भौतिक समृद्धि प्राप्त करने का एक प्रचंड उपाय कुबेर यंत्र वेदज्ञ ब्राह्मण थे। उन्हें सभी शास्त्रों का ज्ञान था और संध्या, देववंदन, पितृपूजन, अतिथिसेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति दया, सेवा एवं मैत्री का भाव था। वे बड़े धर्मात्मा थे, किंतु धूर्त कर्मियों की कुसंगति में पड़कर धीरे-धीरे अपनी सारी पैतृक संपत्ति गवां डाली थी।
इतना ही नहीं, द्विजाति-जनोचित आचरण से च्युत भी हो गये। अत्यंत स्नेहवश माता पुत्र के दुष्कर्मों की चर्चा तक उनके पिता से न कर सकी थी। एक दिन किसी तरह जब उनके पिता को पता चला और उन्होंने गुणनिधि की माता से अपनी संपत्ति तथा पुत्र के विषय में उसका पता पूछा तो पिता के प्रकोप-भय से डर कर गुणनिधि घर छोड़कर, भागकर वन में चला गया। इधर-उधर भटकते हुए संध्या समय वहां गुणनिधि को एक शिवालय दीख पड़ा।
उस शिवालय में समीपवर्ती ग्राम के कुछ शिवभक्तों ने शिवरात्रि व्रत के लिये समस्त पूजन-सामग्री और नैवेद्यादि के साथ शिवाराधन का विधान किया था। गुणनिधि क्षुधार्त तो था ही। नैवेद्यादि देखकर उसकी बुभुक्षा और तीव्र हो गयी। वह वहीं समीप में छुपकर उनके रात्रि में सोने की प्रतीक्षा में उनके संपूर्ण क्रियाकलापों को बड़े ध्यान से देख रहा था।
रात्रि में शिव भक्तों के सो जाने पर जब वह एक कपड़े की बत्ती जलाकर पकवानों को लेकर भाग ही रहा था कि उसका पैर एक सोये हुए पुजारी के पैर से टकरा गया और वह व्यक्ति चोर-चोर चिल्लाने लगा। गुणनिधि भागा जा रहा था कि चोर-चोर की ध्वनि सुनकर नगर-रक्षक ने उसके ऊपर बाण छोड़ा, जिससे तत्क्षण गुणनिधि के प्राण निकल गये।
यमदूत जब उसे लेकर जाने लगा तो भगवान शंकर की आज्ञा से उसके गणों ने वहां पहुंचकर उसे यमदूत से छीन लिया और उसे कैलाशपुरी में ले आये। आशुतोष भगवान शिव उसके अज्ञान में ही हो गये व्रतोपवास, रात्रि जागरण, पूजा-दर्शन तथा प्रकाश के निमित्त जलायी गयी वस्त्रवर्तिका को आर्तिक्य मानकर उस पर पूर्ण प्रसन्न हो गये और उसे अपना शिवपद प्रदान किया।
बहुत दिनांे के पश्चात वही गुणनिधि भगवान शंकर की कृपा से कलिंगनरेश होकर शिवा की आराधना करता रहा। पुनः पद्मकल्प में वही गुणनिधि प्रजापति पुलस्त्य के पुत्र विश्रवामुनि की पत्नी और भारद्वाज मुनि की कन्या इडविडा (इलविला) के गर्भ से उत्पन्न हुए। विश्रवा के पुत्र होने से ये वैश्रवण कुबेर के नाम से प्रसिद्ध नवीन राहुजा इस लेख में भौतिक सुख-समृद्धि एवं सौभाग्य प्रदान करने वाले बड़े यंत्र ‘कुबेर यंत्र’ के बारे में संपूर्ण जानकारी दी जा रही है, जैसे राजाधिराज कुबेर कौन थे, वह अपने पूर्व-जन्म में क्या थे, कुबेर सभा, महाराज कुबेर का स्वरूप तथा उनकी उपासना विधि, कुबेर यंत्र-मंत्र, आदि।
