भगवत कृपा के स्रोत
भगवत कृपा के स्रोत

भगवत कृपा के स्रोत  

विश्वनाथ प्रसाद सोनी
व्यूस : 7364 | फ़रवरी 2011

भगवत कृपा के स्रोत विश्वनाथ प्रसाद ''सोनी'' भगवत कृपा प्राप्ति के अनेक मार्ग बताए गए हैं जबकि भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति है। आइए जानें, इस लेख के द्वारा कि यह सब कैसे प्राप्त किया जाय। भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति आदि काल से मानव जीवन का लक्ष्य रहा है। आधुनिक परिवेश में इसे जानने के क्रम में, एक आकृति मस्तिष्क में आती है। विशाल कालिमा क्षेत्र के भाल पर मनमोहक श्याम की छवि। आकाश की ओर देखा जाये तो वह परिधि रहित कालिमा, नीला ब्योम दिखता है। कभी इसी अनंत अंतरिक्ष में भयानकतम विस्फोट हुआ और पिंडों के रूप में, जो अवशेष घूर्णन से बिखर गये, वे ज्योतिपुन्जों के साथ, आज भी तारे, ग्रह नक्षत्रों के रूप में उपस्थित हैं। पृथ्वी के जड़ चेतन, सौरमंडल, नक्षत्रमंडल, ''यह सब कुछ'' इसी अंतहीन परिधि के क्षेत्र में है।

उस अनंत कालिमा तथा उसके तेजमय बिंदु को जो सभी ब्रह्मांड पिंडों का उत्पत्ति स्रोत था, ऋणात्मक और धनात्मक आयाम जाना जा सकता है। कालिमा जो समस्त द्रव्य की माता स्वरूपा काली मां हैं और तेज स्वरूप, उत्सर्जनकर्ता ईश्वर, श्रीकृष्ण श्री हरि समझे जा सकते हैं। देवी भागवत के अध्याय 51 में कहा गया है कि कृष्ण या कालिमा ही तीनों काल-भूत, वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा के स्रोत हैं एवं यह कालपरिधि से परे, आगम-निगम के ज्ञाता हैं तथा कृष्ण अधिष्ठाता देव हैं। प्रत्येक द्वापर युग में इनका अवतार, स्वरूप, समदर्शिता एवं कर्म समन्वय के लिये होता रहा है। मातृत्व स्वरूपा एवं ज्ञानाधिकारी देव हैं ये ईश्वर। उन्हीं काली मां तथा श्याम कृष्ण से सभी संचालित रहते हैं। नक्षत्र गण, सूर्य, पृथ्वी एवं समस्त ग्रह, इनके प्रभाव क्षेत्र में हैं। सूर्य अपने ग्रहों एवं पृथ्वी के साथ इसी अनंत में चलायमान है। सौर मंडल के स्थिति-परिवर्तन से पृथ्वी के जड़-चेतन परिवर्तन पाते हैं और जन-जीवन इसी के अधीन हो जाते हैं। पृथ्वी पर इसी के अनुरूप स्वभाव, रूझान, कर्म और भोग बनता है।

ऐसी परिस्थिति में मनुष्य सुख-आनंद की प्राप्ति हेतु कहां जाये, क्या करे? भगवत प्राप्ति का प्रश्न, वास्तव में सामयिक और अति महत्त्वपूर्ण है। इसी संदर्भ में प्रकाश, तेज और उनसे निकलने वाली ऊर्जा पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि क्या बिना इनके ऊर्जा-प्रकाश के, यह जगत जीवित रह पायेगा? आदिकाल से संतपुरुषों, ऋषि-मनीषियों ने सूर्य के अलावा अन्य ग्रहों, नक्षत्रों की रश्मियों के ऊर्जा स्रोतों पर गहन अध्ययन किया और उनके प्रभाव को पृथ्वी पर परिलक्षित होते अनुभव किया। सत्ताईस (27) नक्षत्रों, नौ ग्रहों के ज्योति पुन्जों का प्रभाव विश्लेषित किया और इन्हें ईश्वरीय ज्योति 'ज्योतिष' की संज्ञा दी। ईश्वर ने स्वयं अपनी आकृति नहीं बनाई बल्कि मनुष्य ने अपने अनुरूप उनकी आकृति के स्वरूप का ज्ञान किया। जैसा ब्रह्मांड है, वैसा ही हर पिंड है। मनुष्य की आत्मा के आवरण, इस काया, इस भौतिक शरीर को उस ईश्वर ने अपने ही स्वरूप में, ब्रह्मांड के हर ऊर्जा स्रोत को अपना ही स्वरूप दिया। सात रंगों के उत्सर्जन के कारण मानव ने सूर्य को मानव आकृति देते हुये सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ किया और उनकी ऊर्जा रश्मि को प्राप्त करने हेतु उनकी आराधना का मार्ग प्रशस्त किया।

