मिश्रफल: साधारण दृष्टि से मिश्रफल का अर्थ होता है मिलाजुला या मिश्रित फल। यदि मिश्रफल का अर्थ मिलाजुला या मिश्रित फल मान लिया जाए तो इस अध्याय की श्लोक संख्या 37, 38, 39, 40 एवं 41 में केवल श्लोक संख्या 38 में एक स्थान पर ‘भवन्ति मिश्रफलदा’ वाक्यांश मिश्रित या मिलेजुले फल का प्रतिपादक है और इस वाक्यांश को छोड़कर इस पूरे अध्याय में कहीं भी मिश्रफल की चर्चा नहीं मिलती।
क्या इस पूरे अध्याय में केवल एक वाक्यांश में मिश्रफल की चर्चा मात्र से इस संपूर्ण अध्याय को मिश्रफल अर्थात् मिले जुले फल वाला अध्याय माना जा सकता है? संभवतः नहीं। तो मिश्र या मिश्रफल क्या है? इस बात का शास्त्रीय आधार पर विचार कर इसका अर्थ सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि इस मिश्रफलाध्याय का स्वरूप स्पष्ट हो सके। शास्त्र एक अनुशासन है, जो नियम, उपनियम एवं सिद्धांतों में व्यवस्था बनाने के लिए इस सब को समन्वय के सूत्र से बांधता है ताकि परिणामों में एकरूपता एवं विश्वसनीयता रहे और उनकी तर्कपूर्ण व्याख्या की जा सके।
इस अध्याय में श्लोक संख्या 37 से 40 तक चारों श्लोकों में दशा फल के आधारभूत नियमों का, जिनका प्रतिपादन श्लोक संख्या 30 एवं 31 में दिया गया है, पालन नहीं किया गया जबकि श्लोक संख्या 40 में द्वितीय अध्याय में प्रतिपादित योगकारकता के नियमों का, जिनका प्रतिपादन श्लोक संख्या 14 एवं 15 में किया गया है, पालन नहीं किया गया। इस प्रकार इस अध्याय के अंतिम (मंगल) श्लोक को छोड़कर सभी जगह आधारभूत नियमों का पालन नहीं हुआ है। दशाफल के आधारभूत नियमों में बताया गया है कि
(1) सभी ग्रह अपनी दशा एवं अपनी ही अंतर्दशा में अपना आत्मभावानुरूप शुभाशुभ फल नहीं देते,
(2) सभी ग्रह अपना आत्मभावानुरूप (स्वाभाविक) फल अपनी दशा में अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में देते हैं और
(3) दशानाथ के विरुद्धधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में विद्वानों को उनके फलों का अनुगुणन कर फल निर्धारित करना चाहिए। किंतु इस अध्याय के सभी श्लोकों में इन नियमों का पालन नहीं किया गया। इस प्रसंग में श्लोक संख्या 37-40 को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इसी प्रकार योगकारकता के नियमों का इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है
(1) केंद्रेश एवं त्रिकोणेश आपस में संबंधित हों और इतर ग्रहों से संबंध न करते हों, तो योगकारक होते हैं और केंद्रेश एवं त्रिकोणेश दोषयुक्त होने पर भी आपसी संबंधी मात्र से योगकारक होते हैं। किंतु इस अध्याय की श्लोक संख्या 41 में इन नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया जबकि श्लोक संख्या 42 में इसका पालन किया गया है। इस प्रकार इस अध्याय में न तो मिश्रित फल का प्रतिपादन है अैर न ही दशाफल एवं योगकारकता के नियमों का पालन किया गया है।
