मानव जीवन: मानव जीवन समस्या एवं संकटों की सत्य कथा है। इसमें ऐसा कोई स्थान या क्षण नहीं, जब मनुष्य के सामने कोई न कोई समस्या या संकट नित नई आपदा या विपत्ति के रूप में खड़ा न हो। इसीलिए हमारे जीवन में कष्टों एवं दुखों का सिलसिला बार-बार एवं लगातार चलता रहता है। इस संसार में चाहे कोई राजा हो या रंक, पीर हो या फकीर, ज्ञानी हो या अज्ञानी, संपन्न हो या विपन्न, अगड़ा हो या पिछड़ा-ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जिसके जीवन में समस्या या संकट न आते हों। मनुष्य अपनी पूरी शक्ति एवं बुद्धि लगाकर सफलता एवं निश्ंिचतता चाहता है।
किंतु वह उसको मिलती नहीं। ज्ञान एवं विज्ञान ने मानव जीवन में सुख-सुविधा जुटाने के लिए हजारों-लाखों वर्षों से भगीरथ प्रयत्न किए हैं। किंतु परिणाम, ढाक के तीन पात है। आपदा एवं विपदाओं का यह सिलसिला हमारी जिंदगी का ऐसा लाइलाज मर्ज है, कि इसकी जितनी हवा की जाती है यह उतना ही बढ़ता जाता है। प्राकृतिक आपदाएं: मानव मात्र को अपने जीवन में अनेक प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है, जिनमें अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ एवं भूचाल आदि प्रमुख हैं।
इन प्राकृतिक आपदाओं को रोकने का कोई भी उपाय नहीं है। किंतु इनका पहले से पूर्वानुमान हो जाए, तो इन आपदाओं से बचाव का प्रबंध किया जा सकता है। इसके लिए इनके सही-सही कारणों और उसकी समग्र प्रक्रियाओं को जानना आवश्यक है क्योंकि जब तक किसी समस्या के सही कारण की जानकारी नहीं हो जाती, तब तक उसके बचाव का प्रबंध नहीं हो सकता। सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा: हमारा देश कृषि प्रधान देश है और हमारी पूरी की पूरी अर्थ-व्यवस्था कृषि उत्पादन पर आधारित है। हमारे देश में सिंचाई के सीमित साधन होने के कारण खेती बरसात पर निर्भर करती है।
यदि किसी साल अच्छी बरसात हो जाए, तो देश खुशहाल हो जाता है अन्यथा वर्षा की कमी से सूखा एवं अकाल और अधिक वर्षा होने पर बाढ़ का खतरा बना रहता है। राजस्थान की जनता दसियों वर्र्षांे से सूखे एवं अकाल से जूझ रही है अतः राजस्थान और जयपुर में प्राकृतिक आपदाओं के कारणों का विचार करते समय यहां के सूखे एवं अकाल पर विचार करना अत्यावश्यक है। कारण एवं उसके भेद: किसी भी समस्या का निराकरण करने के लिए उसके कारणों का निर्धारण करना आवश्यक होता है। कारण उसको कहते हैं, जो कार्य या घटना से पहले निश्चित रूप से विद्यमान हो और जिसके बिना कार्य या घटना घटित न हो सकती हो।
यह कारण तीन प्रकार का होता है- समवायी, असमवायी एवं निमित्त। जो कारण स्वयं कार्य या घटना के रूप में परिणत हो जाता है, वह समवायी कारण कहलाता है, जैसे मटका बनाने का कारण है मिट्टी और कपड़ा बनाने का कारण है धागा क्योंकि मिट्टी के बिना मटका और धागे के बिना कपड़ा नहीं बन सकता। यह मिट्टी स्वयं सांचे में ढलकर मटका बनती है अतः यह मटके का समवायी कारण है। जिसकी सहायता से कार्य होता है वह असमवायी कारण कहलाता है, जैसे मटका बनाने के लिए चाक ओर डंडा तथा कपड़ा बनाने के लिए करघा। मिट्टी होने पर भी यदि चाक, डंडा आदि न हो, तो मटका नहीं बन सकता और धागा होने पर भी यदि लूम एवं गिट्टक न हों तो कपड़ा नहीं बन सकता।
