दीपावली का महत्व दवाली का पर्व कार्तिक अमावस्या के दिन, हर वर्ष, मनाया जाता है। क्योंकि राम रात्रि में अयोध्या वापिस आये थे और अमावस की रात थी, इसलिए अयोध्यावासियों ने पूरे शहर को दीपकों से जगमगा दिया था।
दीवाली से दो बातों का गहरा संबंध है- एक तो लक्ष्मी पूजन और दूसरा राम का लंका विजय के बाद अयोध्या लौटना। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस महापर्व पर रघुवंशी भगवान श्री राम की रावण पर विजय के बाद अयोध्या आगमन पर नागरिकों ने दीपावली को आलोक पर्व के रूप में मनाया। तभी से यह दीप महोत्सव राष्ट्र के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है।
दीपावली अपने अंदर प्रकाश का ऐसा उजियारा धारण कर आती है, जिसके प्रभाव से अनीति, आतंक और अत्याचार का अंत होता है और मर्यादा,नीति और सत्य की प्रतिष्ठा होती है। भगवान श्री राम की जन्मभूमि व राज्य अयोध्या में था, इसलिए दीपावली का महापर्व उत्तरप्रदेश, विशेषकर अयोध्या में, बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। दीपावली के रूप में विख्यात आधुनिक महापर्व स्वास्थ्य चेतना जगाने के साथ शुरू होता है। त्रयोदशी का पहला दिन धन्वंतरि जयंती के रूप में मनाया जाता है।
लोग इसे धनतेरस भी कहते हैं और पहले दिन का संबंध धन वैभव से जोड़ते हैं। धन्वंतरि जयंती का संबोधन घिस-पिटकर धनतेरस के रूप में प्रचलित हो गया। वस्तुतः यह आरोग्य के देवता धन्वंतरि का अवतरण दिवस है। चतुदर्शी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध तो किया ही था, इसी दिन हनुमान जी का जन्म भी हुआ था। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से दीपावली बंधन मुक्ति का दिन है।
व्यक्ति के अंदर अज्ञानरूप अंधकार का साम्राज्य है। दीपक को आत्म ज्योति का प्रतीक भी माना जाता है। अतः दीप जलाने का तात्पर्य है- अपने अंतर को ज्ञान के प्रकाश से भर लेना, जिससे हृदय और मन जगमगा उठे। इस दिन चतुर्दिक तमस् में ज्योति की आभा फैलती एवं बिखरती है। अंधकार से सतत् प्रकाश की ओर बढ़ते रहना ही इस महापर्व की प्रेरणा है।
दीवाली का पर्व खास तौर से लक्ष्मी जयंती का पर्व भी है और हजारों वर्षोंं से लक्ष्मी पूजन के रूप में मनाया जाता है। लक्ष्मी पूजन का संबंध सुख, संपत्ति, समृद्धि, वैभव आदि से है। लक्ष्मी पूजन और व्यापार का सीधा संबंध है। व्यापारी जगत दीवाली की प्रतीक्षा में पूरा वर्ष लगा देता है और ऐसा भी कहा जा सकता है कि यदि दीवाली अच्छी हो जाए, तो वह पूरे साल के लिए शुभ संकेत भी बन जाती है।
दीवाली से नये वर्ष की शुरुआत भी होती है और दीवाली, हर आदमी में, हर तरह से, नये उत्साह का संचार भी करती है। जिस आदमी का व्यवसाय बहुत अच्छा न चलता हो, वह भी दीवाली से आस लगाये रहता है। दीवाली उसके व्यापार का वह बिंदु है, जहां से वह व्यापार का विस्तार करता है। भारतवर्ष के व्यापारी इसी दिन धन की देवी लक्ष्मी जी का आह्वान करते हुए बही खाते की शुरुआत करते हैं।
दीपावली का सामान्य परिचय लक्ष्मी पूजा के उत्सव के रूप में है। समुद्र मंथन के समय 14 रत्न निकले थे, जिनमें पहले रत्न लक्ष्मी अर्थात् ‘श्री’ के प्रकट होने की अंतर्कथा वाला प्रसंग दीपावली का प्रमुख संदर्भ है। शास्त्रकारों ने लक्ष्मी के आठ स्वरूपों का वर्णन किया है। ये सभी स्वरूप, आद्यालक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी एवं योगलक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हैं।
पतिप्राण् ााचिन्मयी लक्ष्मी सभी पतिव्रताओं की शिरोमणि हैं। भृगु पुत्री के रूप में अवतार लेने के कारण इन्हें भार्गवी कहते हैं। समुद्र मंथन के समय ये ही क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं, इसलिए इनका नाम क्षीरोदतनया हुआ। ये श्री विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं। तंत्रोक्त नील सरस्वती की पीठ शक्तियों में इनका भी उल्लेख हुआ है।