हमारे पुराणों के अनुसार राजाधिराज धनाध्यक्ष कुबेर समस्त यक्षों, गंधर्वों और किन्नरों इन तीन देवयोनियों के अधिपति कहे गये हैं। ये नवनिधियों- पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व के स्वामी है। हमारे पुराणों के अनुसार एक निधि भी अनन्त वैभवों की प्रदाता मानी गयी है और राजाधिराज कुबेर तो गुप्त, प्रकट संसार के समस्त वैभवों के अधिष्ठातृ देवता हैं।
जैसे देवताओं के राजा इंद्र हैं, गुरु बृहस्पति हैं, उसी प्रकार कुबेर निखिल ब्रह्माण्डों के धनाधिपति होते हुए भी प्रधान रूप से देवताओं के धनाध्यक्ष के रूप में विशेष प्रसिद्ध हैं। महाभारत में भी यह कहा गया है कि महाराज कुबेर के साथ, भार्गव-शुक्र तथा धनिष्ठा नक्षत्र भी दिखलायी पड़ते हैं। इन तीनों की पूर्ण कृपा हुए बिना अनंत सुख एवं वैभव या गुप्त निधि की प्राप्ति नही होती हैं। इसलिये वैभव आदि की प्राप्ति के लिये इन तीनों की संयुक्त उपासना का विधान विहित हैं। राजाधिराज कुबेर अपने पूर्व-जन्म में क्या थे। प्रायः सभी पुराणों के अनुसार पूर्व- जन्म में कुबेर गुणनिधि नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण थे। उन्हें सभी शास्त्रों का ज्ञान था और संध्या, देववंदन, पितृपूजन, अतिथिसेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति दया, सेवा एवं मैत्री का भाव था।
वे बड़े धर्मात्मा थे, किंतु धूर्त कर्मियों की कुसंगति में पड़कर धीरे-धीरे अपनी सारी पैतृक संपत्ति गवां डाली थी। इतना ही नहीं, द्विजाति-जनोचित आचरण से च्युत भी हो गये। अत्यंत स्नेहवश माता पुत्र के दुष्कर्मों की चर्चा तक उनके पिता से न कर सकी थी। एक दिन किसी तरह जब उनके पिता को पता चला और उन्होंने गुणनिधि की माता से अपनी संपत्ति तथा पुत्र के विषय में उसका पता पूछा तो पिता के प्रकोप-भय से डर कर गुणनिधि घर छोड़कर, भागकर वन में चला गया।
इधर-उधर भटकते हुए संध्या समय वहां गुणनिधि को एक शिवालय दीख पड़ा। उस शिवालय में समीपवर्ती ग्राम के कुछ शिवभक्तों ने शिवरात्रि व्रत के लिये समस्त पूजन-सामग्री और नैवेद्यादि के साथ शिवाराधन का विधान किया था। गुणनिधि क्षुधार्त तो था ही। नैवेद्यादि देखकर उसकी बुभुक्षा और तीव्र हो गयी।
वह वहीं समीप में छुपकर उनके रात्रि में सोने की प्रतीक्षा में उनके संपूर्ण क्रियाकलापों को बड़े ध्यान से देख रहा था। रात्रि में शिव भक्तों के सो जाने पर जब वह एक कपड़े की बत्ती जलाकर पकवानों को लेकर भाग ही रहा था कि उसका पैर एक सोये हुए पुजारी के पैर से टकरा गया और वह व्यक्ति चोर-चोर चिल्लाने लगा। गुणनिधि भागा जा रहा था कि चोर-चोर की ध्वनि सुनकर नगर-रक्षक ने उसके ऊपर बाण छोड़ा, जिससे तत्क्षण गुणनिधि के प्राण निकल गये।
