मंगली दोष का हौआ! हिंदू समाज में लड़के और लड़कियों की कुंडली मिलाते समय मंगली दोष पर अधिक जोर दिया जाता है। यद्यपि लड़के के पिता इस बात से विशेष चिंतित नहीं होते किंतु लड़की के माता-पिता केवल यह सुन कर ही चिंता में पड़ जाते हैं कि उनकी कन्या मंगली है। इस मंगली दोष का ‘हौआ’ इतना भयानक होता है कि कुछ लोग यह पता लगने पर कि उनकी लड़की मंगली है नकली जन्मपत्री बनवा लेते हैं। दक्षिण भारत में इसे कुज दोष कहते हैं।
तमिलनाडु एवं केरल की असंख्य लड़कियों के विवाह में देरी कराने वाला यही मंगली दोष है। वहां लोग इस दोष के ‘हौए’ से परेशान हो कर बड़ी कठिनाई से किसी लड़के के पिता को संतुष्ट कर पाते हैं। यदि लड़के का पिता मंगली कन्या से अपने पुत्र का विवाह करने के लिए तैयार हो गया तो विवाह हो जाता है; अन्यथा पुनः नये लड़के की तलाश, उसके पिता की संतुष्टि और इस स्थिति में पुनः प्रतीक्षा।
इस प्रकार असंख्य सुंदर, सुशिक्षित एवं स्वस्थ कन्याओं के विवाह में मंगली दोष का ‘हौआ’ विरोध, या विलंब उत्पन्न कर रहा है। मंगली दोष क्या है ?: मंगली दोष तब माना जाता है, जब कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में मंगल बैठा हो। लग्न में मंगल हो तो स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति स्वभाव से उग्र एवं जिद्दी होता है। चतुर्थ स्थान में मंगल होने पर जीवन में भोगोपभोग की सामग्री की कमी रहती है। यहां स्थित मंगल की सप्तम स्थान पर दृष्टि पड़ती है, जो दांपत्य सुख पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
सप्तम स्थान में स्थित मंगल दांपत्य सुख (रति सुख) की हानि करने के साथ-साथ पत्नी के स्वास्थ्य को भी हानि पहुंचाता है। इस स्थान में स्थित मंगल की दशम एवं द्वितीय भाव पर दृष्टि पड़ती है। दशम स्थान आजीविका का तथा द्वितीय स्थान कुटुंब का होता है। अतः इन स्थानों में स्थित मंगल आजीविका एवं कुटुंब पर भी अपना प्रभाव डालता है। अष्टम स्थान में स्थित मंगल जीवन में विघ्नकारक, बाधाकारक एवं अनिष्टकारक माना गया है। इस स्थान में स्थित मंगल कभी-कभी दंपति में से किसी एक की मृत्यु भी कर सकता है। द्वादश स्थान में स्थित मंगल, व्यक्ति की क्रय शक्ति (व्यय) को प्रभावित करने के साथ-साथ सप्तम स्थान पर अपनी दृष्टि के द्वारा दांपत्य सुख को भी प्रभावित करता है। इन 5 स्थानों में से लग्न, चतुर्थ, सप्तम या द्वादश स्थान में स्थित मंगल, अपनी दृष्टि, या युति से सप्तम स्थान को प्रभावित करने के कारण, दांपत्य सुख के लिए हानिकारक माना गया है।
अष्टम स्थान आयु का प्रतिनिधि भाव है तथा यह पत्नी का मारक (सप्तम से द्वितीय होने के कारण) स्थान होता है। अतः इस स्थान का मंगल दंपति में से किसी एक की मृत्यु कर सकता है। इसलिए इस स्थान में भी मंगल की स्थिति अच्छी नहीं मानी गयी। ज्योतिष शास्त्र में इन पांचों स्थानों में से किसी एक स्थान में मंगल होने पर, मंगल के पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही मंगली दोष कहा जाता है। जिस प्रकार लग्न से उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर मंगली योग, या मंगली दोष होता है, उसी प्रकार चंद्र लग्न एवं शुक्र से भी उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर भी मंगली दोष होता है। कारण यह है कि चंद्र लग्न का भी लग्न के समान ही महत्व माना गया है तथा शुक्र विवाह एवं दांपत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह होता है। इसलिए मंगली योग, या मंगली दोष की संक्षिप्त परिभाषा यह है कि लग्न, चंद्र लग्न, या शुक्र से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में मंगल होने पर मंगली योग होता है। दक्षिण भारत के ज्योतिष ग्रंथों में लग्न के स्थान पर द्वितीय भाव को ग्रहण किया गया है। अतः वहां लग्न आदि से द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान में मंगल होने पर कुज दोष (मंगली दोष) माना जाता है, जैसा कि केरल शास्त्र में कहा गया है- ‘धने व्यये वा पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे। स्त्री भर्तुर्विनाश च भर्ता च स्त्रीविनाशनम्।।’ मंगली दोष में 5 भाव ही विचारणीय क्यों ?: सुखी दांपत्य जीवन के लिए निम्नलिखित 5 वस्तुओं की आवश्यकता होती है-
1. अच्छा स्वास्थ्य,
2. भोगोपभोग की सामग्री की उपलब्धि,
3. रति सुख,
4. अनिष्ट का अभाव तथा
5. समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अच्छी क्रय शक्ति।
ज्योतिष शास्त्र में इन पांचों वस्तुओं के प्रतिनिधि भाव लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश माने गये हैं। लग्न से स्वास्थ्य का विचार करते हैं। चतुर्थ भाव से भोगोपभोग की सामग्री का विचार होता है। यह भाव मकान, भूमि, वाहन एवं घर के उपकरण (बर्तन, फर्नीचर आदि) का प्रतिनिधि भाव है। सुख एवं मनोनुकूलता का विचार भी इसी भाव से होता है। सुरति, या संभोग का विचार सप्तम भाव से होता है। पुरुष की कुंडली में यह भाव पत्नी का तथा स्त्री की कुंडली में पति का प्रतिनिधित्व करता है। अष्टम भाव जीवन में आने वाले विघ्न, बाधा, अनिष्ट एवं मृत्यु का द्योतक है। आयु का विचार भी इसी भाव से होता है।
द्वादश भाव व्यय, या क्रय शक्ति का द्योतक है। इस प्रकार देखते हैं कि किसी की कुंडली से उसके दांपत्य जीवन में आने वाले सुख, या दुःख का ज्योतिष शास्त्र की रीति से विचार करते समय इन पांचों (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश) भावों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी भाव का फल शुभ होगा, या अशुभ यह जानने का सर्वमान्य नियम यह है: जो भाव अपने स्वामी, या शुभ ग्रह से दृष्ट-युत हो, वह जिन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, उनकी वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि भाव में भाव का स्वामी या शुभ ग्रह बैठा हो, अथवा भाव को उसका स्वामी, या शुभ ग्रह देखता हो, तो भाव का फल शुभ होता है। किंतु भाव में पाप ग्रह बैठा हो, या पाप ग्रह भाव को देखता हो, तो भाव का फल अशुभ होता है। सुखमय दांपत्य जीवन के लिए उक्त 5 वस्तुओं की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता। किंतु इन पांचों वस्तुओं से सुख तभी प्राप्त हो सकता है, जब इनके प्रतिनिधि भावों में पाप ग्रह न तो बैठे हों और न ही इन भावों को देखते हों। यही कारण है
कि ज्योतिष शास्त्र में ग्रह मेलापक के इन पांचों भावों पर पाप ग्रहों के प्रभाव का विचार करने की परंपरा प्राचीन काल से आज तक चली आ रही है। वास्तविकता यह है कि जिस व्यक्ति की कुंडली में इन पांचों भावों में से कोई एक, या अधिक भाव पाप ग्रहों के प्रभाव में हों, उसके दांपत्य जीवन में सुख की हानि का योग बन जाता है। कुंडली में कुल 12 भाव होते हैं तथा गोचरीय क्रम से घूमता हुआ ग्रह इन्हीं में से किसी भी भाव में बैठ जाता है। इस प्रकार कोई भी ग्रह, चाहे वह शुभ हो, या पापी, अधिकतम 12 भावों में बैठ सकता है। इनमें से उक्त 5 भाव दांपत्य सुख के निर्णायक माने गये हैं, जिनमें पाप ग्रह के बैठने से दांपत्य सुख की हानि होती है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि पाप ग्रह अपने 12 भावों के परिभ्रमण काल का भगण पूर्ति काल में से 5/12 काल तक दांपत्य सुख के लिए हानिकारक होता है। 5/12 का मान लगभग 42 प्रतिशत होता है। अतः कहा जा सकता है कि पाप ग्रह अपने संपूर्ण भोग काल में से 42 प्रतिशत समय तक दांपत्य जीवन को हानि पहुंचाता है।