इसीलिए चाक एवं डंडा मटका बनाने के और लूम एवं गिट्टक कपड़ा बनाने के असमवायी कारण हैं। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण निमित्त कारण होता है। जो किसी भी कार्य या घटना की समस्त प्रक्रिया का संयोजन करता है, वह उस कार्य का निमित्त कारण कहलाता है, जैसे मटका बनाने की प्रक्रिया में कुम्हार, कपड़ा बनाने की प्रक्रिया में जुलाहा और खाना बनाने की प्रक्रिया में रसोइया निमित्त कारण हैं क्योंकि इनके बिना ये कार्य नहीं हो सकते। बरसात के कारण: वैदिक चिंतनधारा के अनुसार भूमंडल पर होने वाली बरसात के भी तीन कारण माने गए हंै
- प्रकृति, परिस्थिति एवं समय या काल। बरसात का समवायी कारण है
- प्रकृति, उसका असमवायी कारण है
- परिस्थिति एवं उसका निमित्त कारण है समय या काल। प्रकृति: ऋतु चक्र का मूल कारण या समवायी कारण प्रकृति है। यह स्वभाव से ही विरुद्ध धर्माश्रयी है अर्थात् यह परस्पर विरोधी गुण-धर्मों को धारण करती है। इसीलिए यह कभी ग्रीष्म के समान तेज गरमी, तो कभी शिशिर के समान कड़ाके की सर्दी से कंपकंपा देती है। जीवन में जैसे सुख-दुख, हानि-लाभ, जयोपराजय, मान-अपमान आदि परस्पर विरोधी तत्व साथ-साथ एवं लगातार चलते रहते हैं, उसी प्रकार दिन-रात एवं सर्दी, गरमी और बरसात भी लगातार चलते रहते हैं। इस जगत की गतिशीलता में प्रकृति का विरुद्ध धर्माश्रयत्व सबसे बड़ा कारण है। यह प्रकृति बरसात का समवायी कारण है। अतः यह अन्य कारणों की सहायता से स्वयं वर्षा का रूप धारण कर लेती है। यह मार्गशीर्ष आदि चार मासों में वर्षा का गर्भधारण करती है।
चैत्र आदि चार मासों में वर्षा के गर्भ को पुष्ट करती है और श्रावण आदि चार मासों में लगातार वर्षा करती है। यह इस उपमहाद्वीप में होने वाली वर्षा का नैसर्गिक स्वभाव है। महाद्वीपों में होने वाली वर्षा का कारण भी वहां की प्रकृति है किंतु वह हमारे महाद्वीप से कुछ थोड़ी सी भिन्न होती है। जैसा अंतर भारतीय नस्ल और यूरोपीय नस्ल में पाया जाता है, लगभग वैसा ही अंतर उन दोनों देशों की वर्षा और उसकी प्रकृति में पाया जाता है। वैदिक ज्योतिष में इस प्रकृति का सूचक संवत्सर माना गया है।
संवत्सर शब्द का अर्थ है, ‘सं वसन्ति ऋतवो यंत्र’ अर्थात् जिसमें ऋतुएं निवास करती हों, उसको संवत्सर कहते हैं। क्योंकि प्रकृति में भी ऋतु चक्र रहता है और वही ऋतु चक्र संवत्सर में रहता है अतः ज्योतिष शास्त्र के आचार्यों ने संवत्सर को प्रकृति का सूचक मान कर, संवत्सर के द्वारा, संवत्सर के वास के द्वारा और रोहिणी के वास के द्वारा वर्षा और उसकी मात्रा का निर्धारण करने का सफल प्रयास किया है। परिस्थिति: हमारे चारों ओर विद्यमान वातावरण परिस्थिति कहलाता है। इसमें बादल, बिजली, हवा, वायुमंडलीय दाब, पशु, पक्षी, जीव, जंतु, वृक्ष, वनस्पति, इंद्र धनुष, दिग्दाह, निर्घात, रजोवृष्टि आदि सभी आकाशीय एवं भूमंडलीय लक्षण समाहित रहते हैं।
