ज्योतिष का आधार इस प्रकार कर्म है, कर्म की गति गीता के अनुसार गहन है (2) अर्थात यह ठीक से समझी नहीं जा सकती। इसमें वैसी निश्चयात्मकता नहीं है जैसी कि आधुनिक विज्ञान में अपेक्षित होती है। कर्म का मेकेनिक्स योग दर्शन (3) के अनुसार यह है कि संचित कर्म में से जो कर्म प्रधान कर्म होते हैं वे ही प्रारब्ध बन जाते हैं। यही प्रारब्ध इस जन्म में जाति अर्थात मनुष्य या पशु-पक्षी का शरीर, आयु और भोग इन तीन का कारण बनता है। इस प्रारब्ध में आशीर्वाद, शाप दैवी अनुकम्पा, स्वयं का पुरुषार्थ और कुछ अनियत विपाक संचित कर्म बीच-बीच में उलटफेर करते रहते हैं।
इस कारण कर्मफल का गणित कभी भी दो-और दो चार की तरह निश्चयात्मक नहीं हो सकता। चाहे कर्मफल नापने में ग्रहगति को आधार बनायें, स्वर विज्ञान को या लक्षण, शकुन इत्यादि को। इसलिए सबसे पहले तो इसी बात पर चिन्तन और शोध होना चाहिए कि ज्योतिष का आधार क्या है? इसके आन्तरिक घटक कर्मफल का और बाह्य संकेतक ग्रह का इन दोनों का पिण्ड ब्रह्माण्ड सम्बन्ध किस प्रकार का है ? विज्ञान में निश्चयात्मकता एक अनिवार्य शत्र्त है पर यह शत्र्त जड़ पदार्थों पर ही अधिक लागू होती है। मनुष्य चैतन्य है इसलिए मनुष्य केन्द्रित सभी सोशल साइंसेस में भविष्य कथन की परिशुद्धता बहुत ही सीमित स्तर पर देखी जाती है। पर इन सोशल साइंसेज में यह जितनी भी है, यह अपनी स्पष्ट सीमाओं के साथ परिभाषित तो है।
इसलिए यदि हमें कर्मफल की अनिश्चयात्मकता को ग्रह-गति-स्थिति की निश्चयात्मकता से जोड़ना है तो हमें सबसे पहले ज्योतिष विज्ञान की और इसके माध्यम से भविष्य कथन की मर्यादाएं बनानी होंगी। परन्तु इसके पहले तो हमें, ज्योतिष कथन पत्थर की लकीर सदृश्य अमिट है, मनुष्य का भाग्य ग्रहों के अधीन है टोने टोटके से कर्मफल मिट जाएगा जैसे अहंकारी कथन से बचना होगा। फिर यदि ज्योतिष को, सामाजिक विज्ञान के सीमित स्तर पर ही सही, विज्ञान का दर्जा दिलाना है तो ज्योतिष को अनिवार्य रूप से शोध परक होना होगा।
वर्तमान परिदृश्य में ज्योतिष की तीनों प्रधान शाखाओं में, सिद्धान्तगणित, संहिता और फलित में शोध की महती आवश्यकता है, बारहवीं सदी में भास्कराचार्य ने कुछ शोध कार्य किया पर वेध नहीं किया। कुछ वेध कार्य सवाई राजा जयसिंह ने वेधशाला बनवाकर अवश्य करवाया था। इसके बाद आज दिन तक भारतीय ज्योतिष में न तो शोध हुआ और ना वेध ही।
(4) ज्योतिष में शोधकार्य की मानसिकता विकसित करना पहली आवश्यकता: ज्योतिष में अभी भी वृद्ध वचन प्रमाण, पुस्तक प्रमाण और आप्त वाक्य को अपने अनुभव से आधी महत्व देने की परम्परा जैसी है इस कारण जो बातें दिन के उजाले की तरह साफ हैं उन्हें भी हम मानने को तैयार नहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सूर्य की’आँखिन देखी’ स्थिति की उपेक्षा करना..। सबसे छोटा दिन 21 दिसम्बर को होता है तब सूर्य भूमध्य रेखा से धुर कर दक्षिण में पहुँच जाता है और इसी दिन से सूर्य उत्तर दिशा की तरफ बढ़ना शुरू होता है जिसे हम उत्तरायण कहते हैं। वेदों और उपनिषदों में सूर्य का ऊपर उत्तर की ओर बढ़ना आत्मा के ऊध्र्व आरोहण का सात्विकता की तरफ बढ़ने का प्रतीक हैं
