तंत्र शास्त्र भारतीय चिंतन परंपरा का अपूर्व और स्वतंत्र विषय है। इसकी मान्यताएं और स्थापनाएं अत्यंत विलक्षण हैं। इन स्थापनाओं की सत्यता सिद्ध करने के लिए तंत्र शास्त्र की अपनी स्वतंत्र युक्तियां और तर्क हैं। यहां तक कि तंत्र शास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, भाषा और प्रतीकों के अर्थ भी सामान्य अर्थ से भिन्न हैं।
तंत्र शास्त्र के अनुसार इस समस्त सृष्टि या ब्रह्मांड का आलंबन महाकाश है। भौतिक विज्ञान की मान्यता के अनुसार यह विश्व त्रिआयामी है। तंत्र शास्त्र आयाम के भीतर आयाम रूप से इस सृष्टि को बहुआयामी मानता है। इसी प्रकार तंत्र शास्त्र के अनुसार प्राणी का बाहृय शरीर केवल खोल है। उसका असली शरीर मनोकाश या चित्ताकाश रूप है। यह मनोदेह असंख्य अव्यक्त ऊर्जाओं का पुंज और संख्यातीत आयामों वाला है।
इन ऊर्जाओं का सतत प्रवाह ही प्राण है। इस प्राणधारा रूप देह का नाम तंत्र की भाषा में मंडल है। यह मंडल मनोदर्शनात्मक है इसलिए इंद्रिय ग्राह्य नहीं है फिर भी मंडल के बाह्य रूप को मृत्तिका, मंत्र को जल, मुद्राओं को धूप और मंत्र को खाद की उपमाओं से समझाया गया है। मंडल को देवभूमि कहा गया है।
मंडल प्रवेश या मंडल भेदन की प्रक्रिया बड़ी कठिन है। चेतना के विस्तार और साधना की गहराई के अनुसार ही प्रतीकों की यह दुनिया साधक के भीतर स्पष्ट होती है और साधना अनुष्ठानों की परिसमाप्ति के साथ-साथ साधक में ही लीन हो जाती है। तंत्र की शास्त्रीय भाषा में इसे ‘पुनरव शोषण’ कहते हैं। तंत्र कोरा शास्त्र ज्ञान हीं है।
वह साधना का मार्ग है। शास्त्रों की जानकारी ऊहापोह से मिल सकती है लेकिन सिद्धि के लिए तो साधना ही करनी पड़ती है। तंत्र साधना बड़ी दुर्बोधि, दुष्कर और जटिल है। कभी-कभी तो साधक को ऐसे अनुष्ठानों से गुजरना पड़ता है कि उसे तंत्र के नाम तक से वितृष्णा और भय हो जाता है। तंत्र के सच्चे गुरु इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं। इसलिए तंत्र साधना को गोपनीय रखने का विधान है। तंत्र शास्त्र का दूसरा नाम ‘गुप्त विद्या’ भी है। शिष्य की पात्रता की पूरी तरह परीक्षा लिए बिना तंत्र दीक्षा वर्जित है और दीक्षा के बिना तंत्र की साधना वर्जित है। तंत्र दीक्षा का तात्पर्य केवल उपदेश और नियम विधान की जानकारी देना नहीं है बल्कि यह तो व्यक्ति का संपूर्ण रूपांतरण है।
तंत्र दीक्षा में गुरुपद की अपार महिमा है। दीक्षा अर्थात् साधक का नया जन्म। दीक्षा के समय उसका वर्तमान नाम बदल दिया जाता है और उसे अनुष्ठान पूर्वक अपने सभी पुराने संबंधों को तोड़ देना होता है। उसकी न कोई जाति रह जाती है और न कोई धर्म। यहां तक कि उसका अपने मां-बाप से भी कोई सरोकार नहीं रह जाता। उस पर किसी प्रकार का विधि निषेध या सामाजिक बंधन नहीं रह जाते हैं। भैरवी चक्र प्रवेश की ये सब अनिवार्य शर्तें हैं।
प्रसिद्ध तंत्र शास्त्री पं. गोविंद शास्त्री ने अपनी चर्चित कृति ‘तंत्र दर्शन’ में लिखा है: ‘‘भैरवी चक्र की विकट साधना में असफल और भ्रष्ट हुए साधक बहुधा कुमार्गगामी हो जाते हैं। उच्छृंखल कामवासना की तृप्ति के लिए बने अनेक गुह्य समाज इस प्रकार की तंत्र साधना के नाम पर प्रकट होते रहते हैं और तंत्र के नाम को बदनाम करते हैं।’’
तंत्र साधना के प्रकार तंत्र में दो प्रकार की साधनाएं शास्त्र सम्मत हैं- कुलाचार और समयाचार। कुलाचार साधना में बाह्य अनुष्ठान प्रधान है। इसका अभ्यास समहू बद्ध हाके र किया जाता ह।ै इसमंे यज्ञाहुति, मंत्र-जप और कई प्रकार की पूजा-विधियों का प्रचलन है। समयाचार आंतरिक साधना है।
यह रुद्र कमल पर ध्यान लगाकार की जाती है। बौद्धों की महायान शाखा में वज्रयान साधना-पद्धति इसी से विकसित हुई है। इसमें अनिवार्य गुरु दीक्षा के बाद साधक गुरु आज्ञा से एकांत में रहकर ध्यानावस्थित होता है। इस साधना में मानस-दर्शन मुख्य है। किसके लिए कौन सी साधना उपयुक्त है इसका निर्णय गुरु करता है।
