ज्योतिर्विज्ञान से कैसर रोग
ज्योतिर्विज्ञान से कैसर रोग

ज्योतिर्विज्ञान से कैसर रोग  

ब्रजेंद्र श्रीवास्तव
व्यूस : 7115 | अकतूबर 2009

ज्योतिर्विज्ञान से कैंसर रोग की पहचान पर विचार के पूर्व यह युक्तिसंगत होगा कि इसकी पहचान की पाश्चात्य एवं आयुर्वेदिक पद्धतियों के आधार पर एक दृष्टि डाल ली जाए ताकि ज्योतिष विज्ञान के निष्कर्षों की पड़ताल इन दोनों पद्धतियों के दृष्टिकोण से भी की जा सके। इससे विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के बीच ज्ञान के आदान प्रदान को भी बढ़ावा मिलेगा।

पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार कैंसर: पाश्चात्य चिकित्सा के अनुसार शरीर की असंख्य कोशिकाओं के जींस में म्यूटेशन या प्रेषणीय उत्परिवर्तन होने पर जींस विकृत हो जाते हैं, जो अपनी कोशिका को गलत समय व गलत शरीर स्थान पर विभाजित होते रहने का संकेत देने लगते हैं तथा इससे ये कोशिकाएं नष्ट न होकर निरंतर बढ़ती जाती हंै। यह वृद्धि नियोप्लाज्म कही जाती है जो दो तरह की हो सकती है


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- सामान्य तथा कैंसर युक्त बिनाइन और मैलिगनेंट। इस विकृत ग्रंथि मेलिंगनेंट ग्रंथि को इसके प्रकार व स्थान के अनुसार विभिन्न नाम दिए गए हैं जैसे कारसिनोमा, सारकोमा इत्यादि। कोशिकाएं 200 प्रकार की मानी गई है,ं अतएव कैंसर भी 200 प्रकार के हो सकते हैं। इस प्रकार पाश्चात्य विज्ञान की कैंसर की प्रक्रिया मेकेनिज्म आॅफ कार्सिनोजेनेसिस कोशिका के नाभिक में स्थित डी.एन.ए. के जनेस्टिक कोड के व्यवहार पर केंद्रित है। दूसरे स्तर पर पाश्चात्य विज्ञान ने उन घटकों को सूचीबद्ध करने का उनके प्रभाव की तुलनाकर सांख्यकीय अध्ययन का कार्य भी किया है। इसमें शरीर के अंदर जाने वाले तथा बाहर से प्रभावित करने वाले सभी घटक हैं। कुछ प्रमुख घटक, जो कार्सीनोजीन्स को प्रत्यक्ष या परोक्ष बढ़ावा देते हैं, ये हैं:

1. तंबाकू का नाइट्रोसेमिनस,

2. विभिन्न घातक रेडियेशन, जिसमें अल्फा व गामा किरणों का या रेडियो एक्टिविटी का विकिरण शामिल है।

3. रोग निरोध क्षमता में गिरावट

4. उम्र

5. आहार में फल-सब्जी की कमी

6. वायरस जैसे हेपेटाइटिस बी वायरस से प्रायमरी लिवर कैंसर की संभावना (सहारा क्षेत्र में बच्चों में लिम्फेमा, चीन में फेरिंग सिस्टम कैंसर इ.बी.वी. वायरस से जुड़े पाए गए, ब्रिटेन में होडकिंस रोग के 10 में से 4, इ.बी.वी. वायरस से संक्रमित पाए गए)

7. कार्यस्थल के जोखिम, जिसमें घातक रसायनों का उपयोग होता है।

8. जीवन पद्धति व आदतें आदि। इन घटकों में से एक या अधिक की उपस्थिति से कैंसर हो, यह आवश्यक नहीं।

आयुर्वेद के अनुसार कैंसर: आयुर्वेद में अंग प्रत्यंग के आवरण या चर्म की छठी परत रोहिणी कहलाती है जो पाश्चात्य इपीथीलियम के समकक्ष होती है। रोहिणी का संस्कृत में एक अर्थ है ”टिशू, जिसकी प्रकृति वृद्धि को प्राप्त होना होती है।“ जब यह रोहिणी क्षतिग्रस्त हो जाती है तब ग्रंथि बनती है।