यमदूत जब उसे लेकर जाने लगा तो भगवान शंकर की आज्ञा से उसके गणों ने वहां पहुंचकर उसे यमदूत से छीन लिया और उसे कैलाशपुरी में ले आये। आशुतोष भगवान शिव उसके अज्ञान में ही हो गये व्रतोपवास, रात्रि जागरण, पूजा-दर्शन तथा प्रकाश के निमित्त जलायी गयी वस्त्रवर्तिका को आर्तिक्य मानकर उस पर पूर्ण प्रसन्न हो गये और उसे अपना शिवपद प्रदान किया।
बहुत दिनांे के पश्चात वही गुणनिधि भगवान शंकर की कृपा से कलिंगनरेश होकर शिवा की आराधना करता रहा। पुनः पद्मकल्प में वही गुणनिधि प्रजापति पुलस्त्य के पुत्र विश्रवामुनि की पत्नी और भारद्वाज मुनि की कन्या इडविडा (इलविला) के गर्भ से उत्पन्न हुए। विश्रवा के पुत्र होने से ये वैश्रवण कुबेर के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा इडविडा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण ऐडविड भी कहलाये।
उत्तम कुल में उत्पन्न होने तथा जन्मान्तरीय शिवाराधना के अभ्यास योग के कारण वे बाल्यकाल से ही दिव्य तेज से संपन्न, सदाचारी एवं देवताओं के भक्त थे। उन्होंने दीर्घकाल तक ब्रह्मा की तपस्या द्वारा आराधना की, इससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी देवताओं के साथ प्रकट हो गये और उन्होंने उसे लोकपाल पद, अक्षय निधियों का स्वामी, सूर्य के समान तेजस्वी पुष्पक विमान तथा देवपद प्रदान किया।
तदूच्छा बत धर्मज्ञ निधीशत्वमपाप्रुहि।। शक्राम्बुपयमानां च चतुर्थस्त्वं भविष्यसि। एतच्च पुष्पकं नाम विमानं सूर्यसंन्निभम्।। प्रतिगृहीण्ष्व यानार्थं त्रिदशैः समतां व्रज। (वा. रा., उ. 3/18-20) वर देकर ब्रह्मादि देवगण चले गये। तब कुबेर ने अपने पिता विश्रवा से हाथ जोड़कर कहा कि ‘भगवन ! ब्रह्माजी ने सब कुछ तो मुझे प्रदान कर दिया, किंतु मेरे निवास का कोई स्थान नियत नहीं किया।
अतः आप ही मेरे योग्य कोई ऐसा सुखद स्थान बतलाइये, जहां रहने से किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो।’ इस पर उनके पिता विश्रवा ने दक्षिण समुद्र के तट पर त्रिकूट नामक पर्वत पर स्थित विश्वकर्मा द्वारा निर्मित, देवराज इंद्र की अमरावती के समान अद्वितीय लंका नगरी कुबेर को प्रदान की और कहा कि वह नगरी स्वर्णनिर्मित है और वहां किसी भी प्रकार का कोई कष्ट एवं बाधा नहीं है।
पिता की आज्ञा से कुबेर लंकाध्यक्ष होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वहां निवास करने लगे। कुबेर शंकरजी के परम भक्त थे। बाद में इन्होंने भगवान शंकर की विशेष रूप मंे आराधना की तथा भगवान शंकर की कृपा से उन्होंने उत्तर दिशा का आधिपत्य, अपने नाम की दिव्यपुरी नन्दनवन के समान दिव्य उद्यानयुक्त चैत्ररथ नामक वन तथा एक दिव्य सभा प्राप्त की। साथ ही वे माता पार्वती के कृपापात्र और भगवान शंकर के घनिष्ठ मित्र भी बन गये।
