लक्ष्मी व आद्याशक्ति के विभिन्न स्वरूप प्रेमशंकर शर्मा यद्यपि समय और स्थान अविभाजित इकाई होती है, उनका विभाजन तो मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए किया है लेकिन शक्ति उपासना चाहे वह शारदीय नवरात्र में हो या वासन्ती नवरात्र में, वह इन बंधनों को छिन्न-भिन्न कर साधक को अपने साथ एकाकार कर परम शक्ति संपन्न और ज्ञानमय बना देती है जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान स्पष्ट होकर दिखाई देने लगते हैं।
ऐसी ही उपासना विधि की जानकारी यहां प्राप्त कर सकते हैं। धन की कामना हर व्यक्ति के मन में होती है। धन की देवी लक्ष्मी की पूजा अर्चना के पीेछे भी यही कामना प्रबल होती है, इसीलिए उनके विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। उनके किस रूप की पूजा कब और किस मुहूर्त में की जाए, यह जानने के लिए उनके विभिन्न स्वरूपों को जानना जरूरी है। साथ ही भगवान विष्णु के विभिन्न स्वरूपों को जानना भी जरूरी है क्योंकि वह पालनकर्ता हैं और लक्ष्मी उनकी अर्धांगिनी हैं। कहा भी गया है-
विष्णु सूर्य हैं और लक्ष्मी पृथ्वी। ‘‘विष्णु पत्नी नमस्तुम्यं पाद स्पर्शं क्षमस्व मे’’ विष्णु एवं लक्ष्मी जीव मात्र में विद्यमान हैं, परंतु कुंडली के ग्रहयोगों में जब सूर्य (विष्णु) बलवान हो तथा चदं्र एवं मंगल बलवान होकर शुभ स्थान पर दृष्टि संबंध या स्थान परिवर्तन संबंध बना रहे हांे और व्यक्ति सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ तथा मधुरभाषी हो तो, आत्मिक शक्ति से लक्ष्मी अर्थात् धन प्राप्त कर लेता है। पुरुष में सूर्य तत्व तथा महिला में चंद्र व भौम तत्व प्रधान होते हंै।
अतः पुरुष को विष्णु एवं स्त्री को लक्ष्मी प्रधान कहा जाता है। यही कारण है कि जहां दोनों में सामंजस्य सौहार्द बना रहता है, वहां लक्ष्मी के कारण सुख-समृद्धि रहती है और जहां कलह-क्लेश बना रहता है, वहां लक्ष्मी की बड़ी बहन अलक्ष्मी अपना अधिकार जमा लेती है। दीपावली के दिन दोनों बहनें साथ-साथ निकलती हैं। जहां प्रकाश एवं प्रसन्नता होती है वहां लक्ष्मी तथा जहां अंधकार और कलह होता है वहां अलक्ष्मी रुक जाती हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि कार्तिक बदी अमावस्या को (सूर्य व चंद्र तुला राशि में) प्रदोष काल से (संध्या समय) संपूर्ण रात्रि भर गायत्री अग्नि पृथ्वी से ऊपर की ओर निकलती है। यही अलक्ष्मी है।
तात्पर्य यह कि जहां अंधेरा होता है, वहीं दरिद्रता अपना स्थान बना लेती है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनि और पूर्वजों ने इस दिन सभी को अपने घरों की सफाई कर दीपक जलाकर प्रकाशित करने की जरूरत बताई है। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रह, बारह राशियांे, 27 नक्षत्रों आदि का वर्णन बार-बार किया गया है, परंतु पृथ्वी ग्रह को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। पृथ्वी ग्रह की गणना सूर्य के अंशों एवं राहु-केतु की स्थिति के आधार पर ही स्पष्ट होती है। सूर्य एवं पृथ्वी से ही यह सृष्टि है, इसीलिए ‘‘अग्नि सोमात्मक जगत्’’ की अवधारणा बनी। ग्रहयोगों के कारण लक्ष्मी के अनेक रूप बताए गए हैं।
बृहस्पति जब होरा चक्र में चंद्र की राशि (कर्क) में होता है, तब लक्ष्मी राजकुल प्रधान होती हैं और जब वह सूर्य की राशि (सिंह) में होता है, तब वह संघर्ष लक्ष्मी का रूप ले लेती है। जो लोग युद्ध या साहसिक कार्यों में संलग्न रहते हैं, उन्हें मंगल की प्रधानता के कारण जया नामक लक्ष्मी की कृपा मिलती है। औषधि, चिकित्सा, रसायन आदि से जुड़े कार्य करने वाले लोगों को कांतार नामक लक्ष्मी की प्राप्ति कुंडली में राहु की अच्छी स्थिति के कारण होती है।
यात्रा, दुर्गम स्थान, उच्च पर्वत शिखरों आदि से संबंधित कार्य करने वाले लोगों को केतु की अच्छी स्थिति के कारण शबरी लक्ष्मी सुख-समृद्धि प्रदान करती हैं। भूत, प्रेत, पिशाच व ऊपरी बाधाओं, से पीड़ित या मानसिक रोग से ग्रस्त लोगों को शनि प्रधान महाभैरवी लक्ष्मी की उपासना-पूजा से शांति मिलती है। अति महत्वाकांक्षियों, अविवाहितों, अतिकामियों और आयात-निर्यात, विदेशी मुद्रा विनिमय आदि से जुड़े कार्य करने वालों को शुक्र प्रधान त्रिपुर सुंदरी लक्ष्मी की पूजा उपासना लाभ देती है।