ग्रंथि असामान्य शोथ होती है। अर्बुद भी असमान्य शोथ होता है पर यह ग्रंथि से बड़ा होता है। आयुर्वेद के अनुसार प्रत्येक ग्रंथि या अबुर्द कैंसर ग्रस्त नहीं होता ठीक उसी तरह जैसे कि पाश्चात्य नियोप्लाज्म या ग्रंथि बिनाइन अथवा कैंसर युक्त दोनों तरह की होती है। रोहिणी भी दो तरह के अर्बुद व ग्रंथि बनाती है।

यह असमान्य वृद्धि पाश्चात्य विज्ञान की तरह ही आयुर्वेद में भी स्थान व प्रकार से कई नामों से पहचानी जाती है जैसे ग्रंथि, अबुर्द, गुल्म आशिला, बाल्मिका, शालुका इत्यादि। कैंसर रहित वृद्धि त्रिदोष में एक या दो दोष के योग से होती है। उदाहरणार्थ नीली ग्रंथि वातज, लाल-पीली ग्रंथि पित्तज तथा कठोर ग्रंथि कफज होती है पर जब त्रिदोष नियंत्रण से परे हो जाते हंै तब यह कैंसर युक्त बन जाती है। त्रिदोषज शब्द कैंसर की आरंभिक स्थिति के लिए तथा सन्निपातज कैंसर खतरनाक स्थिति के लिए प्रयुक्त होता है।

आयुर्वेद के एक अन्य मत के अनुसार शरीर में 13 स्रोतस या सिस्टम हैं

जिनमें चार प्रकार की विकृति आ सकती है-

1. अति प्रकृति जैसे अधिक पसीना आना आदि

2 /कावट

3. विमार्ग गमन जैसे वमन। ये तीनों क्रियात्मक हैं

4. चैथी विकृति है ग्रंथि।

यही आधुनिक कैंसर है, यदि इसमें तीनों दोषों की सम्मिलित भूमिका हो। इस प्रकार अष्ट धातुओं में से किसी एक धातु जैसे रक्त के दोष से होने वाला अर्बुद या मांस के दोष से होने वाला अर्बुद, कैंसर नहीं हो सकता। तंत्र की खराबी से जो विकृत ग्रंथि या अर्बुद सृजित होगा वही कैंसर जन्य होगा। ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार कैंसर: ज्योतिष का आधार पूर्वजन्मकृत कर्म है। ग्रह इनके संकेतक मात्र हैं।

अतएव रोग की व्युत्पत्ति के संबंध में ज्योतिष में आयुर्वेद का यही मत ग्रहण किया गया है कि रोग वात, पित्त व कफ इन त्रिदोषों तथा चोट आदि के अतिरिक्त पूर्व जन्मकृत कर्म के परिणामस्वरूप भी होते हैं। चरक ने दैव का अर्थ पूर्व जन्मकृत कर्म ही लिया है। सुश्रुत 7 ने भी पूर्वकर्मानुसार इस जन्म में गुणादि का प्रादुर्भाव माना है। ज्योतिष के ग्रहयोग भी व्यक्ति के पूर्वकर्मानुसार तथा इस जन्म के आहार विहार, पर्यावरणीय स्थिति इत्यादि कई कारणों से रोगों की संभावना दर्शाते हैं।


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ये घटक व्यक्ति के वर्तमान कर्मों की प्रवृत्ति के साथ मिलकर रोग उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार व्यक्ति के ग्रह की पूर्वकर्म के अनुसार रोग विशेष के प्रति जन्मजात जेनेटिक संवेदनशीलता ससेप्टिबिलिटी होती है जो इस जन्म के कर्म की प्रवृत्ति जैसे दिनचर्या आदतों के साथ मिलकर रोग कारक बनती है।