परिस्थिति में विद्यमान इन्हीं आकाशीय एवं भूमंडलीय लक्षणों के आधार पर दक्षिण भारत में कार्तिक आदि चार मासों में तथा उत्तर भारत में मार्गशीर्ष आदि चार मासों में वर्षा के गर्भ धारण का विचार, उससे अगले चार मासों में वर्षा की गर्भ की पुष्टि तथा उससे अगले चार मासों में वर्षा एवं उसकी मात्रा का निर्धारण होता है। मार्गशीर्ष आदि मासों में उत्तर, ईशान या पूर्व की शीतल एवं मंद हवा चलती हो, निर्मल आकाश में चिकने बादल फैले हों, बादलों की लुकाछिपी में चंद्रमा हो, चमकीले तारे हों, संध्या के समय इंद्र धनुष दिखलाई पड़ा हो और मेघों की गर्जना मधुर हो, तो ऐसी परिस्थिति में वर्षा का गर्भधारण होता है। यदि वर्षा के गर्भधारण के समय उल्कापात, दिग्दाह, निर्घात, रजोवृष्टि, इंद्र धुनष या ग्रहयुद्ध हो जाए, तो इन छः कारणों से वर्षा का गर्भपात हो जाता है।
ये छः कारण अनावृष्टि के हेतु होते हैं। यदि वर्षा के गर्भ धारण के दिनों में बगैर कड़क के बिजली, शीतल हवा, सूर्य एवं चंद्रमा के बिंब पर परिवेष, हल्की छींटा-छांटी हो, बादल चिकने हों और घर में शिशु पुलकित होकर खेलते हों तो वर्षा के गर्भ की पुष्टि होती है। यदि वैशाख एवं ज्येष्ठ मास में अच्छी गरमी पड़े और आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को दिन-रात गरमी रहे अर्थात् बूंदा-बांदी न हो, तो वर्षाकाल में अच्छी बरसात होती है। जिस दिन वर्षा का गर्भधारण हुआ हो, उससे 195वें दिन अर्थात् ठीक साढ़े छः महीने बाद वर्षा होती है।
यदि शुक्ल पक्ष में गर्भ धारण किया हो, तो कृष्णपक्ष में और यदि कृष्ण पक्ष में गर्भधारण किया हो, तो शुक्ल पक्ष में वर्षा होती है। दिन में गर्भ धारण करने पर रात्रि में और रात्रि में गर्भधारण करने पर दिन में वर्षा होती है। काल: काल वर्षा का निमित्त कारण है। यही वस्तुतः वर्षा का सूत्रधार है। जैसे कुम्हार के बिना मटका, जुलाहे के बिना कपड़ा और रसोइये के बिना खाना नहीं बन सकता वैसे ही काल के बिना वर्षा नहीं हो सकती। भारतीय ज्योतिष के अनुसार मेष आदि द्वादश राशियों में सूर्य आदि नवग्रहों के परिभ्रमण को काल कहते हैं। जैसे हमारे हाथ पर बंधी हुई घड़ी के डायल पर तीन सुइयों के परिभ्रमण से हमें घंटा, मिनट एवं समय के रूप में काल की जानकारी मिलती है उ
प्रकार सूर्य के बारह राशियों के योग से वर्ष की, एक राशि के योग से मास की और एक अंश के योग से दिन की जानकारी मिलती है। इस प्रकार मेष आदि राशियों में सूर्य आदि ग्रहों का परिभ्रमण ‘काल’ कहलाता है और यह काल या राशि विशेष में ग्रह विशेष की स्थिति के रूप में बनने वाले ग्रहयोग वर्षा के निमित्त कारण होते हैं। इसीलिए वर्षा और उसकी मात्रा का निर्धारण इस शास्त्र में ग्रहों के विविध योगों के द्वारा किया जाता है। ज्योतिषशास्त्र में वर्षा उसकी मात्रा एवं फसल का ज्ञान करने के लिए वर्ष के दश अधिकारियों में से राजा, मंत्री, सरपेश, धान्येश, मेघेश एवं फलेश का विचार किया जाता है। साथ ही सूर्य के आद्र्रा नक्षत्र में प्रवेश से भी वर्षा एवं सुभिक्ष का विचार किया जाता है। आद्र्रा नक्षत्र में सूर्य के रहने पर नाड़ी वेध हो तो वर्षा होती है।