संप्रदाय भेद से तंत्र जगत के संबंध में अनेक प्रकार के मत प्रचलित हैं। इनमें वेदमार्गी, बौद्ध मार्गी, दक्षिण् ााचारी मंत्रमार्गी भक्तिमार्गी और ज्ञानमार्गी प्रमुख हैं। शैवों की 28 और शाक्तों में 102 परंपराएं हैं। वैष्णवों के भी अनेक तंत्र ग्रंथ और तंत्र संप्रदाय मिलते हैं। जैनों का तंत्र शास्त्र समृद्ध है पर प्रकाश में बहुत कम ही आया है। उसके प्रकाश में आने से जैन धर्म के वर्तमान स्वरूप पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का भी डर है।
शायद इसीलिए जैन समाज में इस ओर प्रायः उदासीनता बरती गई है। शाक्तों के कौल और समयाचारी दो मुख्य संप्रदाय हैं। कौल काली के उपासक होते है। उनके अनुष्ठान गुप्त होते है। इन अनुष्ठानों में मद्य, मांस, मीन, मुद्रा एवं मैथुन वर्जित नहीं हैं।
उत्तर कौल, कापालिक और दिगंबर स्वयं को भैरव मानते हैं। वे नग्न होकर देवी पूजा करते हैं। कहीं कहीं कन्याओं की योनि के पूजन की भी परंपरा है। इन संप्रदायों का अधिक प्रभाव बंगाल एवं अविजित आसाम के अधिकांश क्षेत्रों में रहा है।
शाक्तों में ही पूर्व कौल संप्रदाय के अनुयायी पंचमकार को प्रतीकात्मक मानते हैं। इनकी साधना विधियां भी अधिकतर साम्ै य ह।ंै शाक्ता ंे के समयाचारी संप्रदाय में श्रीचक्र का पूजन होता है। उनकी आस्था षट्चक्रों में है। दक्षिण भारत में समयाचारी साधना का प्रचलन रहा है।
आदि शंकराचार्य जैसे योगियों ने इसी प्रकार की साधना को अपनाया है और उसे आश्रय प्रदान किया है। इस देश में 8वीं से 11वीं सदी मध्य तक सिद्ध और नाथ नाम के मुख्य तांत्रिक संप्रदायों का बहुत प्रभाव रहा है। आज भी इन दोनों संप्रदायों के अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े सिद्ध पीठ हैं। भारत के ग्राम्य समाज में सिद्ध एवं नाथ संप्रदाय के अनुयायियों की खासी बड़ी संख्या है।
लोकभाषाओं में लिखे और बिखरे हुए इन संप्रदायों के विपुल साहित्य के विस्तृत अध्ययन के योजनाबद्ध कार्य की अपेक्षा है। इन दोनों संप्रदायों में अनेक प्रकार की साधनाओं का प्रचलन है। सिद्धों में पंचमकार वर्जित नहीं है लेकिन नाथ संप्रदाय में वर्जित है। भारतीय साहित्य शिल्प और स्थापत्य पर इन संप्रदायों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
उदाहरण के लिए कोणार्क एवं पुरी के मंदिरों में भित्ति चित्रा ंे का उल्लख्े ा किया जा सकता ह।ै कतिपय ज्वलंत प्रश्न वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रसिद्ध लेखक पं. दुर्गा प्रसाद शुक्ल ने अपनी विशिष्ट कृति ‘तंत्र विद्या का यथार्थ’ म ंे अनके ज्वलतं प्रश्ना ंे का े उठाया है। उनके अनुसार तंत्र साधना का विषय न तो निर्विवाद है और न आंतरिक विरोधों और विरोधाभासों से मुक्त है।
कुछ साधना पद्धतियां तो मनुष्य की आदिकालीन नृशंसता का अवशेष जैसी लगती हैं। इसलिए तंत्र का सार्वजनिक पक्ष कमजोर है। कुंडलिनी जागरण की प्रक्रिया और परिणामों पर भी गहरा मतभेद है।
कुंडलिनी जागरण के नाम पर अवैज्ञानिक क्रियाकांड करने वाले अनेक व्यक्तियों को शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होते हुए देखा गया है। मान लें कि कुंडलिनी नाम की कोई शक्ति है और कुछ व्यक्तियों की कुंडलिनी जागृत होने पर उन्हें कुछ विशेष सिद्धि मिल जाती है। तब भी उसके उपयोग द्वारा किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्ति समूह के किसी प्रकार के कल्याण का कोई आश्वासन संदिग्ध हो जाता है।
पुराकाल में तंत्र के नाम पर अशिक्षित और अज्ञानी समाज में अनेक प्रकार के अंधविश्वासों का जन्म हुआ है। आज भी अनेक धूर्त व्यक्ति तंत्र के नाम पर भोले-भाले लोगों को गुमराह करने से नहीं चूकते हैं। यहां तक कि आज भी तंत्र सिद्धि के लिए पशुबलि, नरबलि और नृशंस हत्याओं तक के समाचार मिलते रहते हैं।
समाज में उच्छृंखल कामाचार और गुरुकृपा प्राप्ति के नाम पर भ्रष्टाचार को फलते फूलते देखा जा सकता है। वस्तुतः तंत्र शास्त्र की अवधारण् ााएं प्रायः बुद्धिग्राह्य नहीं हंै। इस अगम्य विभा का जगत के लिए अंततः क्या उपयोग है?
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