भगवान कृष्ण ने अपने जीवनकाल में कई विचित्र कार्यों का संपादन किया। बालपन से लेकर वृद्धावस्था तक वे कुछ ऐसा करते रहे कि हमेशा चर्चा में रहे। समुद्र के बीचोबीच आलीशान द्वारका नगरी का निर्माण भी इसी विचित्रता का एक उदाहरण है। कृष्ण की द्वारका नगरी चार धामों और सात पुरियों में से एक है। द्वारकापुरी का माहात्म्य अवर्णनीय है। कहा जाता है कि द्वारका के प्रभाव से विभिन्न योनियों में पड़े हुए समस्त जीव मुक्त होकर श्रीकृष्ण के परमधाम को प्राप्त होते हैं। यहां तक कि द्वारका निवासियों के दर्शन और स्पर्श मात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। द्वारका में जो होम, जप, दान, तपादि किए जाते हैं, उनका प्रभाव कोटिगुना और अक्षय होता है। द्वारका के उद्भव के विषय में कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने कंस का वध करने के बाद द्वारकापुरी की स्थापना का निर्देश विश्वकर्मा को दिया, विश्वकर्मा ने एक ही रात में इस आलीशान नगरी का निर्माण कर दिया।
अपनी समस्त यादव मंडली को लेकर कृष्ण मथुरा से आकर यहां निवास करने लगे। द्वारका को कुशस्थली भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि सत्ययुग में महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर कई यज्ञ किए थे। यहां कुश नामक दानव ने कई उपद्रव फैला रखे थे। उसे मारने के लिए ब्रह्माजी ने कई उपाय किए। जब वह दानव शस्त्रों से नहीं मरा, तब त्रिविक्रम भगवान ने उसे भूमि में गाड़कर उसके ऊपर उसी के आराध्य कुशेश्वर की लिंगमूर्ति स्थापित कर दी। दैत्य के प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला जो व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा, उसकी द्वारका यात्रा का आधा पुण्य उस दैत्य को मिलेगा। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के निर्देश पर विश्वकर्मा द्वारा बसायी गई द्वारका नगरी कृष्ण के वैकुंठ प्रस्थान के बाद समुद्र में डूब गई, केवल कृष्ण का निज मंदिर बचा रहा। कुछ समय पूर्व पुरातत्व विभाग को समुद्र से प्राचीन द्वारका के अवशेष मिले हैं।
मुख्य आकर्षण
द्वारकाधीश मंदिर: यह द्वारका का मुख्य मंदिर है। इसे श्री रणछोड़राय का मंदिर और जगत मंदिर भी कहते हैं। गोमती द्वारका भी यही कहलाती है। ढाई हजार साल पुराना यह मंदिर गोमती के उŸारी किनारे पर बना है। यह सात मंजिला है और 157 फुट ऊंचा है। इसमें द्वारकाधीश की श्यामवर्ण की चतुर्भुज मूर्ति स्थापित है। गोमती से 56 सीढ़ियां चढ़ने पर यह मंदिर मिलता है। श्री रणछोड़राय के मंदिर पर पूरे थान की ध्वजा फहराती है। यह ध्वजा दिन में तीन बार बदली जाती है। इस अवसर पर ढोल-नगाड़ों की गूंज के साथ चारों ओर उत्सवी वातावरण बन जाता है। यह विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है। द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में त्रिविक्रम भगवान का मंदिर है। इसमें त्रिविक्रम भगवान के अतिरिक्त राजा बलि तथा सनकादि चारों कुमारों की मूर्तियों के साथ-साथ गरुड़ की मूर्ति भी है। मंदिर के उŸार में प्रद्युम्न जी की श्यामवर्ण प्रतिमा और उसके पास ही अनिरुद्ध व बलदेव जी की मूर्तियां भी हैं। मुख्य मंदिर के पूर्व में दुर्वासा ऋषि का छोटा सा मंदिर है।
शारदा मठ: श्री रणछोड़राय जी के मंदिर के पूर्वी घेरे के भीतर मंदिर का भंडार है और उससे दक्षिण में जगद्गुरु शंकराचार्य का शारदा मठ है।
कुशेश्वर मंदिर: द्वारकाधीश मंदिर के उŸारी मोक्षद्वार के निकट कुशेश्वर शिव मंदिर स्थित है। कुशेश्वर के दर्शन किए बिना द्वारका यात्रा अधूरी मानी जाती है।