अतः मिश्रिफलाध्याय में ‘‘मिश्रफल’’ क्या है इसका निर्धारण होना आवश्यक है। वस्तुतः पापी, मारक एवं पूरक ग्रह निरंकुश होते हैं। इनकी निरंकुशता को नियमानुकूल करना अपवाद है। परस्पर विरोधियों को अनुशासन के सूत्र में बांधना नियम होता है और नियमों के अपवाद को मिश्रत्व कहा जाता है। क्योंकि अपवाद पहले से स्थापित नियमों में-अपमिश्रण- मिलावट करते हैं, अतः मिश्रत्व एवं अपवाद एक ही बात के दो पहलू हैं। इस प्रकार इस अध्याय की श्लोक संख्या 37 से 41 तक पांचों श्लोकों में अपवाद के नियमों का प्रतिपादन होने के कारण तथा मिश्रत्व एवं अपवादत्व का परस्पर समानार्थक होने के कारण मिश्रफल का अर्थ है
नियमों का फल। और इसका प्रतिपादन करने वाला अध्याय मिश्रफलाध्याय होता है। पापी ग्रह की दशा में शुभ एवं योगकारक की अंतर्दशा का फलः लघुपाराशरी में पापी ग्रह का अभिप्राय है त्रिषडायाधीश, अष्टमेश एवं पापयुक्त मारकेश। ये पापी ग्रह चार प्रकार के होते हैं।
1.वे ग्रह जिनकी एक राशि त्रिषडाय और दूसरी राशि केंद्र या त्रिकोण में हो - उन्हें सुविधानुसार पापी ग्रह कहते हैं।
2. वे ग्रह जिनकी दोनों राशियां त्रिषडाय में हो - उन्हें यहां केवल पापी कहते हैं।
3. वे जिनकी एक राशि अष्टम में और दूसरी त्रिषडाय में हो - उन्हें परमपापी कहते हैं और
4. वे मारकेश जो त्रिषडायेश या अष्टमेश के साथ हांे, उन्हें सुविधानुसार अतिपापी कहते हैं।
यहां शुभ ग्रह का तात्पर्य उस त्रिकोणेश से है, जिसकी दूसरी राशि त्रिषडाय या अष्टम में न हो और योगकारक का अर्थ उन केन्द्रेशों एवं त्रिकोणेशों से है, जिनका आपस में संबंध हो और जो अष्टम या एकादश के स्वामी न हों। श्लोक संख्या 37-38 में पापी ग्रह की दशा में असंबंधी या संबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा तथा असंबंधी योगकारक की अंतर्दशा का विवेचन करते हुए लघुपाराशरीकार कहते हैं-
‘‘यदि दशाधीश पापी हो, तो उससे असंबंधी शुभ ग्रह की भुक्ति पापफलदायक, उससे संबंधी शुभ ग्रह की भुक्ति मिश्रफलदायक और उससे असंबंधी योगकारक की भुक्ति अत्यंत पापफलदायक होती है।’’ इस विषय में सुश्लोक शतक का मत है कि पापी ग्रह की दशा में पापी ग्रह की भुक्ति अत्यंत अशुभफलदायक, संबंधी शुभ ग्रह की भुक्ति मिश्रित फलदायक तथा असंबंधी शुभ ग्रह की भुक्ति अशुभ फलदायक होती है।’’
इस प्रसंग में विचारणीय बात यह है कि पापी ग्रह की दशा में असंबंधी शुभ ग्रह की भुक्ति का पापफलदायक होना श्लोक 30-31 में प्रतिपादित नियमों का उल्लंघन है। यहां अंतर्दशाधीश न तो संबंधी है और न ही सधर्मी फिर यह दशाधीश का आत्मभावानुरूपी पाप फल कैसे देगा? यहां श्लोक 31 के अनुसार असंबंधी एवं विरुद्धधर्मी होने के कारण उनके फलों का अनुगुणन कर फल निर्धारित करना चाहिए।
किंतु ऐसा फल लघुपाराशरीकार ने नहीं बतलाया। अतः इसका समन्वय करने के लिए इस फल को ‘अपवाद’ मान लेना उचित है। इस प्रकरण में लघुपाराशरी के कुछ टीकाकारों ने पौराणिक शैली में इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है- जैसे पापी राजा के अधिकार में रहने वाला सज्जन व्यक्ति भी राजा की आज्ञानुसार ही कार्य करता है, उसकी आज्ञा की अवहेलना या उसके विरुद्ध कार्य नहीं करता। कारण राजा के प्रतिकूल कार्य करेगा तो स्वामी की आज्ञा पालनरूप धर्म का भंग होगा और अपनी प्रतिष्ठा भंग होने का उसे अधिक भय रहेगा। इसलिए सज्जन की अपेक्षा अतिसज्जन अधिक रूप से (पापी) राजा की मनोवांछित प्रवृत्ति को कार्यरूप में परिणत करेगा।
