श्री शुकदेव जी वीतरागी बाबा ने कर्म योगी महाराज परीक्षित को कथा का रसास्वादन कराते हुए कहा- राजन्! सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजी के मस्तिष्क में एक ही धुन है, सृष्टि का अभिवर्द्धन। अपने सभी पुत्रों को उनका एक ही आदेश है, सृष्टि करो। कुमारों की भांति महर्षि कर्दम ने पिता की आज्ञा अस्वीकार नहीं की। आज्ञा को शिरोधार्य करके दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तौर पर बिंदुसर तीर्थ के समीप भगवान् श्री हरि की आराधना की। जगत् नियंता जगदाधार प्रसन्न हुए और कर्दमजी को दर्शन दिए। भगवान की वह भव्य मूर्ति सूर्य के समान तेजोमय थी। उनके एक-एक अंग की कांति करोड़ों-करोड़ों कामदेव की छवि को भी धूमिल करने वाले थी। महात्मा कर्दम ने भगवान् कमलनयन की सुंदर स्तुति करते हुए कहा- प्रभो! आपके चरण कमल भवसागर से पार जाने के लिए जहाज हैं। नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं। आपके चरण कमल वंदनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूं। निष्कपट भाव से की गयी कर्दमजी की स्तुति से प्रसन्न होकर कमलनयन भगवान ने उनके हृदय के भाव को जानकर कहा- मैने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है।
प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली संपूर्ण पृथ्वी का शासन करते हैं। वे परमधर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ अपनी रूप यौवन, शील और गुणों से संपन्न श्यामलोचना कन्या देवहूति को लेकर परसों यहां आयेंगे और अपनी कन्या तुम्हीं को अर्पण करेंगे। वह सर्वथा तुम्हारे अनुकूल है। वह कन्या तुम्हारी समीप्यता से नौ कन्याओं को जन्म देगी तथा अंशकला रूप से तुम्हारे वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ से अवतीर्ण होकर मैं स्वयं सांख्य शास्त्र की रचना करूंगा। मंगलमय आशीर्वाद प्रदानकर श्रीहरि गरुड़ पर सवार हो कर्दमजी के देखते-देखते अपने निज धाम बैकुंठ लोक को सिधार गए। भगवान नारायण का वचन सिद्ध हुआ और मनु जी महाराज महारानी शतरूपा और कन्या देवहूति के साथ स्वर्णजटित रथ पर सवार होकर जहां करूणा के वशीभूत हुए भगवान के नेत्रों से आंसुओं की बूंदें गिरने से परम पवित्र जो बिंदु सरोवर था, उस वृक्ष लताओं से घिरे हुए परम रमणीय स्थान पर अग्नि होत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए मुनिवर कर्दम के समीप उपस्थित होकर उन्हें करबद्ध प्रणाम किया, कर्दमजी ने भी उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न करते हुए तीन आसन उपस्थित किए।
मनुजी व शतरूपा ने आसन ग्रहण किया पर देवहूति यह जानकर कि यह मेरे हृदयेश्वर बनने वाले हैं अतः आसन का स्पर्शकर पृथ्वी रूपी आसन पर बैठ गयी। कर्दम जिन्होंने समस्त इन्द्रियों को अपने वशीभूत किया है। देवहूति जिसके बुलाने पर देवगण यज्ञमंडप में साक्षात् उपस्थित होकर अपनी-अपनी आहुतियों को स्वीकार करते हैं। जिसके रूप सौंदर्य पर विश्वावसु गंधर्व मूच्र्छित होकर विमान से नीचे गिर पड़ा। आज उसी देवहूति को कर्दम जी ने भगवान की आज्ञा से मनुजी महाराज के प्रणय निवेदन - ‘‘आप इस कन्या को स्वीकार कीजिए।’’ को शिरोधार्य कर ब्राह्म विधि से अपना लिया और कहा- मैं आपकी साध्वी कन्या के साथ संतान होने तक ही गृहस्थ धर्मानुसार जीवन-यापन करूंगा, पुनः संन्यास धारण कर लूंगा क्योंकि मुझे तो भगवान् श्री अनन्त ही सबसे अधिक प्रिय हैं। मनुजी महाराज देवहूति से प्रेमाश्रु प्रगट करते हुए शतरूपा महारानी के साथ ब्रह्मावर्त लौट आए। कर्दम जी विराट् विराटेश्वर श्री हरि की आराधना करते हुए मौन हो गए। देवहूति भी वहां रहकर मन-वचन कर्म से अपने स्वामी की सेवा करने लगी।
उनकी हर इच्छा को कामवासना, दंभ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्यागकर पूर्ण करते हुए और यह जानते हुए कि पतिदेव दैव से भी बढ़कर हैं, बड़ी सावधानी पूर्वक विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को संतुष्ट करने का प्रयास किया। एक दिन महर्षि का ध्यान पत्नी की सेवा पर गया। श्रम और कष्ट से वे दुर्बल हो गयी थीं। मस्तक के सुगंध सिंचित केश जटा बन चुके थे। केवल वल्कलधारिणी तपसी थीं वे। महर्षि प्रसन्न हुए और देवहूति को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हुए कहा कि भगवत्प्रसाद स्वरूप विभूतियां जो मुझे प्राप्त हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। कर्दमजी के इस प्रकार कहने से अपने प्राणबल्लभ को संपूर्ण योगमाया और विधाओं में कुशल जानकर देवहूति ने कहा- द्विजश्रेष्ठ ! अपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ सुख का उपभोग करूंगा, उसकी अब पूर्ति होनी ही श्रेयस्कर है।