उस समय जिस नाड़ी में चंद्रमा हो उसमें शुभ ग्रहों के होने से अच्छी वर्षा होती है और पाप ग्रहों के होने से अल्प वृष्टि होती है। सूर्य एवं चंद्रमा स्त्री एवं पुरुष संज्ञक नक्षत्रों में हों तो वर्षाकाल में अच्छी वर्षा होती है। मंगल के अयन परिवर्तन के समय, बुध के राशि परिवर्तन के समय, गुरु के उदय के समय, शुक्र के अस्त के समय और शनि के संक्रमण, उदय एवं अस्त तीनों के समय में वर्षा होती है। प्रायः सभी ग्रहों के उदय एवं अस्तकाल में, अयन संक्रमणकाल में और वक्रतारंभ एवं वक्रताकाल में उन ग्रहों के जलीय राशि में होने पर वर्षा होती है। क्रूर ग्रह अतिचारी होने पर अल्पवृष्टि करते हैं किंतु शुभ ग्रह अतिचारी होने पर सूखा पड़ता है और यदि शुक्र एवं शनि एक राशि में अस्त हो जाएं, तो दुर्भिक्ष पड़ता है। गुरु के अतिचारी होने पर यदि शनि वक्री हो जाए तो सूखा एवं दुर्भिक्ष पड़ता है। क्रूर ग्रहों के वक्री होने से सूखा और शुभ ग्रहों के वक्री होने से बरसात होती है। वि.सं. 2063 का मूल्यांकन: वर्षा के पूर्वोक्त त्रिविध कारणों के आधार पर वि.सं. 2063 में भारतवर्ष में होने वाली वर्षा का पूर्वानुमान एवं मूल्यांकन किया जा सकता है।
वर्षा का समवायी कारण है प्रकृति, जिसको ज्योतिषशास्त्र में संवत्सर कहते हैं, क्योंकि ऋतुचक्र इसमें ही वास करता है। इस वर्ष में ‘विकारी’ नामक संवत्सर है। इसका फल है- ‘‘विकार्यन्देऽखिला लोका सरोगाः वृष्टिपीड़ित। पूर्वं सस्यफलं स्वल्पं बहुलं चापरं फलम्।।’’
Û विकार जिसमें हो विकारी कहलाता है। जिस काल में उसका अपनी ऋतुओं के गुण-धर्मों से आयोग, अतियोग या मिथ्या योग हो, वह विकार कहा जाता है। उदाहरणार्थ गर्मी के समय में गर्मी का न पड़ना, बहुत ज्यादा पड़ना या कभी गर्मी और कभी बरसात का होना विकार है। इसी प्रकार वर्षा के समय में वर्षा न होना, कभी-कभी अतिवृष्टि होना और कभी-कभी सर्दी, गर्मी एवं बरसात होना विकार है। इस प्रकार इस वर्ष में ऋतुचक्र के असामान्य होने से लोगों का स्वास्थ्य गड़बड़ रहेगा। कहीं अल्पवृष्टि, कहीं अधिक वृष्टि, कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का प्रकोप रहेगा। खरीफ की पैदावार कम होगी किंतु रबी की फसल अच्छी होगी।
Û काल से वर्षा का निर्धारण करने का दूसरा उपकरण होता है रोहिणीवास। इसका निर्णय करना हमेशा से विवादास्पद है। इसका निर्णय करने के लिए जैनमुनि मेघविजयगणि द्वारा विरचित ‘वर्षबोध’ के दो भिन्न-भिन्न संस्करण मिलते हैं जिनमें से एक का नाम ‘मेघ महोदय’ और दूसरे का नाम ‘वर्ष प्रबोध’ है। मेघ महादेय में श्लोकों की संख्या वर्ष प्रबोध से लगभग तीन गुनी है। इनमें से मेघ महोदय के संपादक पं. भगवान दास जैन हैं और वर्ष प्रबोध के संपादक जयपुर के श्रीहनुमान प्रसाद हैं। मेघ महोदय के अनुसार मेष संक्रांति के दिन के नक्षत्र से दो नक्षत्र समुद्र में और उससे आगे एक-एक नक्षत्र तट, संधि, पर्वत, संधि एवं तट में स्थापित किया जाता है। इस प्रकार अभिजित सहित गणना करने पर जहां रोहिणी नक्षत्र आता हो, वहां रोहिणी का वास होता है। इस वर्ष मेष संक्राति