प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा रहती है कि वह भगवान के दर्शन कर ले। इसके लिए अनेक साधन बताए गए हैं- अनेक प्रकार के योग हैं, अनेक धर्म हैं लेकिन सब में एक वस्तु आम है, वह है अनन्यता- अर्थात् सब वस्तुओं में भगवत् स्वरूप का अहसास करना- सब कर्मों में और उसके फलों में उसकी इच्छा का अहसास करना।
कहते हैं, वह एक था। उसने चाहा कि मैं एक से अनेक हो जाऊं और वह संसार रूप में अनेक हो गया और इसमें उसने काम, क्रोध, लोभ मद, मोह व मत्सर रूपी माया घोल दी।
मद |
प्राप्त वस्तु का घमंड |
क्रोध |
अपने ज्ञान को दूसरे से श्रेष्ठ समझना |
मोह |
प्राप्त वस्तु छूट न जाए, उसका भय |
लोभ |
प्राप्त वस्तु को न छोड़ने की इच्छा |
मत्सर |
दूसरे को अपने से अधिक प्राप्त कैस |
इसी माया के कारण जीव भूल गया कि वह उसी भगवत् स्वरूप ब्रह्म का अंश है, उसमें और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है। तन, तीय, तनय, धाम, धन, धरनी,- इन छः रूपों में माया का वास है। जब इनको मनुष्य तिनके के बराबर समझकर त्याग देता है अर्थात् रमा को त्याग देता है तो राम के सम्मुख हो जाता है। कहते हैं, भक्त भगवान से बड़े होते हैं क्योंकि केवल भक्त के लिए ही भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं और पृथ्वी धन्य हो जाती है। अन्यथा संसार का संचालन तो ईश्वर सारी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त होकर कर ही रहे हैं। क्या हम भक्त अपनी इच्छा या कोशिश से बन सकते हैं। कहते हैं, हमारे मन में इच्छा या कोशिश भी उसकी इच्छा से ही है क्योंकि कुछ भी तो उसकी इच्छा के बिना नहीं है। अतः यह समझकर कि सब कुछ उसके कराए ही हो रहा है और जो हो रहा है उसको उसकी इच्छा समझकर उसमें आनंद लेना, भगवत् प्राप्ति के लिए अपने को इसके पात्र बना लेना है। कभी वह देता है- उच्च परिवार में पैदाकरके। बिना कुछ लिए इतना दे देता है कि उतना कई विशेष प्रयत्नों के बाद भी नहीं प्राप्त कर पाते, कभी लाभ कराकर दे देता है तो कभी कर्म फल स्वरूप प्रदान करता है। कभी लेता तो है तो भूचाल, बाढ़ आदि प्रकोप से ले लेता है या बीमारी आदि द्वारा। कभी फिर कर्जे व कोर्ट कचहरी में डूबे परिवार में पैदा कराकर सभी सुख-चैन हर लेता है।
अनन्यता क्या है- एक भक्त रोटी बना रहे थे। रोटी बनाकर घी लेने के लिए अंदर गये, तभी एक कुŸाा रोटी लेकर भाग गया। भक्त (यह कहते हुए) उसके पीछे भागे, कि महाराज, रूखी रोटी खाओगे, चुपड़ तो लेने दो। अर्थात् वे भक्त कुŸो में भी भगवान के दर्शन कर रहे थे। जब बुद्ध भगवान को भगवत् प्राप्ति होने वाली थी तो उनकी परीक्षा लेने के लिए भगवान राक्षस के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुमको इस रूप में भी उतना ही प्यार करता हूं और जैसा कि कहते हैं, वह राक्षस हंस बनकर उनके पैरों में आ पड़ा।
दो भक्त, एक पीपल के पेड़ के नीचे व एक इमली के पेड़ के नीचे बैठे भक्ति कर थे। नारद जी आए तो दोनों ने पूछा कि भगवान कब मिलेंगे। वे भगवान के पास आए और पूछा। भगवान ने कहा- जितने वृक्ष पर पŸो हैं उतने वर्ष तपस्या करेंगे तो मिलूंगा। पीपल के पेड़ वाले तो बोले ‘इतनी तपस्या कौन करेगा’ और चले गये। इमली के पेड़ के नीचे वाले भक्त यह वाक्य सुनकर झूम उठे कि उन्हें भगवान मिलेंगे। भगवान तुरंत ही मिल गये