भगवान शंकर जी ने कहा - तत्सखित्वं मया सौम्य रोचयस्व धनेश्वर। तपसा निर्जितश्चैव सखा भव ममानघ।। ‘‘हे सौम्य धनेश्वर ! अब तुम मेरे साथ मित्रता का संबंध स्थापित करो, यह संबंध तुम्हें रूचिकर लगना चाहिए। अनघ ! तुमने अपने तप से मुझे जीत लिया है, अतः मेरे मित्र बनकर, यहां अलकापुरी में रहो। कुबेर सभा महाभारत, सभापर्व के 10वें अध्याय में राजाधिराज कुबेर की सभा का विस्तार से वर्णन है। तदनुसार उस सभा का विस्तार सौ योजन चैड़ा है।
उसमें चंद्रमा की शीतल श्वेतवर्ण की आभा उदित होती रहती है। इस सभा को कुबेर ने अपनी दीर्घ तपस्या के बल पर प्राप्त किया था। यह वैश्रवणी अथवा कौबेरी नाम की सभा कैलास के पाश्र्व भाग में स्थित है। इसमें अनेक दिव्य सुवर्णमय प्रासाद बने हुए हैं। बीच-बीच में मणिजटित स्वर्ण स्तंभ बने हैं, जिसके मध्य में मणिमय मंडित और दिव्य आभूषणों से अलंकृत महाराज कुबेर सुशोभित रहते हैं।
देवगण, यक्ष, गुह्यक, किन्नर तथा ऋषि-मुनि एवं दिव्य अप्सराएं उनकी महिमा का गान करते हुए वहां हमेशा स्थित रहते हैं। इस सभा के चारों ओर मंदार, परिजात और सौगन्धिक वृक्षों के उद्यान तथा उपवन हैं, जहां से सुगन्धित, सुखद शीतल, मंद हवा सभा मंडल में प्रविष्ट होती रहती है। देवता, गन्धर्व और अप्सराओं के गण संगीत एवं नृत्य आदि से सभा को सुशोभित करते रहते हैं।
इनकी सभा में रम्भा, चित्रसेना, मिश्रकेशी, धृताची, पुन्किस्थला तथा उर्वशी आदि दिव्य अप्सराएं नृत्य- गीत के द्वारा इनकी सेवा में तत्पर रहती है। यह सभा सदा ही नृत्य-वाद्य आदि से निनादित रहती है, कभी शून्य नहीं होती। कुबेर के सेवकों में मणिभद्र, श्वेतभद्र, प्रद्योत, कुस्तुम्बुरू, हंसचूड, विभीषण, पुष्पानन तथा पिंगलक आदि मुख्य सेवक है। राज्य श्री के रूप में साक्षात् महालक्ष्मी भी वहां नित्य निवास करती हैं।
महाराज कुबेर के पुत्र मणिग्रीव और नलकूबर भी वहां स्थित होकर अपने पिता की उपासना करते हैं। साथ ही अनेक ब्रहर्षि, देवर्षि, राजर्षि भी महात्मा वैश्रवण की उपासना में सदा निरत रहते हैं। गंधर्वों में तुम्बुरू, पर्वत, शैलूष, विश्वावसु, हाहा, हूहू, चित्रसेन तथा अनेक विद्याधर आदि भी अपने दिव्य गीतों द्वारा महाराज वैश्रवण की महिमा का गान करते रहते हैं।
हिमवान्, पारियात्र, विन्ध्यादि पर्वत सेवा में प्रस्तुत रहते हैं तथा सभी देवयोनियां और शंख, पद्म आदि निधियां भी मूर्तिमान रूप धारणकर उनकी सभा में नित्य उपस्थित रहती है। उमापति भगवान् शिव भी महाराज कुबेर के अभिन्न मित्र होने के कारण त्रिशूल धारण किये हुए भगवती पार्वती के साथ वहां सुशोभित रहते हैं। इस प्रकार महाराज वैश्रवण की सभा ब्रह्मा तथा सभी लोकपालों की सभा से अति विचित्र एवं दिव्य है। राजाधिराज कुबेर इस सभा में स्थित होकर अपने वैभव का दान करते रहते हैं।