पौराणिक महत्व के साथ यह एक व्यावहारिक सच्चाई भी है कि लक्ष्मी की प्रसन्नता सभी के लिए अभीष्ट है। धन वैभव हर किसी को चाहिए। इसलिए उसी अधिष्ठात्री शक्ति की पूजा-आराधना के लिए दीपावली का महापर्व व्यापक रूप से प्रचलित है। दीवाली पर्व का जिक्र तंत्र ग्रंथों में मिलता है। कमला जयंती, या लक्ष्मी जयंती के नाम से यह पर्व प्रसिद्ध है। लक्ष्मी पूजन का हवाला तंत्रसार ग्रंथ में है।
संपत्ति, सुख और समृद्धि के लिए दीवाली पूजन किया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त तंत्रसार में जिक्र है कि दीवाली पर्व खास तौर से तांत्रिकों, शक्तियों और लक्ष्मी जयंती का पर्व है। दस महाविद्याओं में लक्ष्मी पूजन का जिक्र है और यह शास्त्रसम्मत भी है। दीवाली का पर्व शाक्तों का पर्व भी कहा जाता है।
शाक्त वे लोग होते हैं, जो मूलतः शक्ति के उपासक होते हैं। वे शक्ति की पूजा कर के अपनी अंतर्निहित शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं। सौंदर्य एवं समृद्धि की प्रतीक ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी का पूजन अपने राष्ट्र की सर्वाधिक श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा है। ज्योति पर्व दीपावली तो इसीलिए प्रसिद्ध है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरूप अत्यतं व्यापक रहा ह।ै ऋग्वदे की ऋचाओं में ‘श्री’ का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूप में अनेक बार हुआ है।
अथर्ववेद में ऋषि, पृथ्वी सूक्त में ‘श्री’ की प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘‘श्रिया मां धेहि’’ अर्थात मुझे ‘‘श्री’’ की संप्राप्ति हो। श्री सूक्त में ‘श्री’ का आवाहन जातवेदस के साथ हुआ है। ‘जातवेदोमआवह’ जातवेदस अग्नि का नाम है। अग्नि की तेजस्विता तथा श्री की तेजस्विता में भी साम्य है। विष्णु पुराण में लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में की गई है- श्री रूप और लक्ष्मी रूप। दोनों स्वरूपों में भिन्नता है।
दोनों ही रूपों में ये भगवान विष्णु की पत्नियां हैं। श्रीदेवी को कहीं-कहीं भू देवी भी कहते हैं। इसी तरह लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। सच्चिदानंदमयी लक्ष्मी श्री नारायण के हृदय में वास करती हैं। दूसरा रूप है भौतिक या प्राकृतिक संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी का। यही श्रीदेवी या भूदेवी हैं। सब संपत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्वमयी हैं। इनके पास लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार आदि दोषों का प्रवेश नहीं है।
यह स्वर्ग में स्वर्ग लक्ष्मी, राजाओं के पास राजलक्ष्मी, मनुष्यों के गृह में गृहलक्ष्मी, व्यापारियों के पास वाणिज्यलक्ष्मी तथा युद्ध विजेताओं के पास विजयलक्ष्मी के रूप में रहती हैं। वैदिक पुरुष सूक्त से पुराण् ाों तक, लक्ष्मी परमेष्वर को ऐश्वर्य शक्ति के रूप में स्वीकृत हैं।
इस संबंध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लक्ष्मी केवल बाहरी वस्तु नहीं है, यह वस्तुतः आत्मविभूति है जो इस रूप में सारे प्राणियों के अंदर विद्यमान है, परंतु जो अपनी आत्म ज्योति को प्रकाशित कर पाता है, वही इससे यथार्थ रूप में लाभान्वित हो पाता है।
महर्षि मार्कण्डेय भी इसे बाह्य वस्तु न बताकर आंतरिक तत्व की संज्ञा देते हैं। मानव के आभ्यंतर में जो सार्वभौम शक्ति विद्यमान है। वही बाह्य संपत्ति का अर्जन-विसर्जन करती रहती है तभी तो लक्ष्मी कमल पर आसीन हैं।
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