यदि पाप ग्रह के भगण भोग काल में 100 व्यक्तियों का जन्म मान लिया जाए, तो उनमें से 42 प्रतिशत लोगों का दांपत्य जीवन दुःखमय रहने की संभावना बनती है। इस प्रकार देखते हैं कि 5 भावों में पाप ग्रह की स्थिति कुल जनसंख्या के 42 प्रतिशत को दांपत्य सुख से वंचित कर सकती है। 42 प्रतिशत एक बहुत बड़ा भाग होता है। इतने अधिक लोगों के दांपत्य जीवन को इन पाप ग्रहों के प्रभाव से कैसे सुरक्षित किया जाए? इस प्रश्न ने प्राचीन महर्षियों एवं आचार्यों के मन को अवश्य विचलित किया होगा। ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों एवं मनीषी आचार्यों ने बार-बार इस गंभीर प्रश्न पर, दत्तचित्त हो कर, विचार किया तथा दांपत्य जीवन को प्रभावित करने वाले पाप ग्रहों के इस अशुभ प्रभाव से बचाव का एक तरीका खोज निकाला, जिसे ज्योतिष की भाषा में ग्रह मेलापक कहते हैं।
ग्रह मेलापक क्या है?: लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में पाप ग्रहों की स्थिति 42 प्रतिशत लोगों के दांपत्य सुख को हानि पहुंचाती है। यह स्थिति तब होती है, जब मात्र लग्न से प्रारंभ कर इन भावों में पाप ग्रहों की स्थिति की संभावना का विचार करते हैं। यदि चंद्रमा से तथा शुक्र से भी, इन्हीं पांचों भावों में पाप ग्रहों की स्थिति को दांपत्य सुख के लिए हानिकारक मान लिया जाए, तो यह प्रतिशत कहां तक बढ़ जाएगा, इसकी कल्पना कर सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र में लग्न के समान ही चंद्र लग्न का भी महत्व है। विवाह एवं दांपत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह शुक्र माना गया है।
इसलिए जन्म लग्न, चंद्र लग्न एवं शुक्र से उक्त 5 भावों में पाप ग्रहों के प्रभाव पर विचार किया जाता है। यह प्रभाव इतना व्यापक है कि सभी लोग इसकी परिधि में आ जाते हैं। इस प्रभाव को व्यवहार में मंगली दोष कहते हैं। मंगली दोष वाले लड़के एवं लड़कियों का दांपत्य जीवन सुखमय हो सकता है, यदि उनका ग्रह मेलापक अच्छा हो। ग्रह मेलापक वह विधि है, जो यह बतलाती है कि मंगली लड़के, या लड़की का विवाह किससे किया जाए तथा जो लोग मंगली दोषरहित हैं, उनके भी सुखमय दांपत्य संबंध के लिए मेलापक मार्ग प्रशस्त करता है। मंगली योग एवं उसके परिहार: मंगली योग में प्रमुख बात यह मानी गयी है कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश स्थान पर पाप प्रभाव पड़ने से स्वास्थ्य, भोगोपभोग के साधन, रति सुख, अनिष्ट का प्रभाव एवं क्रय शक्ति का ह्रास होता है, जो अंततोगत्वा दांपत्य सुख को नष्ट कर देता है।
इसलिए जिस प्रकार उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर दांपत्य सुख को हानि पहुंचने की संभावना बनती है, ठीक उसी प्रकार इन 5 स्थानों में शनि, सूर्य, राहु, या केतु होने पर भी दांपत्य सुख को हानि पहुंच सकती है। यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्र में मनीषी आचार्यों ने मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु, इन पांचों ग्रहों को मंगली योगकारक मान लिया है। मंगली योग के दुष्प्रभाव में ह्रास-वृद्धि: मंगली दोष लग्न, चंद्रमा, या शुक्र से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में पाप ग्रह होेने पर होता है। किंतु इस योग का प्रभाव सदैव एक-सा नहीं रहता, अपितु इस में ह्रास-वृद्धि होती रहती है। जब यह योग लग्न से बनता है, तो इसका दुष्प्रभाव अपेक्षाकृत कम, या कमजोर होता है। इसकी तुलना में चंद्रमा से मंगली योग होने पर इसका दुष्प्रभाव अधिक तथा शुक्र से सहयोग होने पर इसका दुष्प्रभाव सर्वाधिक होता है।
