कर्म और भाग्य
कर्म और भाग्य

कर्म और भाग्य  

आभा बंसल
व्यूस : 3111 | मई 2004

प्रकृति ने मनुष्य को एक अनोखा गुण दिया है - विचार।इसी के कारण मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं से भिन्न है और इसी कारण उसे हमेशा यह जानने की उत्कंठा रही है कि वह कौन है? अंतरिक्ष क्या है? समय क्या है? पदार्थ क्या है? आत्मा क्या है आदि? एक अहम् प्रश्न यह भी रहता है कि मनुष्य के शरीर छोड़ने के पश्चात क्या होता है? क्या यह जीवन-मृत्यु का चक्र है या जीवन के साथ ही एक अध्याय समाप्त हो जाता है? क्या मनुष्य कुछ भी करने में सक्षम है? क्या कर्म से वह अपना भविष्य बदल सकता है? यदि हां, तो भाग्य क्या है और ज्योतिष की बात हम क्यों करते हैं? यदि नहीं, तो हम कर्म क्यों करते हैं? ज्योतिष में मुहूर्त क्यों निकालते हैं, या कुंडली मिलान क्यों करते हैं?

सत्य को जानने के लिए चार मार्ग बताये गये हैं:

ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग एवं सांख्य योग। ज्ञान योग के अनुसार ‘‘तत्वमसि’’ अर्थात तू (वही) है; अर्थात यह आत्मा ही ब्रह्म है। लेकिन, सांसारिक संबंधों और शारीरिक आवश्यकताओं के कारण, इस योग और मनुष्य के बीच बड़ा व्यवधान रह जाता है। अतः इस दूरी को कम करने के लिए भक्ति योग की स्थापना हुई।

इस योग में एक के बदले दो की मान्यता है। एक भक्त है और दूसरा भगवान। सारा संसार भगवान का ही रूप है। भगवान ने इच्छा की कि मैं एक से अनेक हो जाऊं और वह सूक्ष्म रूप से प्रत्येक प्राणी और पदार्थ में समा गया। इस योग में भी एक कठिनाई है; पूर्ण रूप से एक पर विश्वास करने की। शायद कलि युग में, ऐसा संभव नहीं। कोई कष्ट आ जाए, तो मनुष्य अनेक विकल्प ढूँढता है -

सबसे पहले अपने शरीर को, फिर घरवालों या मित्र एवं पड़ोसियों को, तीसरे विशेषज्ञों, जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि को, चैथे पदार्थ को, जैसे दवाई, मशीन या दस्तावेज़ आदि को, फिर अपने पुण्यों को और उसके बाद ही भगवान को याद करता है।


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अतः कलि युग में शायद कर्म योग और सांख्य योग अधिक व्यावहारिक हैं। कर्म योग में मनुष्य केवल अपने कर्म से ही बंधन मुक्त हो जाता है। उसे केवल इस बात का अभ्यास करना है कि वह फल की इच्छा न करे। फल उसके अनुकूल हो, या प्रतिकूल, कर्म में आसक्त नहीं होना है। कर्म में किसी प्रकार का हठ नहीं होना चाहिए।

सांख्य योग से आज के वैज्ञानिक एकमत हैं कि सभी प्राणी एवं पदार्थ सूक्ष्म कणों से बने हैं और प्रत्येक कण ऊर्जा का स्रोत है। यदि सभी कणों की ऊर्जा का उपयोग किया जाए, तो थोड़ा सा पदार्थ भी अणु बम बन जाता है;