धु्रव को नारद जी के द्वारा दिए गए मंत्र ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ के निरंतर जप से भगवत् प्राप्ति हो गई थी। अतः निरंतरता से अनन्यता भगवत प्राप्ति का अभुक्त मूल सिद्धांत है। अतः प्रभु को सर्वविद्यमान महसूस करना ही अनन्यता है। प्रभु का सदैव स्मरण रहे- खाते-पीते, सोते-जागते, लड़ते या प्यार करते उसका स्मरण करते रहना अनन्यता है। अनन्यता से अनुभूति होने लगती है कि वह हमारे साथ है। यही भगवत् प्राप्ति का प्रमुख लक्षण है।
भगवत् प्राप्ति के चार योग हैं- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग व ध्यान योग। भक्ति योग में भक्त सभी में प्रभु को विद्यमान देखता है। ज्ञान योग में ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को देखता है। कर्म योग में कर्म और उसके फल भगवान की इच्छा मात्र देखता है और ध्यान योग में उसी ब्रह्म का दर्शन करता है।
प्रत्येक साधन में अनन्यता ही आम है। कहते हैं, ज्ञान व भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ज्ञानी एक ही ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को सब जगह देखता है तो भक्त उसी ब्रह्म के व्यक्त रूप का जन मानस में दर्शन करता है। इसीलिए श्रीराम भक्त हनुमान को ज्ञानियों में अग्रगण्य माना गया है एवं ज्ञान स्वरूप शिव जी राम के सर्वप्रथम भक्त हैं।
ज्ञान
आत्मा और ब्रह्म! दोनों इसी प्रकार से हैं जैसे बूंद व समुद्र या घटाकाश व आकाश। दोनों में भिन्नता कुछ नहीं, लेकिन संज्ञा दो हैं -
आत्मा केवल ब्रहत् रूपी ब्रह्म के छोटे रूप को दर्शाती है जैसे बूंद व समुद्र में कोई भेद नहीं है, बूंद समुद में मिल जाए तो समुद्र हो जाती है इसी प्रकार शरीर के अंत में आत्मा-परमात्मा में विलीन हो जाती है। आत्मा का पुनर्जन्म भी उसी प्रकार से है जैसे बूंद का समुद्र से। कहना मुश्किल है कि यह वही बूंद है जो पहले समुद्र में मिली थी। उसी बूंद के पुनः बनने का अर्थ भी कितना है?
भक्ति
यह संसार उसी की इच्छा का स्वरूप है। वैसे तो हर जीव में वह समाया है लेकिन किसी शरीर में वह विशेष शक्तियां लेकर अवतरित होता है जिसे हम भगवान कहते हैं। इसी भगवान को सर्वत्र देखना व अपने भगवान के लिए सदैव कुछ करने की चाह ही भक्ति है। भगवान के पास होते हुए भी यह सोचना कि वह दूर हो जाएगा, भक्ति की चरम सीमा है जिसमें राधा सदैव वास करती थी।
कर्म
जीव मात्र में प्रभु का अहसास करना व उसकी सेवा में सदैव संलग्न रहना, फल की इच्छा कभी मन में न आना ही कर्मयोग की चर्म सीमा है।
ध्यान
ब्रह्म स्वरूप का सदैव ध्यान ही इस योग की प्रमुखता है। जैसे एक सूर्य को हजारों शीशों में एक साथ देख सकते हैं उसी प्रकार इस आत्म तत्व के सभी शरीर में एक साथ दर्शन कर सकते हैं। एक अहम् प्रश्न है कि हमें भगवत् प्राप्ति की साधना क्यों करनी चाहिए - क्योंकि सभी वस्तुएं हमें कभी प्राप्त नहीं होती। यदि धन प्राप्त भी हो जाए तो सेहत या संतान और या स्त्री, किसी न किसी का दुःख या भय बना रहता है।
पूर्णानंद की खोज में ही मनुष्य भगवत् प्राप्ति की ओर आकर्षित होता है क्योंकि माया और इच्छा से मुक्ति होने पर ही आनंद की अनुभूति होती है। माया से मुक्ति केवल एक मानसिक स्थिति ही है। ऐसे मनुष्य के कर्म एक आम व्यक्ति की तरह ही रहते हैं, लेकिन थोड़ा फर्क होता है जैसे कि एक सफल व्यक्ति व असफल व्यक्ति के परिश्रम में।
भगवत् प्राप्त मनुष्य की यही सबसे बड़ी पहचान है कि वह सदैव एक जैसा प्रसन्न व चिंता और भय मुक्त दिखाई देता है- यही उसकी ओर आकर्षण का बिंदु होता है।