महाराज कुबेर का स्वरूप एवं उनकी उपासना विधि: महाराज वैश्रवण कुबेर की उपासना से संबंधित मंत्र, यंत्र, ध्यान एवं उपासना आदि की सारी प्रक्रियाएं श्रीविद्यार्णव, मंत्रमहार्णव, मंत्रमहोदधि, श्रीतत्त्वनिधि तथा विष्णुधर्मोत्तरादि पुराणों में निर्दिष्ट हैं। तदनुसार इनके अष्टाक्षर, षोडशाक्षर तथा पंचत्रिंशाक्षरात्मक छोटे-बड़े अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं। मंत्रों के अलग-अलग ध्यान भी निर्दिष्ट है।
इनके एक मुख्य ध्यान श्लोक में इन्हें मनुष्यों के द्वारा पालकी पर अथवा श्रेष्ठ पुष्पक विमान पर विराजित दिखाया गया है। समस्त निधियां इनके साथ मूर्तिमान् आभूषणों से विभूषित है। इनके एक हाथ में श्रेष्ठ गदा तथा दूसरे हाथ में धन प्रदान करने की वरमुद्रा सुशोभित है। ये उन्नत उदरयुक्त, स्थूल शरीर वाले हैं।
ऐसे भगवान् शिव के परम सुहृद् भगवान् कुबेर का ध्यान करना चाहिये। मनुजवाह्यविमानवरस्थित गरुडरत्रनिभं विधिनायकम्। शिवसखं मुकुटादिविभूषितं वरगदे दधतं भज तुन्दिलम्।। महाराज कुबेर के कुछ मंत्र इस प्रकार हैं- अष्टाक्षरमंत्र ‘ऊँ वैश्रवणाय स्वाहा।’ षोडशाक्षरमंत्र ‘ऊं श्रीं ऊं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः।’ पंचत्रिंशाक्षरमंत्र ‘ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं में देहि दापय स्वाहा।’
जिन लोगों को उपर्युक्त मंत्र यदि पढ़ने में कठिन लगें तो वे भगवान कुबेर के इस सरल मंत्र का भी जप कर सकते हैं। ‘ऊँ कुबेराय नमः।’ विनियोग ऊँ अस्य मन्त्रस्य विश्रवा ऋषिः बृहती छन्दः, कुबेरः देवता, सर्वेष्ट-सिद्धये जपे विनियोगः। ऋष्यादि वन्यास: विश्रवा ऋषये नमः शिरसि, ऊँ बृहती-छन्दसे नमः मुखे, ऊ कुबेर-देवतायै नमः हृदि। सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे। कर न्यास ऊँ यक्षाय अंगुष्ठाभ्यां नमः। ऊँ कुबेराय तर्जनीभ्यां नमः। ऊँ वैश्रवणाय मध्यमाम्यां नमः । ऊँ धन-धान्याधिपतये अनामिकाभ्यां नमः । ऊँ ध् ा न - ध् ा ा न् य - स म ृ िद्ध म े ं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ऊँ देहि दापय स्वाहा करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः । षडंगन्यास ऊँ यक्षाय हृदयाय नमः । ऊँ कुबेराय शिरसे स्वाहा। ऊँ वैश्रवणाय शिखायै वषट्। ऊँ धन धान्याधिपतये कवचाय हुं। ऊँ धन-धान्य -समृद्धि में नेत्र-त्रयाय वषट्। ऊँ देहि दापय स्वाहा अस्त्राय फट।
उपर्युक्त मंत्रों को यदि सिद्ध करना हो तो सवा लाख जप करके व दशांश तिल से हवन करें। परंतु पहले शिव उपासना, एवं पूजा आदि बहुत आवश्यक है। किसी शिवालय में शिव-पूजनोपरांत कुबेर का उपर्युक्त ध्यान करके मानसिक पूजन प्रारंभ करें। दस हजार जप करने से धन-वृद्धि और व्यापार में लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं। बिल्व-मूल के नीचे बैठ कर 1 लाख मंत्र का जप करके दशांश तिल से हवन करने पर विशेष रूप से धन- प्राप्ति होती हैं।
