विवाह सुख बाधा
विवाह सुख बाधा

विवाह सुख बाधा  

मृगांक शर्मा
व्यूस : 4447 | अकतूबर 2016

हमारे धर्म-शास्त्रों में अनेक प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। उनमें से कुछ समाज द्वारा प्रशंसनीय व स्वीकार्य होने के कारण श्रेष्ठ विवाह माने जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनैतिक, तिरस्कृत होने के कारण समाज में स्वीकार्य नहीं है। ब्रह्म विवाह: इसमें कन्या का पिता कन्यादान द्वारा अपनी पुत्री का विवाह उचित एवं योग्य वर के साथ करता है। यह समाज में आज भी पूर्णतया मान्य विवाह पद्धति है और श्रेष्ठ भी है।

आर्ष विवाह: कन्या के पिता को मूल्य देकर (मुख्यतः गाय देकर) कन्या से विवाह करना आर्ष विवाह कहलाता है। यदि कन्या के पिता को यह दान स्वीकार न हो तो रिश्ता नहीं होता।

देव विवाह: किसी धार्मिक अनुष्ठान के मूल्य अथवा प्रतिफल के रूप में अनुष्ठान संपन्न करानेवाले पुरोहित को कन्या का पिता दान स्वरूप प्रदान करता है। यह एक स्वीकार्य व आदर्श विवाह था परंतु आज के परिवेश में लुप्त हो चुका है।

प्रजापत्य विवाह: इसके अंतर्गत कन्या का पिता पुत्री की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य/प्रतिष्ठित कुल के वर से कर देता था।

गंधर्व विवाह: वर-कन्या के परिवार जनों की सहमति के बिना ही वर-कन्या द्वारा बिना किसी रीति-रिवाज के आपसी सहमति से विवाह कर लेना या ईश्वर को साक्षी मानकर कन्या की मांग भर देना, गंधर्व विवाह कहलाता है। आजकल इसी का स्वरूप प्रेम-विवाह के रूप में हमारे समाज में परिलक्षित होता है। असुर विवाह: वर द्वारा कन्या को खरीदकर उससे विवाह करना इसका स्वरूप है।


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राक्षस विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके या राजा द्वारा स्त्री को युद्ध में प्राप्त हुई वस्तु के रूप में प्राप्त करके पत्नी बनाना राक्षस विवाह कहलाता है।

पैशाच विवाह: यह सबसे तिरस्कृत व सर्वाधिक निंदनीय माना जाता है। इसमें कन्या की मूर्छा, मदहोशी, मानसिक दुर्बलता आदि का लाभ उठाकर उससे शारीरिक संबंध स्थापित कर लेना तथा अंतिम विकल्प के रूप में उससे विवाह कर लेना पैशाच विवाह कहलाता है।

आज के आधुनिक जीवन में यह निकृष्ट माना जाने वाला विवाह फल-फूल रहा है। उपरोक्त में से ब्राह्म, दैव, आर्ष व प्रजापत्य को श्रेष्ठ माना जाता था। जबकि अन्य को अनैतिक। अब प्रश्न यह उठता है कि विवाह होना अथवा न होना अथवा विलंब से होना या अनेक बार होना या होकर समस्याप्रद रहने का विचार कैसे किया जाय इस हेतु ज्योतिषशास्त्र में अनेकों ऐसे सूत्र व योग दिये गये हैं जिनके आधार पर विवाह का पूर्ण रूपेण ज्ञान यथोचित रूप में ज्ञात किया जा सकता है।

इसके भीतर जाने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आजकल के परिप्रेक्ष्य में अपने ज्ञान को देश-काल-पात्र की अवधारणा के साथ ही इन सूत्रों पर लगायें तो आवश्यक रूप से सही जानकारी प्राप्त की जा सकती है। उदाहरण के लिये आज से लगभग 100-200 वर्ष पहले जबकि राजाओं का शासन होता था तब उनके अनेक विवाह होते थे। परंतु आजकल कुछ एक संदर्भों को छोड़कर प्रायः ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि कुंडलियों में ऐसे योग बनने बंद हो गये हैं अपितु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कानून द्वारा रोकने के कारण कुछ प्राणी उन योगों में मात्र शारीरिक संबंध बनाकर इन योगों को पूर्ण कर देते हैं परंतु विवाह नहीं करते। आशय यह है कि इसे समझने हेतु हमें वर्तमान समाज की अवधारणा और प्रचलित व्यवस्थाओं को ध्यान में रखना होगा।

किसी भी जन्मकुंडली में विवाह हेतु मुख्य विचारणीय बिंदु निम्नलिखित हैं: सप्तम भाव तथा सप्तमेश, विवाह का नैसर्गिक कारक ग्रह शुक्र, कुंडली में सप्तम भाव व सप्तमेश की उत्तम स्थिति विवाह की संभावना को प्रकट करती है। शुक्र ग्रह की दशा विवाह कारक दशा मानी जाती है। यदि गुरु ग्रह का प्रभाव आये तो अत्यंत ही शुभ माना जाता है।


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