जल व अन्य तरल पदार्थों से जुड़े कार्य करने वालों तथा राजकीय परेशानियों में उलझे लोगों को तारा लक्ष्मी की उपासना-पूजा लाभ देती है। व्यवसाय, उद्योग, धन के लेन-देन आदि में लगे लोगों को बुध प्रधान वाणिज्य लक्ष्मी की पूजा-उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार, विभिन्न कार्यों से जुड़े लोगों को अपनी कुंडली के ग्रहयोगों और अपने कार्य क्षेत्र के अनुसार राजलक्ष्मी, संघर्ष लक्ष्मी, जया लक्ष्मी, क्षेमकरी, कांतार लक्ष्मी, शबरी लक्ष्मी, महाभैरवी लक्ष्मी, त्रिपुरा लक्ष्मी, तारा लक्ष्मी और वाणिज्य लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। इससे आत्मिक शक्ति में वृद्धि होगी और कार्य क्षेत्र में सफलता मिलेगी। भविष्यवक्ताओं को फलादेश के लिए एक विशेष पराशक्ति की आवश्यकता होती है और वह पराशक्ति, गुरु कृपा, मातृकृपा, साधना से ही प्राप्त होती है। शक्ति उपासना के बिना इनमें सफलता मिलना संदिग्ध होता है। फलित कथन में तीन काल समाहित होते हैं- भूत, वर्तमान एवं भविष्य।
इनको भली-भांति जानने के लिए ज्योतिषी के पास तीन शक्तियां अवश्य होनी चाहिए। इन तीन शक्तियों की साधना की जाए तो भूत, वर्तमान एवं भविष्य ज्योतिषी को प्रत्यक्ष दिखाई देगा। लेकिन यदि एक ही साधना सफल होती है तो एक भाग ही प्रत्यक्ष दिखाई देगा।
आपने कई बार देखा होगा कि कोई भविष्य वक्ता, भूतकाल की सभी घटनाओं को बता देता है तो कोई वर्तमान ही सटीकता से बता पाता है और यदि कोई भविष्य अच्छा बता पा रहा है तो भूत एवं वर्तमान काल के फलादेश पर उसकी पकड़ कमजोर हो जाती है, अतः सफल ज्योतिषी के द्वारा आद्या, मध्या तथा पराशक्ति की साधना से ही चमत्कार संभव है अतः शारदीय नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती स्वरूप त्रिशक्तियों की आराधना कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। शारदीय नवरात्र में शक्ति पाने के लिए क्या करें तथा किस की उपासना कैसे करें यह प्रश्न दिमाग में आना स्वाभाविक है।
शक्ति प्राप्ति का मार्ग यदि भारतीय कर्मकाण्डी पूजा आराधना में है तो फिर भारत संसार का सर्वशक्तिमान राष्ट्र क्यों नहीं बन जाता?
शंकायें सही हैं। हमारे प्रयास न पहले सही थे न आज सार्थक हैं, पूरे विश्व में दो सप्तशती प्रसिद्ध है
(1) गीता-मोक्षदायनी
(2) दुर्गा सप्तशती-धर्म, अर्थ, काम प्रदाता।
हम यहां स्पष्ट कर दें कि रावण को पराजित करने की इच्छा से भगवान राम ने नवरात्र काल में शक्ति का संचय कर विजयादशमी के दिन रावण का वध किया। महाभारत काल में युद्ध से पूर्व भगवान भी कृष्ण ने अर्जुन को पीताम्बरा शक्ति की उपासना के लिए प्रेरणा दी थी जिस शक्ति के द्वारा अर्जुन विजयी हुआ। शारदीय नवरात्र प्रायः कन्या-तुला की संक्रांति पर आते हंै।
नवग्रह में कोई भी ग्रह अनिष्ट फल देने जा रहा हो तो शक्ति उपासना एक विशेष फल प्रदान करती है। शक्ति उपासना में स्थापना मुहूर्त से करनी चाहिए ताकि उपासना में कोई विघ्न न आए। सूर्य कमजोर हो तो स्वास्थ्य के लिए शैलपुत्री की उपासना से लाभ मिलेगा। चंद्रमा के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए नवरात्रि में कूष्माण्डा देवी की विधि विधान से साधना करें।
मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिए स्कंद माता, बुध ग्रह की शांति तथा अर्थव्यस्था की उŸारोŸार वृद्धि के लिए कात्यायनी देवी, गुरु ग्रह की अनुकूलता के लिए महागौरी, शुक्र के शुभत्व के लिए सिद्धिदात्री तथा शनि के दुष्प्रभाव को दूर कर, शुभता पाने के लिए कालरात्रि की उपासना सार्थक रहती है।
राहू की महादशा या नीचस्थ राहू (वर्तमान गोचर में राहू अपनी नीच राशि धनु राशि में भ्रमण कर रहा है।) होने पर ब्रह्मचारिणी की उपासना से शक्ति मिलती है। केतू के विपरीत प्रभाव को दूर करने के लिए चंद्रघंटा की साधना अनुकूलता देती है। इस काल (शारदीय नवरात्रि) में सच्चे मन से किये गये कार्य एवं विचार शुभ फल प्रदान करते हैं।