर देता है व मन काम में नहीं लगता है जिससे जातक की परेशानी और बढ़ जाती है।

जन्म-कुण्डली में चन्द्रमा की स्थिति का आकलन करने के साथ ही शनि की स्थिति का आकलन करना भी जरूरी होता है। अगर जातक का लग्न वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर अथवा कुम्भ है तो शनि नुकसान नहीं पहुंचाते हैं बल्कि जातक को उनसे लाभ व सहयोग मिलता है।


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शनि की साढ़ेसाती: जब शनि किसी राशि में ढाई वर्ष रुकता है तो उस राशि के आगे और पीछे वाली राशि पर भी सीधा प्रभाव डालता है। यानि शनि एक राशि को साढ़े सात वर्ष तक प्रभावित करता है। इस साढ़े सात साल के समय को ही शनि की साढ़े-साती कहा जाता है।

शनि की ढैय्या: शनि की ढैय्या का अर्थ है कि जिस राशि में शनि रहता है उस राशि से ऊपर की ओर वाली चैथी राशि पर और नीचे की ओर वाली छठी राशि पर शनि की ढैय्या रहती है।

शनि की साढ़े-साती सभी राशियों को एक समान फल नहीं देती है। जिन जातकों का जन्मकालीन शनि योगकारक होता है उनके लिए साढ़े-साती का दौर एक बेहतरीन और सुनहरा मैदान तैयार करता है। उनमें रात-दिन परिश्रम करने की शक्ति और युक्ति का संचार होता है। जिन जातकों का जन्मकालीन शनि खराब है, उनके लिए साढ़ेसाती बहुत ही खराब होती है। शुद्ध और पवित्र आचरण से जीवन यापन करने वाले चरित्रवान लोगों पर भी शनि का कुछ दुष्प्रभाव जरूर होता है, लेकिन समयानुसार उन्हें अपने कष्ट से मुक्ति भी मिल जाती है।

इस तरह शनि की गोचर स्थिति कम या ज्यादा सभी को ही थोड़ा-थोड़ा सुख और दुख का अनुभव देने वाली होती है।

शनि का प्रभाव कैसे होता है?

शनि के चार पाये लौह, ताम्र, स्वर्ण, और रजत होते हैं। गोचर में जिन राशियों पर शनि सोना या स्वर्ण और लौहपाद से चल रहा है, उनके लिए शनि का प्रभाव अच्छा नहीं माना जाता। जिन पर शनि चांदी या तांबे के पाये से चल रहा है, उनको फल कुछ अच्छे और कुछ बुरे रूप से मिलते हैं जो कि जन्म-कुण्डली में शनि की स्थिति पर निर्भर करती है।

शनि की साढ़ेसाती के 3 चरण: प्रथम चरण में जातक का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, इसे मति भ्रम कहा जा सकता है तथा वह अपने उद्देश्य से भटक कर चंचल वृत्ति धारण कर लेता है। जातक की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है, निद्रा में कमी, मानसिक चिन्ताओं में वृद्धि होना सामान्य बात हो जाती है। मेहनत के अनुसार लाभ नहीं मिल पाता है।

पहले चरण की अवधि लगभग ढाई वर्ष तक होती है। प्रथम चरण वृषभ, सिंह, धनु राशियों के लिये कष्टकारी होता है। द्वितीय चरण में मानसिक कष्ट के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी जातक को घेरने लगते हैं। उसके सारे प्रयास असफल होते जाते हैं। जातक अपने को तन-मन-धन से निरीह और दयनीय अवस्था में महसूस करता है।


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पारिवारिक तथा व्यावसायिक जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। संबन्धियों से भी कष्ट होते हैं, घर-परिवार से दूर रहना पड़ सकता है, रोगों में वृद्धि हो सकती है। इस दौरान अपने और परायों की परख भी हो जाती है। अगर जातक ने अच्छे कर्म किए हों, तो इस दौरान उसके कष्ट भी धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। अगर दूषित कर्म किए हैं तो साढ़ेसाती का दूसरा चरण घोर कष्टप्रद होता है।

इसकी अवधि भी ढाई साल होती है। इस अवधि में मेष, कर्क, तुला, वृश्चिक और मकर राशि के जातकों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिये। तीसरे चरण में जातक के भौतिक सुखों में कमी होती है। आय की तुलना में व्यय अधिक होते हैं। स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां आती है। वाद-विवाद के योग बनते हैं। जातक पूर्ण रूप से अपने संतुलन को खो चुका होता है तथा उसमें क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है।

परिणामस्वरूप हर कार्य का उल्टा ही परिणाम सामने आता है तथा उसके शत्रुओं की वृद्धि होती जाती है। मतिभ्रम और गलत निर्णय लेने से फायदे के काम भी हानिप्रद हो जाते हैं। स्वजनों और परिजनों से विरोध बढ़ता है। छवि खराब होने लगती है।

अतः जिन राशियों पर साढ़ेसाती तथा ढैय्या का प्रभाव है, उनके शनि की शांति के उपचार करने पर अशुभ फलों की कमी होने लगती है और धीरे-धीरे वे संकट से निकलने के रास्ते प्राप्त कर सकते हैं। इस अवधि में मिथुन, कर्क, तुला, कुम्भ, कन्या और मीन राशि के जातकों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिये।