इसलिए ज्योतिष में व्यक्ति की आनुवंशिक विशेषताएं तथा पर्यावरणीय घटक, दोनों की परस्पर प्रतिक्रिया और अभिक्रिया का समावेश होने से ज्योतिष विज्ञान कैंसर सहित सभी प्रमुख रोगों की पहचान में सहायक तो होता ही है, यह रोग विशेष के प्रति व्यक्ति की संवेदनशीलता बताने में भी सबसे अधिक सहायक हो सकता है।

इसमें व्यक्ति की जन्मपत्रिका उसके जेनेटिक कोड को बताने का कार्य भलीभांति कर सकती है। ज्योतिष विज्ञान में कैंसर के ग्रह योग का सूत्र इस सूत्र में 5 घटक हैं:

1. षष्ठम भाव तथा षष्ठेश पीड़ित या क्रूर ग्रह की नक्षत्र में स्थिति

2. बुध ग्रह की पीड़ित या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थिति

3. गुरु ग्रह की पीड़ित या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थिति

4. विभाजन कारक अर्धकाय ग्रह राहु का दुष्प्रभाव अथवा सूर्य, मंगल व शनि के दुष्प्रभाव का जन्मपत्रिका में अधिक

5. द्विस्वभाव संज्ञक राशियों का ऊपर वर्णित घटक 1, 2, 3 में होना। षष्ठेश, षष्ठ भाव पीड़ित:

(क) शनि अथवा राहु-केतु युक्त अथवा शनि दृष्ट

(ख) षष्ठेश क्रूर ग्रह का विशेषतः शनि, राहु, केतु, मंगल व सूर्य के नक्षत्र में होना।

(ग) षष्ठ भाव में शनि या राहु अथवा दोनों का होना।

वस्तुतः वृहत् पराशर के अध्याय 18 के श्लोक 12 व 13 इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं कि षष्ठ पर क्रूर ग्रह का प्रभाव स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद होता है। रोग स्थान गते पापे, तदीशे पाप से युक्त हो तो जातक रोगी होगा और यदि षष्ठ भाव में राहु व शनि हों तो दीर्घकालिक रोगी होगा।

स्पष्ट है कि छठे भाव में स्थित पाप ग्रह रोग दूर नहीं करेगा, बल्कि स्वास्थ्य की हानि करेगा। इसकी पुष्टि चंद्रकला नाड़ी के सूत्रों की व्याख्या से भी होती है कि यदि कोई क्रूर ग्रह अपनी राशि को देखता है तो उक्त दृष्ट राशि जिस भाव में स्थित है उस भाव से संकेतित जीवतत्व की हानि करेगा। यह जीवतत्व जातक के शरीर का अंग भी हो सकता है जो उस राशि भाव के नियंत्रण में हो अथवा उससे संबंधित हो सकती है।

यहां ‘‘यो यो भावः स्वामिदृष्टो’’ के श्लोक की दूसरी पंक्ति ‘‘पापैरेवं तस्य भावस्य हानिः’’ को चंद्रकला नाड़ी के इसी संदर्भ में देखना युक्तिसंगत होगा। बुध ग्रह क्रूर ग्रहों से पीड़ित हो, या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो अथवा षडबल में हीनबली हो। बुध ग्रह चर्म का नियंत्रक है तथा इस प्रकार यह कोशिका के विभिन्न आवरणों का नियंत्रक है आयुर्वेद के अनुसार चर्म की छठी परत रोहिणी या इपीथेलीयम के क्षतिग्रस्त होने पर कोशिकाएं अनियंत्रित वृद्धि को प्राप्त हो जाती हैं।

इसलिए बुध की भूमिका अहम है। वराहमिहिर ने जीव कारक ग्रहों में गुरु के साथ बुध और केतु को भी शामिल किया है, अतएव इन दोनों की भी भूमिका देखनी होगी। गुरु जीवन तत्व कारक तथा पोषण एवं वृद्धि कारक ग्रह है। यह चयापचय (मैटाबालिज्म) का नियंत्रक भी है। आहार में उपलब्ध शर्करादि, चयापचय की प्रक्रिया से रासायनिक ऊर्जा विद्युत चंुबकीय ऊर्जा में रूपातंरित होकर शारीरिक मानसिक ऊर्जा का कार्य करती है। चयापचय में दो क्रियाएं होती हैं

