आयुर्वेद ने कर्ण रोगों के लिए मुख्यतः
मनुष्य को दोषी ठहराया है। अनुचित एवं अहितकारक ध्वनि को सुनने की आदत से मानव की कर्णेंद्रियां बुरी तरह प्रभावित हैं। धीरे-धीरे उसकी सुनने की शक्ति कम होती जाती है।
कर्ण रोगों में मुख्यतः
1. कर्ण स्राव
2. बहरापन
3. कर्णशूल हंै।
कर्णस्राव कर्णस्राव का अर्थ है कान का बहना। वास्तव में यह काफी पुराना रोग है। आयुर्वेद ग्रंथों में इस रोग के विषय में पर्याप्त जानकारी दी गयी है। आयुर्वेद में कर्ण स्राव के मुख्य तीन प्रकार होते हैं।
पहले प्रकार में वात-विकार के कारण पतला एवं सफेद स्राव होता है। दूसरे प्रकार में पित्त विकार के कारण होता है।इसमें लाल-पीले रंग का द्रव स्रावित होता है। तीसरे प्रकार में कफ-विकार है। इसमें स्राव गाढ़ा, सफेद तथा खुजली युक्त होता है।
इसके अतिरिक्त कर्णस्राव के अन्य कई कारण होते हैं। जैसे सिर पर चोट लगना, कान में पानी चला जाना, कान में फोड़े-फुंसियां होना, कान के पर्दे में छिद्र या सूजन हो जाना, कान में कैंसर होना आदि। खसरा, काली खांसी आदि संक्रामक रोगों से भी यह रोग होता है।
वैसे तो यह रोग किसी भी उम्र में हो सकता है, मगर बाल्यावस्था में यह रोग अधिक देखने को मिलता है। बहरापन बहरापन अर्थात् श्रवण शक्ति खो देना या कम हो जाना।
यह दोष मुख्यतः तीन प्रकार का होता है:
जन्मजात, बचपन में उत्पन्न होना एवं बुढ़ापे में उत्पन्न होना। जन्मजात कारणों में बच्चों का समय पूर्व पैदा होना, प्रसव के समय चोट या कोई आनुवांशिक कारण है। जन्मजात बधिरों को जीवन में हर स्तर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
ऐसे मरीजों के सामान्य ज्ञान एवं मानसिक स्तर भी सामान्य की अपेक्षा कम होते हैं। बचपन में होने वाले बहरापन के कारणों में संक्रमण है, जैसे वायरल, सिफिलिस, तपेदिक, दिमाग में ट्यूमर आदि। ऐसे में रोगी हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है जिससे उसके मानसिक एवं शारीरिक विकास रूक जाते हैं। बुढ़ापे के बहरापन में उम्र बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति के श्रवण तंतु सूख जाते हैं और बहरापन आ जाता है।
ऐसे में मरीज को अपनी बात कहने एवं समझाने में कोई कठिनाई नहीं होती पर दूसरों की बात को समझना इनके लिए दुष्कर होता है। अचानक आये बहरेपन से व्यक्ति को मानसिक परेशानी एवं निराशा अधिक होती है। अन्य कारणों में बार-बार सर्दी-जुकाम होना, कान से मवाद बहना, कुछ दवाओं के अधिक इस्तेमाल जैसे क्लोरोक्सीन, दर्द नाशक एस्प्रिन, एंटीबाॅयटिक, जैसे -
क्लोरोमाइसिन जेटामाइसिन आदि। कान का दर्द: आयुर्वेद के अनुसार कान दर्द वायु-विकार से उत्पन्न होता है। कानों की शिराओं में दूषित वायु अपना स्थान बना लेती है जिससे कानों में विभिन्न प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है और दर्द भी होता है। कान के दर्द के अन्य कारण टांसिल की सूजन, सर्दी-जुकाम, श्रुति-सुरंग नली की सूजन या अवरोध, कानों में मैल जम जाना या पानी चला जाना, जोर से आघात लगना, मलेरिया, टाइफाइड जैसे रोगों में तेज बुखार भी है। घरेलू उपचार कर्णस्राव के उपाय: - कान को साफ कर दो-दो बूंद मेडिकल स्पिरिट तीन चार दिन कान में डालने से कान का बहना ठीक हो जाता है।
-सरसांे का तेल एवं रतन जोत 10ः1 अनुपात में मिलाकर पकाएं। पके तेल को ठंडा कर दो-दो बूंद कान में डालते रहने से बहना व दर्द में आराम मिलता है।
- स्त्री के दूध में रसौंत एवं शहद मिलाकर कान में डालने से कर्णस्राव में लाभ मिलता है।
-दो-दो बूंद चूने के पानी को कान में डालने से बच्चों के कर्णस्राव में आराम मिलता है।
बहरेपन के उपाय
- एक चुटकी असली हींग, स्त्री के दूध में घिसकर कान में डालने से बहरापन दूर होता है।
- आक के पीले पत्ते जिनमें छेद न हो, आग पर गरम करके, उन्हें मसलकर रस निकालें और इस रस को कान में दो-दो बूंद डालने से बहरेपन और कर्णस्राव में लाभ होता है।