रुक्मिणी देवी मंदिर: यह मंदिर पुरातत्व कला का अप्रतिम नमूना है। मंदिर के दीवारों पर कृष्ण एवं रुक्मिणी के जीवन की झंाकी प्रस्तुत करने वाली अनेकानेक कलाकृतियां अंकित हैं। यह मंदिर मुख्य शहर से डेढ़ किमी दूर उŸार की ओर स्थित है। इस मंदिर के दूर होने की पृष्ठभूमि में एक कथा भी प्रचलित है। एक बार भगवान कृष्ण एवं उनकी पटरानी रुक्मिणी ने क्रोधमूर्ति श्री दुर्वासा ऋषि को अपने घर रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। अतिथि सत्कार के शिष्टाचार के अनुसार जब तक अतिथि भोजन न कर ले, मेजबान अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकते। लेकिन रुक्मिणी को बहुत जोर से प्यास लगी, तो उन्होंने कृष्ण से प्यास बुझाने का कोई उपाय सुझाने को कहा। तब कृष्ण ने अपने पैर से जमीन को खुरचा और वहां से गंगा की धार निकलने लगी। दुर्वासा ऋषि से आंख बचाकर रुक्मिणी जल पीने लगीं। इतने में दुर्वासा की नजर उन पर पड़ी और वे बिना उनकी अनुमति लिए जल ग्रहण करने पर बहुत क्रोधित हुए और उन्हें कृष्ण से दूर जाकर रहने का श्राप दे दिया। इसीलिए रुक्मिणी का मंदिर कृष्ण मंदिर से दूर स्थित है।
निष्पाप सरोवर: सरकारी घाट के पास एक छोटा सा सरोवर है, जो गोमती के खारे जल से भरा रहता है। यहां पिण्डदान भी किया जाता है। यहां स्नान के लिए सरकारी शुल्क देना होता है। इस निष्पाप सरोवर के पास एक छोटा सा कुंड है। उसके आगे मीठे जल के पांच कूप हैं। यात्री इन कूपों के जल से मार्जन तथा आचमन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से समस्त पाप कट जाते हैं। इसीलिए इसमें स्नान करने के बाद यात्री गोमती में स्नान करते हैं।
अन्य मंदिर: श्री रणछोड़राय के मंदिर के कोठे के बाहर लक्ष्मीनारायण मंदिर और वासुदेव मंदिर हैं। यहां स्वर्ण द्वारका नामक एक स्थान है जहां शुल्क देकर प्रवेश मिलता है। यहां उभरे हुए कलापूर्ण भिŸिाचित्र देखने योग्य हैं।
आसपास के दर्शनीय स्थल
बेट-द्वारका: गोमती द्वारका से 20 किमी की दूरी पर एक छोटा सा द्वीप है, बेट (द्वीप) होने के कारण इसे बेट द्वारका कहते हैं। द्वारका से 18 किमी दूर ओखा स्टेशन है। ओखा से नौका द्वारा समुद्र की खाड़ी पार कर बेट द्वारका पहुंचना पड़ता है।
श्रीकृष्ण महल: यहां द्वीप के बीच में श्रीकृष्ण का महल तथा कई अन्य मंदिर भी हैं।
शंखोद्वार: श्रीकृष्ण महल से लगभग आधा किमी की दूरी पर शंख नारायण का मंदिर है। कहा जाता है कि कृष्ण ने यहां शंखासुर को मारा था।
गोपी तालाब: बेट द्वारका से नौका द्वारा ओखा पोर्ट न उतर कर मेंदरडा ग्राम के पास उतरें, तो वहां से दो मील की दूरी पर गोपी तालाब मिलता है। ओखा से भी गोपी तालाब के लिए बस जाती है। यहां एक कच्चा सरोवर है, जिसमें पीले रंग की मिट्टी है, जिसे गोपी चंदन कहा जाता है। कृष्ण भक्त उसका तिलक लगाते हैं।
नागनाथ: गोपी तालाब से 3 किमी और गोमती द्वारका से 10 किमी की दूरी पर नागेश्वर गांव है। यहां नागनाथ शिव का मंदिर है, जिसे द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग भी माना जाता है।
कब जाएं: द्वारका जाने के लिए अक्तूबर से मार्च का समय बहुत अच्छा रहता है। अगस्त सितंबर में यहां कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल महोत्सव का आयोजन भी किया जाता है।
कैसे जाएं/कहां ठहरें: जामनगर नजदीकी हवाई अड्डा है। मुंबई से जलमार्ग द्वारा भी ओखा पोर्ट तक जाया जा सकता है। वहां से रेल या बस से द्वारका जा सकते हैं। रेल लाइन द्वारका स्टेशन तक जाती है। वहां से द्वारकापुरी (गोमती द्वारका) एक किमी है। यहां रहने के लिए कई धर्मशालाएं हैं। प्रायः यात्री पंडों के यहां भी ठहरते हैं।