शनि शांति के उपाय और उपचार: शनिदेव का नाम या स्वरूप ध्यान में आते ही मनुष्य भयभीत अवश्य होता है लेकिन, कष्टतम समय में जब शनिदेव से प्रार्थना कर उनका स्मरण करते हैं तो वे ही शनि देव कष्टों से मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। शनि के लिए काले द्रव्यों से पूजा होती है और काली वस्तुएँ दान दी जाती हैं। तिल, तेल और लोहा शनि के लिए दान की प्रिय वस्तुएँ हैं। शनि का पूजा-पाठ, शनि का दर्शन और जन्मपत्रिका के निर्णय के आधार पर शनि के रत्न नीलम का धारण करना अच्छा रहता है। शनि निम्न वर्ग के प्रतिनिधि हैं

अतः गरीब, मजदूर, निर्बल और बेसहारा लोगों की सेवा करने पर शनिदेव प्रसन्न होते हैं। छोटे कर्मचारी वर्ग के ग्रह भी शनि ही हैं

अतः इन वर्गों की सेवा करने या उन्हें सुख देने या दान देने से शनि प्रसन्न होते हैं।

1. प्रतिदिन घर में गुग्गल-धूप जलाएं और सायंकाल के समय लोबान युक्त बत्ती सरसों तेल के दीये में डालकर तुलसी या पीपल की जड़ में दीपक जलाएं।


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2. शनिवार को कच्चे सूत को सात बार पीपल के पेड़ में लपेटें।

3. बन्दरों को गुड़-चना, भैंसे को उड़द के आटे की रोटी और दूध में आटा गूंथ कर रोटी बनाकर मोरों को खिलाएं।

4. 11 जटायुक्त कच्चे नारियल सिर के ऊपर से 11 बार उतार कर बहते जल में प्रवाहित करें।

5. काले वस्त्र, कंबल, सतनाजे से तुलादान एवं छाया पात्र दान करें।

6. नीलम रत्न धारण करें।

7. आर्थिक हानि अथवा रोग से बचने के लिए शनियंत्र युक्त बाधामुक्ति ताबीज और घर में अभिमंत्रित शनियंत्र रखकर उस पर तिल और सरसों के तेल का नित्य अभिषेक करें।

8. महामृत्युंजय का जप व हनुमान चालीसा का पाठ भी शनि बाधा को शान्त करता है।

9. शनिवार के दिन पुष्य नक्षत्र होने पर बिछुआ बूटी की जड़ एवं शमी (छोकर) की जड़ को काले धागे में बांधकर दाहिनी भुजा में धारण करने से शनि का प्रभाव कम होता है।

10. शनि की शांति के लिए कुछ वैदिक बीज मंत्र भी हैं, जो कि नियमित रूप से संध्या पूजा में शामिल किए जा सकते हैं। शनि का बीज मंत्र: ऊं प्रां प्रीं प्रौं सः शनये नमः।। ऊं शं शनैश्चराय नमः।। ऊं शन्नो देवी रभिष्टये आपो भवन्तु पीतये, शंय्यो रभिस्रवन्तुं नः शं नमः।। शनि शांति का स्तोत्र: नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छाया मात्र्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। सर्वारिष्ट ग्रह शांति का स्तोत्र ः ऊं नमस्ते कोणसंस्थाय पिंगलाय नमोऽस्तु ते। नमस्ते वभु्ररूपाय कृष्णाय च नमोऽस्तुते।। नमस्ते रौद्रदेहाय नमस्ते चान्तकाय च। नमस्ते यमसंज्ञाय नमस्ते शौरये विभो।। नमस्ते मन्दसंज्ञाय शनैश्चरः नमोऽस्तु ते। प्रसादं कुरू देवेश दीनस्य प्रणतस्य च।।

11. नियमित रूप से शिवलिंग की पूजा व आराधना करनी चाहिए।

12. पीपल में सभी देवताओं का निवास कहा गया है। इस हेतु पीपल को अघ्र्य देने अर्थात जल देने से शनि देव प्रसन्न होते हैं। अनुराधा नक्षत्र में जिस दिन अमावस्या हो और शनिवार का दिन हो उस दिन आप तेल, तिल सहित विधि पूर्वक पीपल वृक्ष की पूजा करें तो शनि के कोप से आपको मुक्ति मिलती है।

13. शनिदेव की प्रसन्नता हेतु शनि स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।


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14. शनि के कोप से बचने हेतु आप हनुमान जी की आराधना कर सकते हैं क्योंकि शास्त्रों में हनुमान जी को रूद्रावतार कहा गया है। ऊं हं हनुमते नम:।

15. शनिवार को बंदरों को केला व चना खिला सकते हैं।

16. नाव के तले में लगी कील और काले घोड़े की नाल भी शनि की साढ़े साती के कुप्रभाव से आपको बचा सकता है अगर आप इनकी अंगूठी बनवाकर धारण करते हैं।

17. लोहे से बने बर्तन, काला कपड़ा, सरसों का तेल, चमड़े के जूते, काला सुरमा, काले चने, काले तिल, उड़द की साबूत दाल ये तमाम चीजें शनि ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएं हैं, शनिवार के दिन इन वस्तुओं का दान करने से एवं काले वस्त्र एवं काली वस्तुओं का उपयोग करने से शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

18. शनिवार के दिन व्रत रख सकते हैं।



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