के दिन चित्रा नक्षत्र होने से मेघ महोदय के अनुसार रोहिणी का वास पर्वत पर है। वर्ष प्रबोध के अनुसार मेष संक्रांति के दिन के नक्षत्र से दो नक्षत्र समुद्र में, अग्रिम दो नक्षत्र तट में, अग्रिम एक नक्षत्र पर्वत पर और उससे अग्रिम दो नक्षत्र संधि में होते हैं। इस प्रकार अभिजित सहित गणना करने से जहां रोहिणी नक्षत्र पड़ता हो वहां रोहिणी का वास होता है। इस वर्ष मेष संक्रांति के दिन चित्रा नक्षत्र होने से वर्ष प्रबोध के अनुसार भी रोहिणी का वास पर्वत पर ही है। यह एक सुखद आश्चर्य है। इसका फल अल्पवृष्टि का योग है। ‘‘रोहिणी नाम नक्षत्रं पर्वतस्थं यदा भवेत्। वृषित हानिस्तदा क्षेत्रा सर्वसस्यविनाशनी।’’ वस्तुतः रोहिणी वास के अनुसार अतिवृष्टि, अनावृष्टि, खंडवृष्टि एवं सामान्यवृष्टि का निर्णय करते समय ज्यादातर इन दोनों ग्रंथों के आधार पर रोहिणी वास का निर्णय भिन्न-भिन्न मिलता है। इस विषय में शोध के द्वारा कोई एकमत तय करना जरूरी है।
Û वर्षा और उसकी मात्रा को तय करने का तीसरा उपकरण है संवत्सर का वास। इस वर्ष संवत्सर का वास रजक या धोबी के घर है और धोबी के घर संवत्सर का वास होने पर अच्छी वर्षा होती है।
Û वर्षा और उसकी मात्रा को तय करने का चैथा उपकरण है इस वर्ष का मेघ। इस वर्ष आवर्तक आदि चतुर्विध मेघों में ‘पुष्कर’ नामक मेघ है। इसका फल-‘पुष्करे खण्डवृष्टिः स्यात्’ अर्थात् पुष्कर मेघ भूमंडल के एक खंड में अतिवृष्टि, दूसरे खंड में अल्पवृष्टि एवं कहीं-कहीं अनावृष्टि या सूखा डालता है। परिस्थितिगत मूल्यांकन: वर्षा का असमवायी कारण परिस्थिति है, जिसको ज्योतिष शास्त्र की भाषा में आकाशमंडल एवं भूमंडल के लक्षणों के नाम से जाना जाता है। इन लक्षणों के आधार पर वर्षा का गर्भ संभव, वर्षा का गर्भधारण, उसकी पुष्टि एवं गर्भस्राव आदि का विचार किया जाता है। स्वतंत्रता से पूर्व राज्याश्रित ज्योतिषी इस कार्य को बड़ी दक्षता एवं तत्परता से करते थे। किंतु स्वतंत्रता के बाद राज्याश्रय समाप्त होने के कारण इन लक्षणों के विचार की घोर उपेक्षा चल रही है। आज ऐसी कोई संस्था नहीं है, जो वर्षा के इन आकाशीय, भूमंडलीय, जीवजंतु एवं वनस्पतिगत लक्षणों का विधिवत विचार करती हो। वस्तुतः इस विषय में समवेत रूप से मिलजुल कर शोध योजना बनाकर शोधकार्य करने की आवश्यकता है। कालगत मूल्यांकन: वर्षा का निमित्त कारण है काल या समय। मेष आदि द्वादश राशियों में ग्रहों के परिभ्रमण को काल कहते हैं। अतः ग्रह और ग्रह योगों के द्वारा वर्षा का जो मूल्यांकन किया जाता है, वह कालगत मूल्यांकन कहलाता है।
राजा गुरु-‘‘गुरौनृपे वर्षति कामदंजलं। मंत्री शुक्र-भवतिधान्य समर्थतया सुखं जनपदेषु जलं सरितोऽधिकम्।’ नदियों में बाढ़। खरीब सस्येश-सूर्य-अच्छी वर्षा किंतु फसल का नुकसान। धान्येश शनि-अल्पवृष्टि, दुर्भिक्ष मेघेश गुरु-‘गुरुरपि प्रियवृष्टिकरःसदा’। अच्छी वर्षा फलेश बुध-फलों की पैदावर तथा वर्षा अच्छी। अखैतीज रोहिणी न होई, पौष अमावस मूल न जोई। राखी श्रवणो हीन विचारो, कार्तिक पुण्यो कृत्तिका टारो। महीमाह खलबली प्रकाशै, कहै भड्डली साख विनाशै।ु