इस उदाहरण में सज्जन को शुभ ग्रह और अतिसज्जन को योगकारक समझना चाहिए। इसलिए पापी ग्रह की दशा में शुभ ग्रह के असंबंधित होने के कारण पापफल मिलेगा और (असम्बन्धित) योगकारक अधिक से अधिक पापफल अपनी अंतर्दशा में देगा। जिस प्रकार किसी असज्जन का राजा से संबंध होने से उसमें निर्भयता आती है और वह राजा की मनोवृत्ति के प्रतिकूल भी अपनी इच्छानुसार अपने मन सरीखा कुछ अंश कर लेता है, उसी प्रकार पापी दशानाथ से संबंधित शुभ ग्रह अपनी अंतर्दशा में मिश्रित फल देता है।
(1) तारतम्य: पापी ग्रह चार प्रकार के होते हैं- पापी, केवल पापी, परमपापी एवं अतिपापी। ये चारों उत्तरोत्तर बलवान होते हैं और इनकी दशा में उत्तरात्तर पाप फल की प्रबलता होती है। इसी प्रकार शुभ फलदायक ग्रह भी चार प्रकार के होते हैं-दोषयुक्त शुभ ग्रह, शुभ ग्रह, स्वयं कारक एवं योगकारक । ये चारों भी उत्तरोत्तर बलवान होते हैं।
2. निष्कर्ष: लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 37 एवं 38 का समग्र दृष्टि से विचार एवं चिंतन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। यदि दशानाथ पापी हो तो-
(क) दशानाथ से असंबंधित शुभ ग्रहों की अंतर्दशा पाप फल देने वाली होती है। यहां दोषयुक्त ग्रह से शुभ ग्रह और उससे स्वयं कारक की अंतर्दशा में पाप फल अधिक होता है।
(ख) दशानाथ से संबंधित शुभ ग्रहों की अंतर्दशा मिश्रित फल देती है। इस स्थिति में मिश्रित फल की मात्रा में दोषयुक्त शुभ की अंतर्दशा से शुभ ग्रह की अंतर्दशा में और उससे स्वयं कारक की अंतर्दशा में शुभ फल उत्तरोत्तर अधिक होता है।
(ग) दशानाथ से असंबंधित योगकारक ग्रहों की अंतर्दशाएं अत्यंत पाप फलदायक होती हैं। यहां स्वयं कारक की अंतर्दशा से योगकारक की भुक्ति में पाप फल अधिक होता है।
(घ) दशानाथ से संबंधित योगकारकों की अंतर्दशा में मिश्रित फल मिलता है, जिसमें शुभ फल अधिक एवं पाप फल कम होता है। यहां भी स्वयं कारक की अपेक्षा योगकारक की अंतर्दशा में शुभ फल की मात्रा अधिक होती है।
(ड.) समग्रह की अंतर्दशा में पाप फल मिलता है, किंतु उतना नहीं जितना शुभ ग्रह या योग कारक ग्रह की भुक्ति में मिलता है, अपितु उससे अपेक्षाकृत कम मिलता है।
(च) पापी ग्रहों की अंतर्दशा में पूर्ण पाप फल मिलता है। चाहे अंतर्दशानाथ, पापी, केवल पापी, परम पापी या अतिपापी हो-दशानाथ एवं अंतर्दशानाथ के सधर्मी होने के कारण। संदर्भ: ‘‘पापाः मारकाः पूरकाश्च निरंकुशाः भवन्ति तेषां नियमानुकूलत्त्वमपवादत्वं नियमापवादत्वन्च मिश्रत्वमिति।।’’ -उद्योत टीका श्लोक 37 ‘‘पापाः यदि दशानाथः शुभानां तदसंयुजाम्। भुक्तयः पापफलदास्तत्संयुक् शुभभुक्तयः।। भवन्ति मिश्रफलदा भुक्तयो योगकारिणाम्। अत्यन्तपापफलदा भवन्ति तदसंयुजाम्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 37-38 ‘‘अन्यन्ताशुभदः पापः पापमध्ये यदा भवेत्। संबंधी तु शुभो मिश्रोऽसम्बंधी त्वशुभप्रदः।।’’ -सुश्लोक शतक-दशाध्याय श्लोक. 26