जिसे पर्व का रूप दिया गया है। उत्तरायन का पर्व- इस प्रकार होना तो चाहिए 21 दिसम्बर को जब सबसे छोटा दिन रहकर सूर्य के उत्तरायण होने के साथ दिन बढ़ना शुरू होता है पर हम उत्तरायण के इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं और 24 दिन बाद सूर्य के मकर राशि प्रवेश को उत्तरायन मानते हैं। पहले कभी उत्तरायण मकर सूर्य प्रवेश के समय ही होता था इसलिए उत्तरायन का नाम पुराणों और धर्मशास्त्रों में मकर संक्रांति लिखा गया था पर लगभग दूसरी सदी से उत्तरायण मकर से पीछे खिसकने लगा था और वर्तमान में यह उत्तरायन धनु राशि के 5 अंश पर सूर्य के आने के समय हो रहा है। हम क्यों प्रत्यक्ष को छोड़ कर धर्म शास्त्रों के डेढ़ हजार वर्ष पुराने लेख को आधार बनाकर अपने ही प्रत्यक्ष गणित को गलत कहना चाहते हैं? ईधर हम कहते नहीं थकते कि ज्योतिष तो चाँद, सूरज का प्रत्यक्ष शास्त्र है पर करते कुछ और हैं।
ज्योतिष को वैदिक ज्योतिष कहते हैं पर वैदिक भावना की अनदेखी करते हैं। इसी प्रकार धर्मशास्त्र ज्योतिष को कहते तो हैं वेद का नेत्र -पर बेचारे ज्योतिष की आँखिन की देखी न मान कर धर्मशास्त्र, अपनी कागज की लेखी पर अड़े हुए हैं और ज्योतिष को भी मजबूर कर रहे हैं ? क्यों ? इसलिए कि ज्योतिष में शोध की स्थिति मंद है, शोध को मान्यता दिलाने का साहस और आग्रह नहीं है और सबसे बढ़ कर शोध को ऊर्जा देने वाली जिज्ञासा की प्रवृत्ति समाप्त प्राय है। छठी सदी में वाराहमिहिर ने राहुचार अध्याय में चंद्रग्रहण का कारण पृथ्वी की छाया और सूर्यग्रहण का कारण चन्द्र बिम्ब का बीच में आना बताया पर साथ ही धर्मशास्त्रों के राहु राक्षस को भी ग्रहण का एक कारण बता दिया इससे ग्रहण पर जनता की समझ आज तक वैज्ञानिक सोच वाली नहीं बन सकी। हो सकता है वराहमिहिर को सामाजिक बहिष्कार के भय कारण से ऐसा लिखना पड़ा हो पर आज क्या डर है? ज्योतिषी पंचांग में क्यों दो बार उत्तरायन दिखा रहे हैं? उत्तरायण की प्रतीक्षा करने वाले यदि भीष्म पितामह आज होते तो क्या करते? वह दो बार इच्छा मृत्यु का वरण कैसे करते ? यदि हजारों वर्ष से शोधित अपनी ही सही बात पर ज्योतिष दृढ़ नहीं रह सकता तो ज्योतिष में शोध की मानसिकता की बात करना ही व्यर्थ है।
इससे तो लगता है कि हमें शुरू से ही वैज्ञानिक बात का घालमेल धार्मिक कथा के साथ करने की आदत है। भारतीय ज्योतिष का गहन अध्ययन करने वाले अलबेरुनी (11वीं सदी) ने तो अपनी पुस्तक ‘भारतवृत्तांत’ के 45 वें अध्याय में ऐसा आक्षेप किया भी है। इसलिए सबसे पहले हमें ज्योतिष में उस जिज्ञासा वृत्ति को बढ़ाना होगा जो शोध और नवाचार अर्थात इन्नोवेशन की जननी है। इसके लिए आकाश दर्शन टेलीस्कोप से निरीक्षण का प्रचार प्रसार स्कूली बच्चों में करना होगा। यहां गणित संहिता और फलित के कुछ ऐसे क्षेत्रों की चर्चा संक्षेप में विचारार्थ प्रस्तुत है जिनमंे शोध की अविलम्ब आवश्यकता है।
