प्रेम अर्थात जब आपका मन किसी व्यक्ति में स्वयं के स्वरूप की अनुभूति करने लगता है तब उसमें निःस्वार्थ समर्पण, त्याग स्वतः ही स्फुरित हो जाता है, जबकि विवाह में, जीवन निर्वाह मार्ग में सहयोग प्राप्ति के उद्देष्य से जीवन साथी को धारण कर कर्तव्य बन्धन का वचन स्वीकार्य होता है। अतः जब इन दोनों सम्बन्धों को एकसाथ स्वीकारा जाता है, तब वह ‘‘प्रेम-विवाह’’ में परिवर्तित हो जाता है।
प्रेम-विवाह के ज्योतिषीय योग: विभिन्न शास्त्रों एवं विद्वानांे के मतानुसार कई प्रकार के योगों द्वारा प्रेम विवाह होने की पुष्टि होती है। यहां हम प्रेम विवाह के तर्कसंगत तथ्यों को समझेंगे-
पंचम भाव (भावनात्मक संवेदनाएँ, गृह सुख की वृद्धि) तथा पंचमेष
सप्तम भाव (पत्नी व विवाह, स्व-अभिव्यक्ति, मानसिक प्रयत्नषीलता) व सप्तमेष
चन्द्रमा (मन, भावनाएँ)
शुक्र (प्रेम का आदान-प्रदान, स्त्री के प्रति आकर्षण व सुख)
मंगल (पुरुष के प्रति आकर्षण, पुरुष का संरक्षण, सम्बन्ध/सम्बन्धी के लिए साहसिक प्रयास)
गुरू (पति की प्राप्ति व सुख, वैवाहिक मांगल्य, त्याग, समर्पण, सम्बन्ध/सम्बन्धी के हितार्थ) पंचम भाव के स्वामी का सप्तम भाव में स्थित होना अथवा सप्तमेष से सम्बद्ध होना और चन्द्र का भी इसी प्रकार का सम्बन्ध होना जातक अथवा जातिका में प्रेम सम्बन्ध की ओर स्वतः आकर्षण व उत्कंठा की पुष्टि करता है
यदि सप्तमेष भी पंचम भाव व पंचमेष तथा चन्द्र से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है तब प्रेम सम्बन्ध की स्थापना होगी अन्यथा एकतरफा प्रेम के रूप मंे ही रह जायेगा। तृतीयेष अथवा मंगल का पंचम भाव व पंचमेष से सम्बन्ध प्रेम सम्बन्धित प्रयासों में वृद्धि व साहस प्रदान करेगा तथा चन्द्र अथवा कर्क नवांष में स्थित होने पर जुनूनी भी बना देता है। वहीं राहु का सप्तम, सप्तमेष अथवा पंचम, पंचमेष से सम्बन्ध समाज व परिस्थितियों के विपरीत जाने की प्रवत्ति प्रदान करेगा। अब सप्तमेष अथवा तृतीयेष का सम्बन्ध शनि से हो जाये या शनि के नवांष में स्थित हो तो जातक प्रेम विवाह के लिए किसी भी स्तर को पार कर जायेगा।
सफलता व संघर्षः किसी भी सम्बन्ध की सफलता में त्याग, समर्पण, सेवा भाव की मुख्य भूमिका रहती है अतः, गुरू व अन्य शुभ ग्रहों का सप्तम भाव से सम्बन्ध अनिवार्य है, परन्तु वे 6, 8 भावों से सम्बन्धित नहीं होने चाहिए। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहाँ मंगल व तृतीयेष का सप्तम/सप्तमेष से सम्बन्ध जातक में वैवाहिक सम्बन्धों के लिए विषेष साहस व सुरक्षा की प्रवृत्ति प्रदान करता है, वहीं विपरीत गोचर व सप्तमेष के शत्रु की दषा में इन्हीं सम्बन्धों में लिए संघर्ष की स्थिति पैदा कर देता है।
राहु का सम्बन्ध जहाँ इन सम्बन्धों के लिए परिस्थतियों के विरुद्ध जाने से भी नहीं हिचकिचाता है वहीं चन्द्रमा से युत अथवा पंचम भाव से सम्बन्धित होने की स्थिति में जातक को निर्णय लेने की परिस्थिति में असमंजस व भ्रम की अवस्था में डाल देता है। अतः, जो ग्रहीय स्थिति, प्रेम संबन्ध को स्थापित करने में सहायक होती है वही जीवन मंे उसके सुव्यवस्थित संचालन में बाधा का कार्य भी करती है। सफल प्रेम विवाह की मुख्य अर्हता की पूर्णता के लिए गुरू जो कि त्याग व समर्पण के प्रदाता हंै, शुभ प्रभाव में तथा सप्तमेष अथवा सप्तम भाव से सम्बन्धित होने चाहिए।
