मंत्र से ध्यान एवं समाधि तक पं. एम सी. भट्ट जीवन की समस्याओं को दूर करने के लिए मंत्र और विधान समस्याओं के अनुरूप ही होते हैं। ध्यान उनका एक साधन है जिससे समाधि की अवस्था तक पहुंच कर संपूर्ण प्राप्तियां संभव हो जाती हैं। मंत्र से समाधि तक की यात्रा का दिग्दर्शन करा रहें हैं इस लेख में पं. एम. सी भट्ट। जीवन का सबसे बड़ा सच यह है कि मानव मात्र अपने जीवन में संपूर्ण सुख चाहता है और उसको पाने के लिये जी-जान से कोशिश करता है। किंतु यह उसको मिलता नहीं है। दरअसल मन की वेदना ही दुख है और यदि मन के विचलन को नियंत्रित कर लिया जाये तो दुखों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिये ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखायें अपने-अपने ढंग से दुखों से मुक्ति का मार्ग ढूंढ रही है। इस धीर-गंभीर प्रश्न का तटस्थ भाव से यथार्थ मूलक चिंतन करने वाले वैदिक ऋषियों ने निष्कर्ष के रूप में एक बात स्पष्ट रूप से कही है कि दुख शारीरिक हो या मानसिक, व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, किसी भी तरह के दुख में मंत्र साधना, उससे उबरने का पथ प्रशस्त करती है। जीवन में जिस तरह की समस्यायें आती हैं, उन्हें दूर करने के लिये आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न करने वाले मंत्र और विधान भी उसी के अनुरूप चुनने होते हैं।
किस आवश्यकता के लिए कौन सा मंत्र और कौन सा अनुष्ठान चाहिये, यह इस विधा का जानकार व्यक्ति ही बता सकता है, जो शास्त्रों का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ स्वयं भी तप और तितिक्षा से पावन हुआ हो। ऐसे मार्गदर्शक का मिलना भी बड़ा सौभाग्य है। ध्यान लगाना योग की ही एक क्रिया है। इसमें मस्तिष्क को एक ही जगह एकाग्रचित करने का प्रयास किया जाता है। इससे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, विवेक और बुद्धि तो प्रखर होती ही है, स्मरण शक्ति में भी वृद्धि होती है। हमारे ऋषि, मुनि, तपस्वी वर्षों तक ध्यान में मग्न रहते थे, उन्होंने ध्यान लगाकर ही अनेक सिद्धियों की प्राप्ति की थी, वे तो त्रिकालदर्शी थे। आज की इस भागदौड़ की जिंदगी में यदि सकून के कुछ पल चाहिये, आत्म संतुष्टि चाहिये तो आपको भी ध्यान लगाना चाहिये। अब तो इसे दूसरे देशों ने भी स्वीकार लिया है वे भी इसकी वैज्ञानिकता पर सहमत हैं और मानते हैं कि ध्यान लगाने से एक नहीं अनेकों लाभ उठाये जा सकते हैं। सूर्य की किरणों से गर्मी व रोशनी भर प्राप्त होती है किंतु एक छोटे आतिशी शीशे द्वारा दो इंच घेरे की किरणें एकत्र कर ली जायें तो उतने भर से अग्नि प्रकट हो जाती है। और यदि उसका विस्तार किया जाये तो वह चिंगारी भयंकर दावानल के रूप में विस्तृत की जा सकती है।