1. रोहिणी-मृगशिरा प्रवेश से वर्षाज्ञान पर शोध कार्यः ऋतु निष्ठ वर्षमान के स्थान पर नक्षत्र आधारित वर्षमान लेने के कारण वर्षा ज्ञान के लिए सूर्य का आद्र्रा नक्षत्र प्रवेश आधारित गणित ही अब निराधार हो चला है क्योंकि ऋतु पहले आने के कारण आद्र्रा से पहले पड़ने वाले नक्षत्रों अर्थात रोहिणी और मृगशिरा में ही लगभग 2 जून से भारत के दक्षिण में वर्षा का आरम्भ हो जाता है। इसलिए सूर्य-रोहिणी योग और सूर्य-मृगशिरा योग जो 1 जून से 10 जून के बीच होते हैं, के आधार पर वर्षा का अनुमान लगाने की दिशा में शोध कार्य होना चाहिए।
2. तिथि के मान पर शोध कार्य: इसी प्रकार धर्मशास्त्र की दुहाई देकर तिथि की अधिकतम लम्बाई ‘बाण वृद्धि रस क्षय’ के आधार पर 60 घटी। बाण अर्थात 5 घटी वृद्धि कर कुल 65 घटी तक और न्यूनतम 60 ऋण (-) रस अर्थात 6 घटी घटाकर 54 घटी अभी भी ले रहे हैं जबकि चन्द्रमा के संस्कारित गणित के आधार पर अब तिथि का मान औसत 60 घटी में सप्तवृद्धि और दश क्षय तक मान्य किया जा रहा है। इस मतभेद के कारण व्रत और त्यौहार की आरम्भ और समापन तिथि में कई घंटे तक का अंतर आ रहा है इस पर भी शोध कार्य आवश्यक है।
3. असमान खगोलीय वास्तविक नक्षत्र विभाजन पर शोधकार्य: सूर्य सिद्धांत सहित ब्रह्मगुप्त भास्कर आदि खगोल गणितज्ञों ने और ग्रहलाघवकार ने नक्षत्रों को परस्पर अ-समान दूरी पर माना है और इसका इसी अनुसार गणित भी दिया है। इसके पहले गर्ग ने व्यवहार में सरलता की दृष्टि से 28 नक्षत्रों को इनकी अ-समान दूरी के आधार पर तीन भागों में बाँटा है। सिद्धान्त ग्रंथों में चन्द्र की मध्यम गति 790 कला और 35 विकला (800 कला के स्थान पर) लेकर सामान दूरी के अर्थात सम-भोगी अर्ध भोगी अर्थात सम से आधे भोग के नक्षत्र और अध्र्य भोगी अर्थात सम से डेढ़ गुणा दूरी के नक्षत्र ये तीन विभाजन किए हैं। परन्तु फलित ज्योतिष ने और मुहूर्त ज्योतिष ने भी लगभग तीसरी से छठी सदी से ही नक्षत्रों को परस्पर समान दूरी पर मानकर 13 अंश 20 कला का पहाड़ा बनाकर फलादेश करना जारी रखा है। इसका सीधा परिणाम यह हुआ है कि बहुत से नक्षत्र अपने समान भाग के क्षेत्र के बाहर हो गए हैं। अर्थात पंचांग में जो नक्षत्र लिखा है उस नक्षत्र पर चन्द्रमा या तो पहले आता है या बाद में आता है। सूर्य सिद्धांत के गणित से देखें तो नौ नक्षत्र और लाहिड़ी की एफेमिरीज से देखें तो कम से कम छह नक्षत्र अपने समान भाग से बाहर हैं। वराह मिहिर ने भी चन्द्र चार अध्याय में इस विसंगति को स्पष्ट बताया है। वर्तमान पंचांगों का भचक्र का समान भाग का विभाजन काल्पनिक है-यह सिद्ध करने के लिए किसी को स्फिरिकल ट्रिगनोमेट्री सीखने की जरूरत नहीं और न ही सिद्धान्त ग्रन्थ देखने की जरूरत है। जरूरत है केवल जिज्ञासा की कि देखें तो सच क्या है आप केवल पंचांग में चन्द्रमा का नक्षत्र देखिये और शाम का आकाश देखिये।