- चय और अपचय। चय में ऊर्जा संग्रहीत होती है और छोटे अणु, कार्बोहायड्रेट्स, प्रोटीन व चर्बी के बड़े अणु में रूपातंरित होते हैं। अपचय में कोशिकाएं विखंडित होकर ऊर्जा पैदा करती हैं। यह ऊर्जा शरी में ऊष्मा नियंत्रण व अन्य मानसिक व शारीरिक क्रियाओं के संचालन का कार्य करती है। बड़े अणु छोटे में बदलते हैं तथा अवशिष्ट पदार्थ आंत, वृक्क, फेंफड़े व चर्म आदि से निःसृत होते जाते हैं।

चयापचय में हार्मोन्स भी मदद करते हैं। आमतौर पर मेडिकल साइंस व आयुर्वेद में यही माना जाता है कि चयापचय की विसंगति से कैंसर नहीं होता अर्थात् मेटाबाॅलिक डिसआॅर्डर कैंसर की उत्पत्ति में कारण नहीं है, पर मेरे ज्योतिष विज्ञान के अनुसंधान में चयापचय एवं हार्मोन्स दोनों के नियंत्रक बृहस्पति का दोष ग्रस्त होना एक प्रमुख घटक के रूप में सामने आया है। विचारणीय है कि विकृत कोशिका में दो बातें मुख्य होती हैं

(1) विकृत कोशिका विचलित होकर बढ़ती है पर गलत दिशा में

(2) इस प्रक्रिया में अपचय या कैटाबाॅलिज्म की क्रिया में ऊर्जा तो लगती है पर यह भी गलत दिशा में। अतएव वृद्धि एवं ऊर्जा कारक ग्रह बृहस्पति के पीड़ित होने से उसके एफलिक्शन को कारण रूप में स्वीकारना युक्तिसंगत ही होगा। मेरी इस अवधारणा की पुष्टि हाल ही में खोजे गए साइक्लिन डी-1 नामक जीन से हुई है जो कैंसर के मामलों में सक्रिय पाया गया है। यह जीन सेल के चयापचय की प्रक्रिया में आवश्यक माइकोकान्ड्रिया नहीं बनने देता जो कि सेल के ऊर्जा केंद्र होते हैं तथा शरीर की 90 प्रतिशत ऊर्जा सृजित करते हैं।

सेल मेटाबाॅलिज्म के इस मार्ग परिवर्तन से सेल का गलत विभाजन हो जाता है, जिससे कैंसर की उत्पत्ति होती है। विभाजक ग्रह राहु तथा सूर्य, मंगल, शनि व केतु का तथा द्विस्वभाव संज्ञक राशियों का प्रभाव जन्म पत्रिका में अधिक हो। राहु यों तो रवि और चंद्र मार्ग का कटाव बिंदु है पर इसका दिशा परिर्वतनकारी प्रभाव एवं विभाजकता प्रभाव विशेष देखा जाता है। राहु, सूर्य, मंगल, शनि एवं केतु प्राकृतिक क्रूर होने से तामसिक एवं विकृति कारक भी हैं, विशेषकर हीनबली होने पर पैथोजेनिक हैं।

मिथुन, कन्या, धनु व मीन द्विस्वभाव संज्ञक राशियां भी सैल विभाजन में अपनी भूमिका पाईं हैं। कुछ उदाहरण स्त्री जातक, जन्म 11.5.1951, 11.30 बजे दिन पूर्व 78-35/25-26 उŸार लग्न कर्क 19 अंश केतु सिंह। शनि वक्री कन्या। राहु कुंभ। ग्रह मीन। बुध, सूर्य, मंगल। मेष। शुक्र, धनु, मिथुन। षष्ठेश गुरु, शनि नक्षत्र में, वक्री शनि से दृष्ट, नवांश में भी शनि से दृष्ट है। बुध, केतु नक्षत्र में। गुरु वक्री शनि से दृष्ट षडबल में हीनबली पापकर्तरी ग्रस्त है।