कारण यह है कि लग्न शरीर का, चंद्रमा मन का तथा शुक्र रति का प्रतिनिधित्व करते हैं। दांपत्य संबंधों को, शरीर की तुलना में, मन, या स्वभाव ज्यादा प्रभावित कर सकता है तथा इन दोनों की तुलना में रति सुख सर्वाधिक महत्त्व रखता है। यह योग मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु इन 5 ग्रहों से बनता है। पाप ग्रहों में मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु उत्तरोत्तर कम पापी माने गये हैं। अतः मंगल से बनने वाले योग की तुलना में शनि से बनने वाला योग कुछ कम प्रभाव डालता है। इसी प्रकार सूर्य, राहु एवं केतु से बनने वाले योग भी उत्तरोत्तर कम प्रभावशाली होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु इन ग्रहों से बनने वाले योगों का दुष्प्रभाव उत्तरोत्तर कम होता जाता है।
इस प्रकार मंगल से बनने वाले योग का दुष्प्रभाव सर्वाधिक तथा केतु से बनने वाले योग का सबसे कम होता है। मंगली योग लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश स्थान में पाप ग्रहों के बैठने से बनता है। सप्तम स्थान साक्षात् दांपत्य सुख का प्रतिनिधित्व करता है। अतः इस स्थान में पाप ग्रह होने पर यह योग अधिक हानिकारक होता है। इसकी तुलना में लग्न में पाप ग्रह होने पर इस योग के दुष्प्रभाव की मात्रा कुछ कम हो जाती है। इससे कम दुष्प्रभाव चतुर्थ स्थान में पाप ग्रह होने पर, उससे भी कम दुष्प्रभाव अष्टम स्थान में पाप ग्रह होने पर तथा सबसे कम दुष्प्रभाव बारहवें स्थान में पाप ग्रह होने पर होता है।
अतः कहा जा सकता है कि सप्तम, लग्न, चतुर्थ, अष्टम एवं व्यय स्थानों में पाप ग्रह होने से बनने वाले मंगली योगों का दुष्प्रभाव उत्तरोत्तर कम हो जाता है। ज्योतिष शास्त्र का एक सर्वमान्य नियम यह है कि स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि, उच्च राशि तथा मित्र राशि में स्थित ग्रह भाव का नाश नहीं करता, बल्कि वह भाव के फल की वृद्धि करता है। किंतु नीच राशि या शत्रु राशि में स्थित ग्रह भाव को नष्ट कर देता है। अतः मंगली योग ग्रह के स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में होने पर दोषदायक नहीं होता। किंतु इस योग को बनाने वाला ग्रह नीच या शत्रु राशि में हो, तो अधिक दोषदायक होता है।
अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लग्न, चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में पाप ग्रहों से बनने वाला योग तथा लग्न, चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में मात्र मंगल या शनि से बनने वाला योग दांपत्य जीवन में अशुभ परिणाम पैदा करने का सामथ्र्य रखते हैं। किंतु इससे भिन्न स्थिति में बनने वाले योग का दांपत्य जीवन में बहुत कम या तात्कालिक प्रभाव पड़ता है। मंगली योग का परिहार: ग्रह मेलापक की रीति पर प्रकाश डालने से पूर्व यह बतला दिया जाए कि कुछ परिस्थितियों में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। जो योग मंगली दोष को प्रभावहीन कर देते हैं, वे इसके परिहार योग कहे जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र के प्रायः सभी मानक ग्रंथों में मंगली योग के परिहार का उल्लेख मिलता है। परिहार योग भी आत्मकुंडलीगत एवं परकुंडलीगत भेद से दो प्रकार के होते हैं। वर या कन्या की कुंडली में मंगली योग होने पर उसी की कुंडली का जो योग मंगली दोष को निष्फल कर देता है, वह परिहार योग आत्मकुंडलीगत कहलाता है तथा वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग का दुष्प्रभाव दूसरे की कुंडली के जिस योग से दूर हो जाता है, वह महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूत योग इस प्रकार है:
Û कुंडली में लग्न आदि 5 भावों में से जिस भाव में भौमादि ग्रह के बैठने से मंगली योग बनता हो यदि उस भाव का स्वामी बलवान् हो तथा उस भाव में बैठा हो या उसे देखता हो; साथ ही सप्तमेश या शुक्र त्रिक स्थान में न हो, तो मंगली योग का अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है।
Û यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान् हो कर केंद्र त्रिकोण में हो तो मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है।
Û वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में शनि हो, तो मंगली दोष दूर हो जाता है।
Û वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में मंगली योगकारक भाव में कोई पाप ग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता है।
Û जिस कुंडली में मंगली योग हो उसमें शुभ ग्रह केंद्र त्रिकोण में तथा शेष पाप ग्रह त्रिषडाय में हांे तथा सप्तमेश सप्तम स्थान में हो तो भी मंगली योग प्रभावहीन हो जाता है।
Û मंगली योग वाली कुंडली में बलवान् गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली योग का दोष दूर हो जाता है।
Û मेष लग्न में स्थित मंगल, वृश्चिक राशि में चतुर्थ भाव में स्थित मंगल, वृष राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल, कुंभ राशि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल तथा धनु राशि में व्यय स्थान में स्थित मंगल मंगली दोष नहीं करता।
Û मेष या वृश्चिक का मंगल चतुर्थ स्थान में होने पर, कर्क, या मकर का मंगल सप्तम स्थान में होने पर, मीन का मंगल अष्टम स्थान में होने पर तथा मेष या कर्क का मंगल व्यय स्थान में होने पर मंगली दोष नहीं होता।
Û जिस कंुडली में सप्तमेश या शुक्र बलवान हो तथा सप्तम भाव इनसे युत-दृष्ट हो, उस कुंडली में यदि मंगली दोष हो तो वह नष्ट हो जाता है।
Û यदि मंगली योगकारक ग्रह स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में हो तो मंगली दोष स्वयं समाप्त हो जाता है। यदि किसी लड़की या लड़के की कुंडली में शुक्र एवं सप्तमेश बलवान हो कर शुभ स्थान में स्थित हो तथा सप्तम भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो उस कुंडली में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। इस स्थिति में मंगली दोष से किसी प्रकार की हानि की आशंका नहीं करनी चाहिए।
इसी प्रकार जब किसी की कुंडली में मंगली योगकारक ग्रह एवं शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो भी मंगली योग दांपत्य जीवन पर किसी प्रकार का दुष्प्रभाव नहीं डाल पाता। मंगली योग देख कर किसी प्रकार के वहम या चिंता में नहीं पड़ना चाहिए अपितु कुंडली में सप्तम भाव सप्तमेश एवं शुक्र की स्थिति तथा उन पर पड़ने वाले शुभ या अशुभ प्रभाव का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। अनेक जगह देखा गया है कि मंगली योग न होने पर भी मात्र सप्तम भाव, सप्तमेश एवं शुक्र पर पाप ग्रहों का कुप्रभाव होने से दांपत्य जीवन दुःखमय बन गया।
मेलापक का कार्य करने वाले ज्योतिषी बंधुओं से एक बात विशेष रूप से कहनी चाहिए कि वे ‘भावात्भावपतेश्च कारकवशात्तत्तद् फलं चिंतयेत्’ इस नियम का उपयोग ग्रह मेलापक में कर के देखें। यह नियम उनके समक्ष मंगली दोष या दांपत्य जीवन के बारे में उठने वाली आशंकाओं का यथार्थ रूप से समाधान करेगा।