इंटरनेट पर सर्वसुलभ ‘स्काईदिस वीक’ जैसे प्रोग्राम भी आकाश दर्शन कराते हैं। यहां असमान नक्षत्र विभाग के केवल दो-तीन उदाहरण प्रस्तुत हैं। मृगशिरा से आद्र्रा की दूरी या भोगांश पांच अंश मात्र है। चित्रा और स्वाति नक्षत्रों के योग ताराओं के बीच परस्पर दूरी मात्र 23 कला है या आधा डिग्री से भी कम है जबकि स्वाति और अनुराधा अर्थात विशाखा की परस्पर अंशात्मक दूरी लगभग 21 अंश है और आद्र्रा से पुनर्वसु -2 (केस्टर या अल्फा जेमिनोरम) का अन्तर 21 डिग्री से अधिक है। जाहिर है कि वास्तविकता के आधार पर फलित ने कभी शोध कार्य ही नहीं किया। फलित की किसी पुस्तक में खगोल गणित इसीलिए नहीं होता.. तथ्य तो यह है
कि वैदिक काल में नक्षत्र मण्डल का उपयोग केवल सूर्य चन्द्र की स्थिति और मास ऋतु आदि काल विभाजन के लिए ही होता था। फलित ने इसे जटिल मान कर काल्पनिक विभाजन कर दिया और तो और जब राशियां भारत में प्रचलित होने लगीं तो भारतीय नक्षत्र मण्डल को राशियों में फिट कर दिया गया। इसकी बड़ी तारीफ की जाती है पर तथ्य तो यह है कि 8 नक्षत्र प्रचलित 12 राशियों में नहीं है अन्य तारामंडल में है: मृगशिरा आद्र्रा -ओरियान में, आश्लेषा वासुकी में, हस्त कॉरवस में, स्वाति बूतिस में श्रवण-एक्विला, उअया गरुण में, धनिष्ठा- देल्फिनी या उलूपी में , पूर्वा और उत्तराभाद्रपद, हयशिर या पेगासिस, एंड्रोमेडा तारामंडल में हैं। इसप्रकार नक्षत्र और तारामंडलों के बीच सम्बन्धों पर नए सिरे से भी रिसर्च की जरूरत है।
4. चन्द्रतारा योग का फलित प्रभाव पर शोध कार्य: इसी प्रकार चंद्रमा केवल 11 नक्षत्रों से अंशात्मक योग करता है शेष नक्षत्रों से यह दूर से ही हेलो हाय करता है तो दोनों स्थितियों का फलादेश एक सा कैसे हो सकता है ? कहने का आशय यह है कि वास्तविक आकाश में दृश्यमान नक्षत्र के आधार पर पंचांग बनाकर फलादेश को नए सिरे से जांचना और नए अभिलेख तैयार करना शोध का बड़ा कार्य क्षेत्र हो सकता है। निश्चित तौर पर इससे फलित की परिशुद्धता बहुत अधिक बढ़ेगी। पश्चिम में फिक्स स्टार एस्ट्रोलाॅजी पर टाॅलेमी का और विवियन राॅब्सन का कार्य उच्च कोटि का है जबकि हमारे यहाँ एक ही जन्म नक्षत्र के परस्पर विरोधी फलादेश हैं। साफ्टवेयर जनित जन्मपत्रिका में एक ही जन्म नक्षत्र का परस्पर विरोधी फल एक जगह देखकर ज्योतिष को विज्ञान कहने में आपको कठिनाई होगी।
5. संहिता पर शोध कार्य: नक्षत्रों की असमान वास्तविक दूरी के आधार पर ही नक्षत्रों से ग्रहों का योग आकाश में देखा जा सकता है। सूर्य सिद्धान्त के नक्षत्र-ग्रह युति अधिकार अध्याय में वर्णित निरीक्षण और प्रयोग वास्तविक नक्षत्र लेने पर ही सम्भव है। पंचांग में दर्शित ग्रह का नक्षत्र प्रवेश विवरण सूर्य सिद्धान्त की दृष्टि से किसी काम का नहीं। इस विसंगति को छिपाने के लिए हम सूर्य सिद्धान्त को अ-पौरुषेय, भगवान का बनाया कहकर नमस्कार कर लेते हैं। संहिता में ग्रह नक्षत्र युति के निरीक्षण के आधार पर लोकउपयोगी