द्विस्वभाव राशि में गुरु, शनि, लग्नेश और षष्ठ भावस्थ है। शल्य क्रिया जनवरी 2001 निधन 16.1.2001 कोलन कैंसर। पुरुष जातक, 10.4.1917, 4.30 बजे सुबह, पूर्व 74.59, 13.05 उŸार लग्न कुंभ 22, मंगल बुध, शुक्र, मीन। बुध, गुरु मेष। केतु मिथुन। शनि कर्क। चंद्रमा तुला। राहु धनु। षष्ठ में लग्नेश शनि। षष्ठेश चंद्र गुरु मंगल दृष्ट शनि से कंेद्र में। बुध षडबल में हीनबली केतु नक्षत्र में शनिदृष्ट। गुरु षडबल में हीनबली शनि दृष्ट।

सभी द्विस्वभाव राशियां पाप युक्त। शल्य क्रिया उपचार विगत नौ वर्षों से अभी 2008 तक कीमोथेरेपी पर। पुरुष जातक, 6.3.1938, 20.05 बजे, पूर्व 74.59, 13.15 उŸार लग्न। कन्या 25। राहु 8, गुरु 10, बुध, सूर्य, शुक्र 11, शनि 12, मंगल, चंद्र 1, केतु 2 षष्ठ भावगत सूर्य एवं हीनबली बुध, षष्ठेश शनि, शनि नक्षत्र गत, शनि की लग्न पर, दृष्टि। बुध हीनबली सूर्य से अस्त, गुरु नक्षत्रगत, लग्नेश होकर षष्ठगत, बुध की लग्नस्थ राशि पर शनि की दृष्टि। हीनबली गुरु मंगल के नक्षत्र में शनि क्षेत्री।


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द्विस्वभाव कन्या लग्नस्थ अन्य द्विस्वभाव मीन में शनि। तृतीय स्थान पर मंगल की दृष्टि तृतीय कोलन का स्थान भी है यहां राहु भी है। स्वराशि दृष्टि क्रूर ग्रह की जीव तत्व हेतु हानिकारक। यह स्थान कोलन का है। कोलन कैंसर जो लिवर तक फेला, मृत्यु। पुरुष 27.3.1993, 10.29 दिन। पूर्व 87.00, 23.42 उŸार लग्न मिथुन 3.48 मंगल 3, गुरु 6, राहु 8, शनि बुध 11 शुक्र 12, चंद्र 1, केतु 2 षष्ठ भाव मे राहु दक्षिण मत से राहु विष तथा वृश्चिक भी विष होने से विशेष दूषित प्रभाव। षष्ठ पर शनि दृष्टि। षष्ठेश लग्न में रोगकारक। बुध हीनबली राहु के नक्षत्र में, शनि युक्त। गुरु वक्री होकर मंगल (षष्ठेश) से दृष्ट, पाप कर्तरी ग्रस्त।

सभी द्विस्वभाव राशियां पाप पीड़ित। रक्त कैंसर से मृत्यु। स्त्री 23.7.1954, 21.36, पूर्व 78.10, 26.14 उŸार। लग्न कंुभ 23), चंद्र 1, बुध गुरु केतु 3, सूर्य 4, शुक्र 5, शनि 7, मंगल राहु 9 षष्ठ में सूर्य शनि दृष्ट तथा राहु युक्त मंगल दृष्ट। षष्ठेश चंद्र शनि दृष्ट। बुध राहु के नक्षत्र में तथा राहु-मंगल से दृष्ट। गुरु षडबल में हीनबली 210 केतु से युति 210 पुनर्वसु में। पांच हीनबली ग्रह दो द्विस्वभाव राशियों में। बृहस्पति यकृत कारक भी होता है यकृत कैंसर से मृत्यु 2006 में हुई।



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