यही बात मानवी मन के संबंध में भी लागू होती है जो सतत् निरर्थक घुड़दौड़ लगाता रहता है। इससे न केवल मनुष्य बाह्य जीवन की समस्याओं में उलझा रहता है वरन् अपनी असीम शक्ति संपदा का भी अपव्यय करता रहता है। किंतु जब मन की भगदड़ को किसी विषय पर केंद्रित कर लिया जाता है तो उसकी बेधक शक्ति अत्यधिक हो जाती है। उसे जिस भी काम में नियोजित किया जाये उसे अधिक सशक्तता और विशेषता के साथ करती है। ध्यान द्वारा मन के बिखराव को रोका जा सकता है और इस प्रकार से जो शक्ति एकत्रित होती है, उसे अभीष्ट प्रयोजनों में लगाकर असाधारण प्रतिफल प्राप्त किया जा सकता है। ध्यान किसी भौतिक प्रयोजन में भी लगाया जा सकता है और अध्यात्म के उद्ेश्य के लिये भी। वैज्ञानिक, कलाकार, शिल्पी, साहित्यकार अपना ध्यान इन कार्यों में संलग्न करके तद्विषयक सफलतायें पाते हैं और जिन्हें अंर्तमुखी होकर आत्मशोधन करना है वे उस दिशा में प्रगति करते हैं। प्रयोजन-विशेष के अनुसार ध्यान को वैसा ही मोड़ दिया जा सकता है। इस प्रक्रिया की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर भी अब विशद् अनुसंधान किया जा चुका है। ध्यान-साधना से शरीर-क्रिया-विज्ञान पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों की खोज का कार्य हो रहा है।
विभिन्न देशों के मूर्धन्य संस्थानों में इस प्रकार के अनुसंधान कार्य चल रहे हैं। तंत्रिका विशेषज्ञों का कहना है कि मननशील एकाग्र, ध्यानस्थ मस्तिष्क में अनेक विशेषताएं विकसित की जाती है। फलतः मनुष्य का संबंध सृजनात्मक बौद्धिकता से जुड़ता और उसी परिणति को प्राप्त होने लगता है। यह पाया गया है कि ध्यान की दशा में व्यक्ति के मस्तिष्क और शरीर में कई तरह की जैव-रासायनिक प्रक्रियायें सक्रिय हो जाती हैं। कई अवांछनीय क्रियायें उसी समय निष्क्रिय हो जाती हैं। मिनिसोटा के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. डेविड डब्ल्यू ओर्मे जान्सन ने आटोनामिक स्टैबिलिटी एंड मेडीटेशन' नामक अपने अनुसंधान-निष्कर्ष में बताया है कि ध्यान के द्वारा तंत्रिका तंत्र के क्रिया कलापों में एक नई चेतना आ जाती है और उनके सभी कार्य नियमित एवं स्थायी रूप में होने लगते हैं। शरीर की त्वचा बाह्य वातावरण के प्रति प्रतिरोधी क्षमता धारण कर लेती है और उस पर आये दिन पड़ने वाले वातावरण के तनाव, साइकोसोमैटिक बीमारियां, व्यावहारिक अस्थायित्व एवं तंत्रिका तंत्र की विभिन्न कमजोरियां आदि दूर हो जाती है। शरीर के अंदर शक्ति का संरक्षण और भंडारण होने लगता है और यह अतिरिक्त ऊर्जा शरीर और मन के विभिन्न कार्यों, व्यवहारों को अच्छे ढंग से संपादित करने के कार्य में प्रयुक्त होने लगती है।
चिकित्सक जान्सन के कथनानुसार ध्यान का नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति तनाव जैसी मानसिक बीमारियों से जल्दी छुटकारा पा लेते हैं। हाइपो कोन्ड्रिया, सीजोफ्रेनिया, टाइलरमेनीफेस्ट एंक्जाइटी जैसी बीमारियों को ध्यान द्वारा नियंत्रित करने में उन्हें असाधारण सफलता मिली है। कुछ महीनों तक ध्यान का अभ्यास कराने पर उन्हें लोगों के व्यक्तित्व में आशाजनक सुपरिणाम देखने को मिले। अधिक दिनों तक ध्यान के नियमित अभ्यास का क्रम बनाये रखने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में असाधारण रूप से वृद्धि होती है। वैज्ञानिकों का मत है कि ध्यान का प्रयोग उच्च रक्तचाप को कम करता है। डॉराबर्ट कोध वैलेस और हर्बट वेन्सन ने उच्च रक्तचाप वाले 22 व्यक्तियों का ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद एक हजार से अधिक बार परीक्षण किया, उनका सिस्टोलिक और आर्टीरियल ब्लड-प्रेशर रिकार्ड किया। ध्यान करने के पश्चात् उक्त रोगियों के रक्तचाप में महत्वपूर्ण कमी देखी गयी । डॉ. राबर्ट कीथ वैलेस ने अपनी पुस्तक 'इशु आफसाइन्स' में लिखा है कि ध्यान के समय ऑक्सीजन की खपत तथा हृदय की गति कम हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप रक्त में विद्यमान अम्लरूपी विष 'लैक्टेट' काफी मात्रा में कम हो जाता है।
