इस वर्ष (2003) पूरे भारत में होली दो दिन मनायी गयी- 18 मार्च और 19 मार्च को। ऐसा क्यों हुआ? जिन शास्त्रों की हम इतनी बड़ाई करते हैं, क्या वे यह निर्णय नहीं दे सकते कि पर्व किस दिन मनाना चाहिए ; या गणना में सरकार कुछ भूल कर गयी?
यह जानकर सबको आश्चर्य होगा कि शास्त्र किसी भी पर्व का निर्णय करने में पूरे सक्षम हैं। किसी भी पर्व के निर्णय के लिए इनमें इतनी शर्तें दी हुई हंै, जो शायद हजारों वर्षों में केवल एक बार ही देखने को मिलती हंै और इस वर्ष तो होली निर्णय में शास्त्रों, या पंचांगो में मतभेद भी नहीं था। होलिका दहन संध्या व्यापिनी पूर्णिमा तिथि में किया जाता है, जो केवल 17 मार्च को थी। पूर्णिमा 17 मार्च को शाम 7 बज कर 21 मिनट से शुरू हो कर 18 मार्च को सायं 4 बज कर 6 मिनट तक थी। भद्रा प्रातः 18 मार्च को 5 बज कर 46 मिनट तक थी। नारद के अनुसार:-
प्रदोष व्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा।
तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।।
अर्थात् होली सदा फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रदोष व्यापिनी ग्रहण करें। उसमें भद्रा के मुख को त्याग कर निशा मुख में होली का पूजन करें। भविष्योत्तर एवं लल्ल के अनुसार यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो तो भी रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो ऐसे अवसर में भद्रा के पुच्छ में होलिका दीपन कर देना चाहिए
इस प्रकार होलिका दहन 17 मार्च को ही होना था और ऐसा हुआ भी। शास्त्रों के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन होली खेली जाती है। इस प्रकार 18 मार्च को ही धुलैंडी थी। लेकिन भारत सरकार ने होली की छुट्टी 19 मार्च की कर दी। भारत में कई राज्य सरकारों ने 18 मार्च को छुट्टी रखी। क्योंकि भारत सरकार की मान्यता राज्य सरकारों से अधिक है, अंतः यह पर्व 19 मार्च को घोषित कर दिया गया, जो शास्त्रसम्मत बिल्कुल भी नहीं था।
यह चूक किस कारण हुई? कारण शायद यह रहा होगा कि एक वर्ष पूर्व जब सरकार छुट्टियों का कैलेंडर तैयार करती है, उस समय केवल यह देख कर कि प्रतिपदा 19 मार्च की है और होली पूर्णिमा के अगले दिन, अर्थात् प्रतिपदा को होनी चाहिए, ऐसा मान कर 19 तारीख घोषित कर दी गयी। सरकार को चाहिए था कि पर्व से पूर्व वह इस भूल को सुधार लेती। पर्व से जुड़ी भावनाएं अवश्य ही सरकार की घोषणा से अधिक महत्व रखती हैं। इस बार तो अवश्य ही सरकार से चूक हुई, लेकिन कई बार पंचागों में भी भेद देखने को मिल जाते हैं। उनका क्या कारण होता है? मुख्य कारण 2 रहते हैं -
प्रथम पंचाग की गणना किस विधि से की गयी है- केतकी सिद्धांत, ग्रह लाघक सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत, या फिर आधुनिक पद्धति से। द्वितीय कारण है स्थान, यानी पंचाग किस स्थान के लिए बना है। हर स्थान के लिए सूर्योंदय का समय भिन्न-भिन्न हो जाता है। तिथि की गणना इसी पर निर्भर करती है और तिथि पर्व की तारीख का निर्णय करती है। पचांग की गणना के लिए अहम को आड़े नहीं आने देना चाहिए एवं आज की आधुनिक गणनाओं को ठीक मान लेना चाहिए।
कोई गणना शास्त्रोक्त है, तो ठीक है एवं आधुनिक है, तो ठीक नहीं है, ऐसा मानना ज्योतिष के कल्याण में बाधक है। यदि फलित किसी गणना से ठीक नहीं आ रहा, तो यह गणना का दोष नहीं, वरन फलित करने के नियमों का दोष है। इसके लिए गणना को न बदल कर फलित के नियमों का शोधन करना चाहिए। आज के युग में जब उपग्रह भी ग्रहों तक पहुंच चुके हैं, गणना पर संदेह करने की गुंजाइश नहीं रह जाती।
एक बात और भी है कि ग्रहों की चाल में व्यतिक्रम (perturbations) के कारण उनकी स्थिति बदलती रहती है, जिसे किसी एक सूत्र में पिरोया नहीं जा सकता। सूत्रों के नवीनीकरण की सर्वदा आवश्यकता है। शास्त्रों में दिये गये सूत्रों में हजारों वर्षों से सुधार नहीं किया गया है। आज भी उन्हीं को ले कर चलते रहंे, तो यह ठीक नहीं है। यह ज्योतिष के नवीनीकरण एवं उद्धरण में बाधक है। अतः ग्रह स्पष्ट के लिए आधुनिक गणना पद्धतियों को ले कर काम करें, तो पंचांगो में भी एकीकरण संभव है।
अब दूसरा कारण-स्थान को समझते हैं। पूर्व में, जहां सूर्योदय पहले होता है, तिथि नहीं बदलती एवं सूर्योंदय हो जाता है। इस प्रकार पूर्व में तिथि कई बार 1 कम रह जाती है और पश्चिम में जहां कैलंेडर की तारीख कम होती है, या घड़ी का समय कम होता है, वहां तिथि अधिक हो जाती है। तिथि सूर्य के भ्रमण के साथ-साथ बढ़ती जाती है और पृथ्वी के एक रेखांश पर तिथि बदल जाती है। अतः स्थान पर्वों के एकीकरण में गणित की बाधा बन जाता है। शास्त्र भी इस विषय पर मौन हैं।
जिस प्रकार घड़ियों के एकीकरण के लिए मानक समय का नियम लागू किया गया, क्या उसी प्रकार पर्वो के लिए मानक अक्षांश तथा रेखांश स्थापित नहीं किये जा सकते? यदि यह किये भी जाएं, तो भी बड़े देशों में कई मानक स्थापित करने पड़ सकते हंै। मानक स्थापित होने के उपरांत भी, पर्व की गणना सूर्योदय, सूर्यास्त आदि पर आधारित होने के कारण, पर्व मनाने की एक तारीख नहीं आती है।
इसका उत्तम विकल्प है कि पर्व जिस स्थान का मुख्य हो, उसी अक्षांश-रेखांश को उस पर्व के लिए मानक माना जाए एवं विश्व में वही तारीख उसके लिए निश्चित की जाए। उदाहरण के लिए जन्माष्टमी कृष्ण के जन्म दिवस से संबंधित है। उसके लिए मथुरा के अक्षांश-रेखांश पर गणना कर तारीख का निर्णय करना चाहिए और वही पूरे विश्व में मान्य होनी चाहिए। इस प्रकार सभी पर्वों के लिए स्थान का चयन कर पर्वों का एकीकरण किया जा सकता है।