भविष्य कथनसूत्र दिए गए हैं। वस्तुतः संहिता में व्यक्ति के स्थान पर समाज देश को महत्व दिया है अर्थात वर्षा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक परिवर्तन, भूकम्प का पूर्व ज्ञान, भूगर्भ जल ज्ञान जैसे लोक मंगलकारी विषय इसमें होते हुए भी हमने इसकी हमने डेढ़ हजार वर्षों से कोई चिन्ता नहीं की है। इतिहासकार शंकर बाल कृष्ण दीक्षित का कथन है कि दुःख के साथ कहना पड़ता है कि वराहमिहिर के बाद संहिता का विचार व उपयोग किसी ने भी नहीं किया है। यदि ऐसा किया गया होता तो यूरोपीय हमसे आगे नहीं बढ़ पाते। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि संहिता पर कार्य की परंपरा आगे नहीं चल सकी।
यही दुःख प्रो. केदारदत्त जोशी प्राध्यापक बी.एच.यू ने ताजिक नीलकंठी की भूमिका में प्रकट किया है। अब हम संहिता ज्योतिष को डिजास्टर मैनेजमेंट -आपदा प्रबंधन का अंग बनाने की दिशा में शोध कार्य कर सकते हैं और इस प्रकार अपना ज्योतिष का व विश्वविद्यालय का गौरव बढ़ा सकते हैं।
6. वर्षा विज्ञान को मौसमविज्ञान व रिमोटसेंसिंग से जोड़ कर शोधकार्य: वर्षा हमारे देश की कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था का आधार है। संहिता के विभिन्न अध्यायों में वर्षा विज्ञान फैला है जो प्रत्येक दिन के 24 घंटे आकाश निरीक्षण की अपेक्षा रखता है जो टीम वर्क और धन साधन के बिना सम्भव नहीं है इस क्षेत्र में मौसम विभाग से आंकड़े लेकर, जी.पी.एस सिस्टम और रिमोट सेंसिंग प्रणाली टीम वर्क और संसाधन की मदद से वर्षा की क्षेत्रीय भविष्यवाणी के बहुत अधिक परिशुद्धता वाले सिद्धान्त विकसित किये जा सकते हैं। ज्योतिष का यह बहुत ही बड़ा योगदान, कृषि बागवानी अर्थव्यवस्था और आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में होगा इससे ज्योतिष को वह सम्मान फिर से मिलेगा जो संहिता के कारण उसने पूर्व में प्राप्त किया था और जिसे बहुत अधिक व्यक्ति केन्द्रित होने व राजाओं को यात्रा व विजय मुहूर्त बताने में से उसने खोया है। इसके अतिरिक्त संहिता के भूगर्भ जल ज्ञान पर वनस्पति विज्ञान और रिमोट सेंसिंग के साथ मिल कर शोध कार्य होना चाहिए।
7. फलित ज्योतिष शोध क्षेत्र: जन्म पत्रिका से रोग के डायग्नोसिस पर पहले से ही कार्य हो रहा है। इस कार्य को पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद और ज्योतिष इन तीन के संयुक्त वैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने की जरूरत है। लेखक ने भी इस क्षेत्र में कुछ इसी प्रकार का शोध कार्य किया है जो जगदगुरु रामानंद संस्कृत विश्वविद्यालय राष्ट्रीय संगोष्टी (2008) में प्रस्तुत किया गया था। इसी प्रकार आज करियर काउंसिलिंग में भी ज्योतिष के शोधपरक मार्गदर्शन की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि मन की प्रवृत्ति को ज्योतिष ही बेहतर ढंग से उजागर कर सकता है। लेखक ने इस पर कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों