अहोई अष्टमी व्रत पूजन यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। इस दिन से दीपावली का पर्व प्रारंभ हो जाता है। इस वर्ष सन् 2007 में अहोई अष्टमी की तिथि 1 नवंबर, गुरुवार को है। इस व्रत को वे स्त्रियां करती हैं, जिनके सन्तान होती हैं। बच्चों की मां दिन भर व्रत रखें। सायंकाल अष्ट कोष्ठकी अहोई की पुतली रंग भरकर बनाएं।
उस पुतली के पास सेई तथा सेई के बच्चों के चित्र भी बनाएं, जैसा कि पुस्तक में स्याऊ माता का चित्र दिया गया है या अहोई अष्टमी का चित्र मंगवा कर लगा लें तथा उसका पूजन कर सूर्यास्त के बाद अर्थात् तारे निकलने पर अहोई माता की पूजा करने से पहले पृथ्वी को पवित्र करके चैक पूर कर एक लोटे में जल भरकर एक पटले पर कलश की भांति रख कर पूजा करें।
अहोई माता का पूजन करके माताएं कहानी सुनें। पूजा के लिए चांदी की अहोई पेंडल के रूप में बनाएं, जिसे स्याऊ भी कहते हैं। डोरे में चांदी के मोती रूपी दाने डलवा लें फिर अहोई की रोली, चावल दूध व भात से पूजा करें और जल से भरे लोटे पर सतिया बना लें।
एक कटोरी में हलवा तथा रुपये का वायना निकालकर रख लें और सात दानें गेहूं लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के बाद अहोई स्याऊ की माला को गले में पहन लें। जो वायना निकाल कर रखा था उसे सासू जी के पांव लगाकर आदर पूर्वक उन्हें दे देवें। इसके बाद चंद्रमा को अघ्र्य देकर स्वयं भोजन करें।
दीपावली के बाद किसी शुभ दिन अहोई को गले से उतार कर उसका गुड़ से भोग लगावें और जल के छींटे देकर मस्तक झुकाकर रख दें। जितने बेटे हों उतनी बार तथा जितने बेटों का विवाह हो गया हो, उतनी बार चांदी के दो-दो दाने अहोई में डालती जाएं। ऐसा करने से अहोई देवी प्रसन्न होकर बच्चों की दीर्घायु करके घर में नित नए मंगल करती रहती है।
उस दिन पण्डितों को पेठा, दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। अहोई का उजमन - जिस स्त्री के बेटा हुआ हो, अथवा बेटे का विवाह हुआ हो, उसे अहोई माता का उजमन करना चाहिए। एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ियां रखकर उन पर थोड़ा हलवा रखें। साथ ही एक पीली साड़ी और ब्लाउज उस पर सामथ्र्यानुसार रुपये रखकर थाल के चारों तरफ हाथ फेर श्रद्ध ापूर्वक सास जी के पांव लगाकर वह सामान सास जी को देवें, साड़ी तथा रुपये सासु जी अपने पास रख लें तथा हलवा पूरी का वायना बांट दें।
बहन बेटी के यहां भी वायना भेजना चाहिए। कथा- एक नगर में एक साहूकार रहा करता था। उसके सात लड़के थे। एक दिन उसकी स्त्री ख्दान में मिट्टी खोदने के लिए गई और ज्यों ही उसने मिट्टी में कुदाल मारी त्यों ही सेही के बच्चे कुदाल की चोट से सदा के लिए सो गए। इसके बाद उसने कुदाल को स्याहूं के खून से सना देखा, तो उसे सेही के बच्चों के मर जाने का बड़ा दुःख हुआ परन्तु वह विवश थी और यह काम उससे अनजाने में हो गया था।
इसके बाद वह बिना मिट्टी लिए ही खेद करती हुई अपने घर आ गई। उधर जब सेही अपने घर में आई, तो अपने बच्चों को मरा देखकर नाना प्रकार से विलाप करने लगी और ईश्वर से प्रार्थना की कि जिसने मेरे बच्चों को मारा है, उसे भी इसी प्रकार का कष्ट होना चाहिए। तत्पश्चात् सेही के श्राप से से. ठानी के सातों लड़के एक साल के अन्दर ही मर गए। इस प्रकार अपने बच्चों को असमय में काल के मुंह में चले जाने पर सेठ-सेठानी इतने दुखी हुए कि उन्होंने किसी तीर्थ पर जाकर अपने प्राणों को तज देना उचित समझा।
इसके बाद वे घर बार छोड़ कर पैदल ही किसी तीर्थ की ओर चल दिये और खाने पीने की ओर कोई ध्यान न देकर जब तक उनमें कुछ भी शक्ति और साहस रहा तब तक चलते ही रहे और जब वे पूर्णतया अशान्त हो गए तो अन्त में मूच्र्छित होकर गिर पड़े। उनकी यह दशा देखकर भगवान् करुणा सागर ने उनको भी मृत्यु से बचाने के लिए उनके पापों का अन्त चाहा और इसी अवसर पर आकाशवाणी हुई कि - हे सेठ! तुम्हारी सेठानी ने मिट्टी खोदते समय ध्यान न देकर सेही के बच्चों को मार दिया था, इसी कारण तुम्हें अपने बच्चों का दुःख देखना पड़ा।
यदि अब पुनः घर जाकर तुम मन लगाकर गऊ की सेवा करोगे और अहोई माता देवी का विधि-विधान से व्रत आरम्भ कर प्राणियों पर दया रखते हुए स्वप्न में भी किसी को कष्ट नहीं दोगे, तो तुम्हें भगवान् की कृपा से पुनः सन्तान का सुख प्राप्त होगा।
इस प्रकार की आकाशवाणी सुनकर सेठ सेठानी कुछ आशावान् हो गए और भगवती देवी का स्मरण करते हुए अपने घर को चले आए। इसके बाद श्रद्धा शक्ति से न केवल अहोई माता के व्रत के साथ गऊ माता की सेवा करना आरम्भ कर दिया अपितु सब जीवों पर दया भाव रखते हुए क्रोध और द्वेष का परित्याग कर दिया।
ऐसा करने के पश्चात् भगवान् की कृपा से सेठ और सेठानी पुनः सातों पुत्र वाले होकर और अगणित पौत्रों के सहित संसार में नाना प्रकार के सुखों को भोगने के पश्चात् स्वर्ग को चले गए। शिक्षा - बहुत सोच विचार के बाद भली प्रकार निरीक्षण करने पर ही कार्य आरम्भ करें और अनजाने में भी किसी प्राणी की हिंसा न करें।
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