प्रजापति कर्दम ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने हेतु उसी समय योग में स्थित होकर मन की गति से तेज चलने वाले इच्छानुसार भोग-सुख प्रदान करने वाले सर्वत्र विचरण योग्य सब संपत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि संपन्न देवताओं को भी दुर्लभ दिव्य विमान में कमललोचना देवहूति को जो मैल के जम जाने से कांतिहीन हो चुकी थी, उसे बिंदुसरोवर में स्नानकर विमान में चढ़ जाने की आज्ञा दी। श्री विष्णु भगवान के रचे हुए तीर्थ में स्नान मात्र से ही देवहूति के शरीर का एक-एक अंग कमनीय, रमणीय तथा मांगलिक वस्त्रों-आभूषणों आदि से सुशोभित हो गया। यह सब कर्दमजी की योगमाया से उत्पन्न रमणियों के प्रभाव का वर्चस्व था। सहस्त्रों दास, दासियों, रत्नोपकरण व सभी लोकोत्तर ऐश्वर्य संपन्न विमान में वर्षों विचरण करते हुए गार्हस्थ्य सुखोपयोग को भोगते हुए नौ पुत्रियों को प्राप्त किया। उनमें कला मरीचि ऋषि से, अनुसूया का अत्रि ऋषि से, श्रद्धा का अंगिरा से, हविर्भू का पुलस्त्य से, गति का पुलह से, युक्ति का कतु से, ख्याति का भृगु से, अरून्धति का वशिष्ठ से और शांति का अथर्वा से महर्षि कर्दम ने विवाह कर दिया। ये नवकन्यायें नवधा भक्ति का स्वरूप थीं।
देवहूति ने जब देखा कि मेरे प्राणधन विरक्त होकर वन में जा रहे हैं तो कहने लगी- देव ! मैं इन्द्रियों के विषय में मूढ़ बनी रही। मैंने आपके परम प्रभाव को नहीं जाना। फिर भी आप जैसे महापुरूष का संग मंगलकारी होना चाहिए। इन विषयों में लगकर तो जीवन व्यर्थ चला गया। मैं अब किसके आश्रय में अपना जीवन व्यतीत करूंगी, प्राणनाथ तुम बिनु जग मांही मौकू सुखद कतौं कछु नाहीं। जिय बिनु देह नदी बिन बारी, तैसेइ नाथ पुरूष बिनु नारी। महात्मा कर्दम जी ने देवहूति के मर्म वचन सुनकर और प्रभु के वरदान को जानकर कहा- दोषरहित राजकुमारी ! तुम अपने विषय में इस प्रकार दुख न करो, तुम्हारे गर्भ में अविनाशी विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। तुम नियम, संयम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धा व प्रेमपूर्वक भगवान का भजन करो। अनुकूल समय आया भगवान मधुसूदन कर्दम जी के वीर्य का आश्रय ले देवहूति के गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ में से अग्नि। आकाश से पुष्पों की वर्षा व देवताओं के वाद्य यंत्र बजने लगे। गंधर्व गान करने लगे। ब्रह्माजी सहित मरीचि आदि ऋषि भगवान् पुरूषोत्तम लीलाबिहारी कपिल के दर्शनों के लिए पधारे।
कर्दमजी को आप्तकाम, पूर्णकाम भगवान का दर्शन प्राप्त हुआ और वैराग्य को प्राप्त कर जंगल में भगवदाराधना करते हुए गोलोक धाम को प्राप्त किया। देवहूति ने भी प्रजापति कर्दम को भगवान् का मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त कर वन जाते हुए रोका नहीं। भगवान् कपिल ने माता को सांख्य शास्त्र (तत्वज्ञान) का उपदेश किया और कहा- जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से संबंध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी त्यागकर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन-स्मरण-चिंतन-मनन करते हैं। उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूं। मैं ही साक्षात भगवान हूं, प्रकृति और पुरूष का भी प्रभु हूं तथा समस्त प्राणियों की आत्मा हूं। तुम मेरा ही भजन करो। माता का समाधान करके वे उनकी आज्ञा से समुद्र तट पर चले गए। समुद्र ने उन्हें अपने भीतर स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शांति प्रदान करने के लिए योगमार्ग का अवलंबन कर समाधि में स्थित हो गए।
सिद्ध चरण, गंधर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्यचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं। माता देवहूति ने भी कपिल भगवान् के बताए हुए मार्ग का अनुसरण करते हुए थोड़े ही समय में पुत्र, भगवान् व गुरु रूप में स्थित त्रिलोकाधिपति नित्यमुक्त पुराण पुरूषोत्तम श्री भगवान को प्राप्त कर लिया। जिस स्थान पर माता को सिद्धि प्राप्त हुई वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ। वही एक नदी के रूप में परिणत हो गया जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है। कपिल भगवान का चरित्र बड़ा ही कल्याणकारी है। जो इस परम पावन विशुद्ध चरित्र का स्मरण, चिंतन, मनन आदि करते हैं उन्हें संसार के विषयों से वैराग्य प्राप्त होकर प्रभु चरणों में श्रद्धा, प्रेम व भाव जागृत होता है तथा अंत समय में नश्वर हो जाता है। ‘‘हरि ऊँ तत्सत्।। तृतीय स्कन्ध विश्राम।।