फलतः साधक को हल्की योग निद्रा आने लगती है। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में अभिवृद्धि से लेकर मनोबल बढ़ाने तथा अभीष्ट प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने में ध्यान अपनी महत्वपूर्ण भूमिका संपादित करता है। मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकद्वय फिलिप सी. फर्गुसन और जान सी गोवान का निष्कर्ष है कि बहुत दिनों तक ध्यान का अभ्यास करते रहने पर व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है। ध्यान में लगाया गया समय चक्रवृद्धि ब्याज सहित परिणाम देता है। यदि मन के विचलन को नियंत्रित कर लिया जाये तो दुखों को नियंत्रित किया जा सकता है। जीवन में जिस तरह की समस्यायें आती हैं, उन्हें दूर करने के लिये आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न करने वाले मंत्र और विधान भी उसी के अनुरूप चुनने होते हैं। आज के इस भागदौड़ वाले जीवन में यदि सकून के कुछ पल और आत्म संतुष्टि चाहिए तो आपको भी ध्यान लगाना चाहिए, अब तो इसे देशों ने भी स्वीकार कर लिया है। ध्यान द्वारा मन के बिखराव को रोका जा सकता है और इस प्रकार जो शक्ति एकत्रित होती है उसे अभिष्ट प्रयोजनों में लगाकर असाधारण प्रतिफल प्राप्त किया जा सकता है। ध्यान योग अब चिकित्सा विज्ञान में एक विधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुका है।
और भविष्य में इसके माध्यम से असाध्य रोगों के उपचार और संभावित रोगों की रोकथाम की संभावना भी बनी है। किंतु ध्यान साधना का यह भौतिक पक्ष है। इससे न केवल जीवनी शक्ति का अभिवर्धन तथा एकाग्रताजन्य संतुलित मनः स्थिति का लाभ मिलता है वरन् विश्वव्यापी दिव्य सत्ता के साथ घनिष्ठता बना लेने और उसके साथ संपर्क साध सकने वाले आत्मिक चुम्बकत्व का भी विकास होता है। ध्यान में यदि इष्ट निर्धारण के साथ ही भाव श्रद्धा की सरसता भी मिली हुई हो तो इस मार्ग पर चलते चलते मनोनिग्रह से लेकर मनोलय तक की स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा समाधि का, आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन का लाभ मिल सकता है। ध्यान योग का यही वास्तविक लक्ष्य है। ध्यान का कोई रूपाकार नहीं है। इसलिये विचार के जरिये हम इसके प्रति सजग नहीं हो सकते। विचार रूप या आकार है। ध्यान का मतलब है विचार रहित सचेतन होना। आप कभी भी उतने मूल रूप, उतनी गहराई में नहीं रहते, जितने कि ध्यान अवस्था में रहते हैं। जब आप ध्यान में है, तब आप वह हैं जो आप इस शारीरिक और मानसिक रूपाकार को पाने से पहले थे। उस स्थिति में आप इस लौकिक अस्तित्व से परे शुद्ध चेतना हैं, असीम, शाश्वत और निराकार चेतन हैं।