के साथ-साथ प्रगति मैदान में फ्यूचर समाचार के राष्ट्रीय आयोजन में मार्गदर्शन दिया है। इसी प्रकार माता और शिशु के स्वास्थ्य में डिलीवरी की बेहतर परिशुद्ध तारीख निर्धारित करने में भी ज्योतिष की सहायता लेकर सिजेरियन आपरेशन की बढ़ती प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है जो माता और शिशु दोनों के स्वास्थ्य और धन की बचत की दृष्टि से एक सराहनीय कार्य रहेगा।
8. ज्योतिष को सृष्टि विज्ञान और अध्यात्म से ही जोड़ें : सृष्टि के रहस्य जानने के लिए आज कास्मोलाजी अर्थात ब्रह्माण्ड विज्ञान में अपनी चरम सीमा पर आ कर स्टीफन हाकिंग यह सवाल कर रहे हैं कि यह सृष्टि क्यों बनी? मैं यहां क्यों हूँ? और कौन हूँ ? इसलिए ज्योतिष में भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान एवं अध्यात्म ज्योतिष भी पाठ्îक्रम शामिल किए जाने चाहिए। इससे शोध कार्य में व्यापकता व आधुनिकता आएगी।
9. अनुभवी ज्योतिषियों को विशेष नियम बनाकर शोध-गाइड बनाएं: शोध कार्य में गुणवत्ता के लिए योग्य मार्गदर्शकों का अभाव है। ज्योतिष जैसे परम्परागत ज्ञान क्षेत्र में डिग्री को गाइड की एकमात्र योग्यता न माना जाए, अनुभव, निजी स्तर पर शोध कार्य राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रस्तुत पेपर, आईफास के रिसर्च जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र को भी मार्गदर्शक की मान्यता का आधार बनाया जाए ताकि शोध कार्य का विस्तार हो और अनुभव का सदुपयोग भी हो सके। के स्थान पर समाज देश को महत्व दिया है अर्थात वर्षा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक परिवर्तन, भूकम्प का पूर्व ज्ञान, भूगर्भ जल ज्ञान जैसे लोक मंगलकारी विषय इसमें होते हुए भी हमने इसकी हमने डेढ़ हजार वर्षों से कोई चिन्ता नहीं की है। इतिहासकार शंकर बाल कृष्ण दीक्षित का कथन है कि दुःख के साथ कहना पड़ता है कि वराहमिहिर के बाद संहिता का विचार व उपयोग किसी ने भी नहीं किया है। यदि ऐसा किया गया होता तो यूरोपीय हमसे आगे नहीं बढ़ पाते। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि संहिता पर कार्य की परंपरा आगे नहीं चल सकी।
यही दुःख प्रो. केदारदत्त जोशी प्राध्यापक बी.एच.यू ने ताजिक नीलकंठी की भूमिका में प्रकट किया है। अब हम संहिता ज्योतिष को डिजास्टर मैनेजमेंट -आपदा प्रबंधन का अंग बनाने की दिशा में शोध कार्य कर सकते हैं और इस प्रकार अपना ज्योतिष का व विश्वविद्यालय का गौरव बढ़ा सकते हैं।
6. वर्षा विज्ञान को मौसमविज्ञान व रिमोटसेंसिंग से जोड़ कर शोधकार्य: वर्षा हमारे देश की कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था का आधार है। संहिता के विभिन्न अध्यायों में वर्षा विज्ञान फैला है जो प्रत्येक दिन के 24 घंटे आकाश निरीक्षण की अपेक्षा रखता है जो टीम वर्क और धन साधन के बिना सम्भव नहीं है इस क्षेत्र में मौसम विभाग से आंकड़े लेकर, जी.पी.एस सिस्टम और रिमोट सेंसिंग प्रणाली टीम वर्क और संसाधन की मदद से वर्षा की क्षेत्रीय भविष्यवाणी के बहुत अधिक परिशुद्धता वाले सिद्धान्त विकसित किये जा सकते हैं।