गुरु एवं रवि पुष्य नक्षत्र या सर्वार्थ-सिद्धि योग के दिन यह अनुष्ठान प्रारंभ किया जा सकता है। जप के लिये सर्वोत्तम समय प्रातः काल है। शिव-पूजन बिल्व-पत्रादि से अवश्य करें। इसी प्रकार वहां बालरक्षाकर मंत्र-यंत्र भी निर्दिष्ट हैं, जिसमें - ‘अया में अगे्र समिधा 0’ (ऋग्वेद 4/4/15) आदि का प्रयोग होता है।
यह मंत्र बालकों के दीर्घायुष्य, आरोग्य, नैरूज्यादि के लिये बहुत उपयोगी हैं। इस प्रकार बालकों के आरोग्य-लाभ के लिये भी भगवान् कुबेर की उपासना विशेष फलवती होती है। प्रायः सभी यज्ञ-यागादि, पूजा-उत्सवों तथा दस दिक्पालों के पूजन में उत्तर दिशा के अधिपति के रूप में कुबेर का पूजन होता है।
धनत्रयोदशी तथा दीपावली के दिन तो कुबेर जी की विशेष रूप से विधि पूर्वक पूजा होती है। यज्ञ-यज्ञादि तथा विशेष पूजा आदि के अंत में षोडशोपचार पूजन के अनन्तर आर्तिक्य और पुष्पांजलि का विधान होता है। पुष्पांजलि में तथा राजा के अभिषेक के अंत में ‘ऊँ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने 0’ इस मंत्र का विशेष पाठ होता है, जो महाराज कुबेर की ही प्रार्थना का मंत्र है। महाराज कुबेर राजाओं के भी अधिपति हैं, धनों के स्वामी हैं, अतः सभी कामना- फल की वृष्टि करने में वैश्रवण कुबेर ही समर्थ हैं।
व्रतकल्पद्रुम आदि व्रत-ग्रंथों में कुबेर के उपासक के लिये फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी से वर्षभर प्रतिमास शुक्ल त्रयोदशी को कुबेर व्रत करने के अनेक विधान निर्दिष्ट है। इससे उपासक धनाढ्य तथा सुख-समृद्धि से संपन्न हो जाता है और परिवार में आरोग्य प्राप्त होता है। सारांश में कहा जा सकता है कि कुबेर की उपासना व ध्यान से मनुष्य का दुख-दारिद्रय दूर होता है और जीवन में अनन्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
शिव के अभिन्न मित्र होने से कुबेर के भक्त की सभी आपत्तियों से रक्षा होती है और उनकी कृपा से साधक में आध्यात्मिक ज्ञान-वैराग्य आदि के साथ उदारता, सौम्यता, शांति तथा तृप्ति आदि सात्विक गुण भी स्वाभाविक रूप से संन्निविष्ट हो जाते हैं। कुबेर यंत्र: कुबेर यंत्र देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर जी का सिद्ध यंत्र माना जाता है।
विशेष रूप से धनतेरस और दीपावली के दिन इस यंत्र को लक्ष्मी-गणेश जी की पूजा के उपरांत पूजन करके धनकोष या तिजोरी में स्थापित करना चाहिए तथा पूजा-घर में भी स्थापित कर सकते हैं, परंतु नित्य धूप-दीप अवश्य करें। इसके प्रभाव से अक्षय धन कोष की प्राप्ति व आय के नवीन स्रोत बनते हैं।
स्वर्ण लाभ, रत्न लाभ, गड़े हुए धन का लाभ, जीवन में अचानक धन लाभ के लिए एवं पैतृक संपत्ति का लाभ तथा शेयर बाजार का काम करने वाले लोगों के लिए कुबेर यंत्र अत्यंत ही सफलता दायक है। इस यंत्र द्व ारा अनेकानेक रास्तों से धन की प्राप्ति होती है एवं धन संचय होता है।
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