शुक्र भी शुभ प्रभाव व शुभ भावों से सम्बन्धित हो, पंचमेष का सम्बन्ध 6,8,12 भावों व उनके स्वामियों से नहीं होना चाहिए। एकादषेष का सम्बन्ध सप्तम भाव व उनके स्वामी से कदापि नहीं होना चाहिए अन्यथा जीवन साथी से अनेक अपेक्षाएँ इस सम्बन्ध के लिए विष का कार्य कर सकती हंै।
-कुंडली में जातक का पंचमेष गुरू सप्तमेष शुक्र के साथ लग्न में युत है, नवांष कुंडली का पंचम भाव व पंचमेष क्रमषः लग्न कुण्डली का सप्तम भाव व सप्तमेष है अतः जातक की भावनाओं का उसके वैवाहिक जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।
-चन्द्र की सप्तम भाव में स्थिति तथा सप्तमेष शुक्र द्वारा दृष्ट होना जातक के मन पर प्रेम व प्रेयसी के प्रति प्रगाढ़ता प्रदर्षित कर रहा है।
-जन्म कुंडली का तृतीयेष शनि शुक्र के नवांष में स्थित है जो जातक के भीतर प्रेम के लिए लगातार प्रयास व संघर्ष करने की प्रवृत्ति को दर्षा रही है।
-लग्नेष मंगल की सप्तम भाव व चन्द्र पर दृष्टि वैवाहिक व भावनात्मक विषयों में तथा उनकी सुरक्षा हेतु प्रयासो में अग्रणी रहने की पुष्टि कर रहा है।
-वहीं विच्छेदकारी ग्रह सूर्य विवाह के मांगल्य स्थान, द्वितीय भाव में अष्टमेष बुध के साथ युत हैं। अर्थात अषुभ पारिवारिक परिस्थितियों के चलते जातक को लम्बे समय से अपनी प्रेयसी पत्नी से दूर रहने की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, परन्तु मांगल्य भाव के स्वामी गुरू की सप्तमेष शुक्र व सप्तम भाव में दृष्टि त्याग व समर्पण द्वारा प्रेम विवाह के इस सम्बन्ध को स्थायित्व देने की पुष्टि दर्षाता है।
जातक ने प्रेम विवाह किया जिसे स्थापित करने के लिए अत्यंत साहसिक प्रयास किए और उसको स्थिरता प्रदान करने के लिए अनेक त्याग के उदाहरण प्रस्तुत किये और आज भी वे अपने उसी प्रेम विवाह को अपने जीवन का लक्ष्य मान कर अपनी प्रेयसी पत्नी के लिए समर्पित है।
-उपरोक्त कुंडली में जातिका के पंचमेष गुरू व सप्तमेष शनि की द्वितीय भाव में युति हो रही है तथा नवांष में कर्क लग्न उदय हो रहा है जो प्रेम प्रधान राषि है।
-चन्द्र व शुक्र का लग्नेष सूर्य से क्रमषः दृष्टि व युति का सम्बन्ध है अतः, जातिका में प्रेम भावना की प्रधानता है। शुक्र जो तृतीयेष होकर लग्नेष से युत है और जिसके कारण जातिका के प्रयास प्रेमोन्मुख पाये जाते रहे हैं। इसकी पुष्टि नवांष कुंडली के तृतीयेष बुध के सप्तम भाव में स्थित होने से भी हो रही है
-तृतीयेष शुक्र के साथ राहु भी युति सम्बन्ध बना रहे हैं। नवांष कुंडली के तृतीय भाव में भी राहु विराजित है, जो जातिका को समाज व परिस्थितियों के विरूद्ध खड़े होकर सामना करने की विषेष क्षमता प्रदान कर रहे हैं। जातिका ने अपने जीवन में प्रेम सम्बन्धों के लिए कई बार पूरे समाज व प्रतिद्वंद्वियों का डटकर सामना किया।
-गुरू की सप्तमेष शनि के साथ द्वितीय भाव में युति तथा पुनः नवांष कुंडली में दषम भाव में सप्तमेष शनि से युति प्रेम में समर्पण व त्याग की भावना की पुष्टि करता है। जातिका वर्तमान समय में अपने प्रेमी के साथ ही सुखद जीवन व्यतीत कर रही है।