ज्योतिष का यह बहुत ही बड़ा योगदान, कृषि बागवानी अर्थव्यवस्था और आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में होगा इससे ज्योतिष को वह सम्मान फिर से मिलेगा जो संहिता के कारण उसने पूर्व में प्राप्त किया था और जिसे बहुत अधिक व्यक्ति केन्द्रित होने व राजाओं को यात्रा व विजय मुहूर्त बताने में से उसने खोया है। इसके अतिरिक्त संहिता के भूगर्भ जल ज्ञान पर वनस्पति विज्ञान और रिमोट सेंसिंग के साथ मिल कर शोध कार्य होना चाहिए।
7. फलित ज्योतिष शोध क्षेत्र: जन्म पत्रिका से रोग के डायग्नोसिस पर पहले से ही कार्य हो रहा है। इस कार्य को पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद और ज्योतिष इन तीन के संयुक्त वैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने की जरूरत है।
लेखक ने भी इस क्षेत्र में कुछ इसी प्रकार का शोध कार्य किया है जो जगदगुरु रामानंद संस्कृत विश्वविद्यालय राष्ट्रीय संगोष्टी (2008) में प्रस्तुत किया गया था। इसी प्रकार आज करियर काउंसिलिंग में भी ज्योतिष के शोधपरक मार्गदर्शन की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि मन की प्रवृत्ति को ज्योतिष ही बेहतर ढंग से उजागर कर सकता है। लेखक ने इस पर कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों के साथ-साथ प्रगति मैदान में फ्यूचर समाचार के राष्ट्रीय आयोजन में मार्गदर्शन दिया है। इसी प्रकार माता और शिशु के स्वास्थ्य में डिलीवरी की बेहतर परिशुद्ध तारीख निर्धारित करने में भी ज्योतिष की सहायता लेकर सिजेरियन आॅपरेशन की बढ़ती प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है जो माता और शिशु दोनों के स्वास्थ्य और धन की बचत की दृष्टि से एक सराहनीय कार्य रहेगा।
8. ज्योतिष को सृष्टि विज्ञान और अध्यात्म से ही जोड़ें : सृष्टि के रहस्य जानने के लिए आज कास्मोलाजी अर्थात ब्रह्माण्ड विज्ञान में अपनी चरम सीमा पर आकर स्टीफन हाकिंग यह सवाल कर रहे हैं कि यह सृष्टि क्यों बनी? मैं यहां क्यों हूँ? और कौन हूँ ? इसलिए ज्योतिष में भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान एवं अध्यात्म ज्योतिष भी पाठ्îक्रम शामिल किए जाने चाहिए। इससे शोध कार्य में व्यापकता व आधुनिकता आएगी।
9. अनुभवी ज्योतिषियों को विशेष नियम बनाकर शोध-गाइड बनाएं: शोध कार्य में गुणवत्ता के लिए योग्य मार्गदर्शकों का अभाव है। ज्योतिष जैसे परम्परागत ज्ञान क्षेत्र में डिग्री को गाइड की एकमात्र योग्यता न माना जाए, अनुभव, निजी स्तर पर शोध कार्य राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रस्तुत पेपर, आईफास के रिसर्च जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र को भी मार्गदर्शक की मान्यता का आधार बनाया जाए ताकि शोध कार्य का विस्तार हो और अनुभव का सदुपयोग भी हो सके।