-मूली का रस, शहद, सरसों का तेल बराबर मात्रा में मिलाकर दो तीन बूंद कान में सुबह-शाम डालने से बहरेपन में लाभ होता है। कर्ण पीड़ा के उपाय (कान दर्द) -तुलसी के पत्तों का रस गुनगुना कर दो-दो बूंद प्रातः
-सायं डालने से कान के दर्द मंे राहत मिलती है और बहरापन भी ठीक होता है।
-अदरक के रस में नमक एवं शहद मिलाकर गुनगुना कर कानों में डालने से कान दर्द में आराम आता है।
- प्याज का गुनगुना रस कान में डालने से कान के दर्द में आराम मिलता है।
इससे बहरेपन एवं कर्णस्राव में लाभ मिलता है। ज्योतिषीय कारण ज्योतिष के अनुसार तृतीय एवं एकादश भाव कुंडली में क्रमशः दायें एवं बायें कान का नेतृत्व करते हैं। ग्रहों में बुध ग्रह श्रवण शक्ति और वाक् शक्ति का प्रतीक है। किसी भी जन्मकुंडली में जब बुध, तृतीय एवं एकादश भाव शुभ ग्रहों से प्रभावित रहते हैं, तो व्यक्ति की श्रवण शक्ति को बढ़ाते हैं ओर इसके विपरीत जब ये पाप ए वं अशुभ ग्रहों से प्रभावित होकर पीड़ित हो जाते हैं तो श्रवण शक्ति को कम करते हैं। अगर ये बुरी तरह से प्रभावित हों, तो जातक जन्मजात अर्थात् जन्म से ही बहरा होता है।
जन्मजात बहरा व्यक्ति बोलने में भी असमर्थ रहता है क्योंकि जब जातक ने शब्दों को सुना ही न हो, तो वह बोलेगा कैसे? इसीलिए बुध वाक् शक्ति का प्रतीक माना गया है। सुनने और बोलने से जातक एक दूसरे से संपर्क बनाये रखते हैं और समाज में इसे विशेष स्थान प्राप्त होता है। विभिन्न लग्नों में ज्योतिषीय योग
मेष लग्न: बुध किसी भी भाव में मंगल से युक्त या दृष्ट हो और शनि की दृष्टि मंगल और बुध दोनों पर हो तो जातक के कानों में रोग उत्पन्न कर बहरा तक बना देता है।
वृष लग्न: चंद्र षष्ठ भाव में बुध से युक्त हो, मंगल तृतीय भाव और शनि नवम् भाव में हो तो जातक को कर्ण स्राव से बहरा बना देता है।
मिथुन लग्न: गुरु तृतीय भाव में हो, बुध-शुक्र षष्ठ भाव में हो, मंगल द्वादश भाव में हो, शनि नवम् हो तो जातक कान रोग से पीड़ित रहता है।
कर्क लग्न: बुध एकादश भाव में, सूर्य द्वादश भाव में, शनि लग्न, पंचम, नवम किसी भी भाव में हो, मंगल अष्टम, पंचम, द्वादश किसी भी भाव में हो और चंद्र सप्तम भाव में राहु केतु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को कर्ण रोग से पीड़ित करता है।
सिंह लग्न: षष्ठेश शनि तृतीय या एकादश भाव में बुध से युक्त होकर मंगल से दृष्ट हो, सूर्य, शुक्र, चंद्र दशम भाव या द्वादश भाव या द्वितीय भाव में राहु-केतु से दृष्ट हो तो जातक कर्ण रोग से पीड़ित होता है।
कन्या लग्न: मंगल अष्टम या द्वादश भाव में हो, लग्नेश बुध सूर्य से अस्त होकर षष्ठ भाव/अष्टम भाव में हो, गुरु तृतीय या एकादश भाव में राहु-केतु से दृष्ट या युक्त हो तो जातक को कर्ण रोग होता है।
तुला लग्न: गुरु तृतीय या एकादश भाव में राहु-केतु से युक्त हो, लग्नेश शुक्र सूर्य से अस्त हो, बुध तृतीय भाव में मंगल से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को कर्ण-पीड़ा देता है।
वृश्चिक लग्न: बुध तृतीय या एकादश भाव में शनि से युक्त या दृष्ट हो, मंगल सूर्य से अस्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो तो जातक को कर्ण स्राव रोग होता है।
धनु लग्न: शुक्र और बुध तृतीय भाव में राहु-केतु से युक्त हों और शनि से दृष्ट हांे, गुरु अष्टम भाव में या द्वादश भाव में हो और मंगल से दृष्ट हो तो जातक को कर्ण रोग होता है।
मकर लग्न: चंद्र-गुरु तृतीय भाव या षष्ठ भाव में हो, बुध तृतीय भाव में मंगल से युक्त, शनि से दृष्ट हो तो जातक को कर्ण पीड़ा से परेशानी रहती है।
कुंभ लग्न: मंगल तृतीय, शनि षष्ठ, बुध एकादश भाव में राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, गुरु सप्तम भाव में चंद्र से युक्त हो तो जातक कर्ण रोग से पीड़ित रहता है।
मीन लग्न: शुक्र लग्न में, बुध तृतीय भाव में शनि से युक्त या दृष्ट हो, गुरु षष्ठ या अष्टम भाव में हो तो जातक कर्ण रोग से पीड़ित होता है।