अर्थात् यह शरीर ऊर्जा का केंद्र है। इस योग के अनुसार यह शरीर केवल एक जैविक प्रतिक्रिया के कारण उत्पन्न हुआ है। इसका न आदि है, न अंत; अर्थात न तो पहले यह किसी रूप में था और न ही इसका पुनर्जन्म होगा। मृत्योपरांत शरीर के कण वायु और पृथ्वी में मिल जाते हैं और सृष्टि की रचना चलती रहती है। इस योग के अनुसार इस शरीर का उद्देश्य केवल सृष्टि की रचना में भाग लेना है। यदि हम इस रचना में आसक्त हों, तो यह ऐसा ही है, जैसे कोई अभिनेता किसी नाटक को सच मान ले। इस संसार की सार्थकता केवल उतनी ही है, जितनी किसी सोये हुए व्यक्ति के लिए स्वप्न की।

इन चारों योगों में एक बात मुख्यतः सभी में आम है कि मनुष्य की अपनी पहचान नगण्य है। यह सही भी है। अगर भूत को देखें, तो अरबों-खरबों मनुष्य जन्म ले चुके हैं। आज हम केवल कुछ हजार वर्षों का इतिहास जानते हैं। उसमें भी कुछ गिने-चुने व्यक्ति विशेष के बारे में जानकारी है। यह जानकारी भी भविष्य में लुप्त होने वाली है। अतः मनुष्य को अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि भविष्य में उसका अस्तित्व अवश्य ही खो जाने वाला है।

कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है या परतंत्र, इसको मोहम्मद ने अपने चेले अली को बखूबी समझाया। उन्होंने कहा: एक पैर उठाओ। उसने तुरंत पैर उठा दिया। फिर कहा: दूसरा पैर उठाओ, तो अली समझ गया कि पहले कर्म के कारण वह अब बंधा है और दूसरा पैर नहीं उठा सकता। पहले वह स्वतंत्र था एवं दोनों में से कोई एक पैर उठा सकता था। लेकिन कोई एक पैर उठाते ही वह बंध गया और दूसरा पैर नहीं उठा सकता। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी अनेक अवसर आते हैं, जब वह स्वतंत्र होता है। लेकिन पहले निर्णय के बाद वह आगे पूर्ण स्वतंत्र नहीं रहता।


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इसी प्रकार कर्म और फल में भी संबंध आवश्यक नहीं है। वैसे तो यह कहा गया है कि आम की गुठली बोओगे, तो आम मिलेंगे। बबूल बोओगे, तो कांटे ही मिलेंगे। लेकिन एक बार मुल्ला नसरुद्दीन जब एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहे थे, तो एक आदमी ऊपर से गिर पड़ा और मुल्ला जी की कमर टूट गयी। कोई आदमी गिरता है और किसी की कमर टूट जाती है।

अतः प्रकृति में सब कुछ सैद्धांतिक होने के बाद भी मनुष्य के कानून की कोई अहमियत नहीं है। यह बात अवश्य ठीक है कि फल ऊपर से नीचे ही गिरेगा, या नीला और पीला मिलाने से हरा रंग ही बनेगा, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि कोई मनुष्य शुभ कर्म करे और उसे शुभ फल ही प्राप्त हों।

वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और साथ ही सूर्य के चारों ओर भी ब्रह्मांड का चक्कर लगा रही है। ब्रह्मांड भी किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है और बिंदु भी शायद किसी महाबिंदु का चक्कर लगा रहा है। लय और प्रलय चलते रहते हैं। जीवन चलता रहता है। एक अकेली पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों के अनुसार, कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन है।

कर्म और जीवन के संबंध को व्यावहारिक रूप देने के लिए कर्म को एक नंबर दें एवं भाग्य को भी एक नंबर दें तथा फल = कर्म के अंक × भाग्य का अंक समझें। यदि कर्म या भाग्य दोनों पूर्ण होंगे, तभी पूर्ण फल मिलेगा। दोनों में से कोई एक शून्य हो जाता है, तो फल भी शून्य हो जाता है। फल के लिए आवश्यक है कि आप कर्म करें। लेकिन भाग्य का साथ देना आवश्यक है। भाग्य अपने हाथ में नहीं है। अतः जितना कर्म अपने हाथ में है, उतना अवश्य करें। यही सफलता की सीढ़ी है।


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