ऐसे ही सभी ग्रहों के देवता निर्धारित हुये। सूर्य के निकटतम ग्रह बुध, जिसे बौद्धिक ज्ञान के प्रकाश का स्रोत जाना गया, सर्वप्रथम पूज्य बनाकर ज्ञान के गणनायक के रूप में पूजा गया। अन्य ग्रहों के गुण अवयवों पर आधारित स्वरूप एवं आराधना के संबंध में बहुत कुछ आदि ग्रंथों में विवेचित किया। ऊर्जा के विभिन्न आयाम होते हैं। किसी ऊर्जा में बुद्धि विकास का गुण है तो किसी में प्रतिरक्षा पौरुष का आधिपत्य। कोई तेज देता है तो कोई शांति और कोई अशांति। हर मनुष्य के जन्मकाल में इन ऊर्जा स्रोतों का एक सम्मिश्रण होता है। जन्मकुंडली में दर्शित ग्रह स्थिति उसी की रूप रेखा व मानचित्र है। जीवन पर्यंत वह इसके अधीन रहता है। ऐसी स्थिति में भगवत कृपा से आनंद प्राप्ति का मूल क्या हो सकता है? इसके जड़ में अध्यात्म है अर्थात् आत्मा में परमात्मा के विशेष अंश का दर्शन। ब्रह्मांड, जो अनंत व असीम है, उसे अतीन्द्रियवाद (मेटाफिजिक्स) द्वारा समझा जा सकता है। इसके लिये ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, योगमार्ग और भक्तिमार्ग का संधान करना होता है जो अत्यंत दुरूह है। ग्रह-नक्षत्रों के सृजनकर्त्ता से कृपा पाना दुर्लभ है।

फिर भी मनीषियों ने जो मार्ग बताये हैं उसका अनुसरण ही भगवत् प्राप्ति में सहायक है। एक बालक से पूछा गया कि पढ़-लिखकर क्या बनना है, उत्तर था धन, संपत्ति, वैभव प्राप्त करने का लक्ष्य। फिर प्रश्न था कि उसके बाद क्या होगा, उत्तर था आनंद प्राप्त करेंगे। अर्थात् आनंद ही आगे का लक्ष्य है, तो फिर लक्ष्य परमानंद यानी परम आनंद की प्राप्ति ही बनता है। अंत में सभी मनुष्य भगवत् कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। ईश्वर के तीसरे नेत्र का अर्थ ज्ञान चक्षु है जो खुल जाने पर आनंद की सीमा प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण को ज्ञानाधिकारी इसी पर्याय से कहा गया कि द्वापर युग में वेद पुराणादि सभी का सार उन्होंने गीता रूपी अमृत में दिया है- ''ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥'' (अ. 4-11) श्री कृष्ण की यह उक्ति गीता में है जिसका अर्थ है कि जो मनुष्य जिस विधि विधान से ''हमारी'' भक्ति पूजन करते हैं ''मैं'' भी उसे उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मेरे द्वारा प्रदत्त पथ का अनुसरण करते हुए अवतरित होते हैं। अनन्तव्योम के असीमित ग्रह नक्षत्रों के पथ से आने वाली वही परम आत्मा शरीर धारण करने वाले मनुष्यों में अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ सबका दाता है।

लेकिन हर व्यक्ति में मस्तिष्क सर्वोपरि है और ज्ञान का उपयोग सदा से उन्नतिकारक रहा है। तथापि मनुष्य का प्रभु सदा-सर्वदा उसके साथ है, सिर्फ उस पर हर क्षण मनन और ध्यान की आवश्यकता है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। अतः अशुभता को शुभता में बदलने हेतु ग्रह नक्षत्रों की ऊर्जा रश्मियों का संतुलन करना होता है। भगवान शब्द के चार अक्षरों को इस प्रकार विश्लेषित किया गया है, ''भ'' भूमि (यह धीर, गंभीर जड़त्व का प्रतीक है) ''ग'' गमन अर्थात उत्सुक, खुला हुआ व विशाल सोच, ''व'' का अर्थ वायु- अर्थात चंचल व गतिशील तथा ''आ'' से अग्नि से शमन शक्ति एवम् ज्वाला से अशुभता की, ''न'' नीर एवंम् शीतल प्रवाह युक्त सरोवर। भगवान या ईश्वर मनुष्य को अपने से या प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं।

भगवत् कृपा पाने का यह प्रथम संदेश है। अनंत परिधि वाले परमात्मा से अंशमात्र आत्मा का जब पृथ्वी पर उदय होता है और जीवात्मा भौतिक शरीर पाता है, तब उसमें नक्षत्र-ग्रहों का प्रादुर्भाव निश्चित रहता है। इसमें जन्म-जन्मांतर का कर्म प्रारब्ध के रूप में भी जुड़ा रहता है। उसे विधाता ने अवतरित किया, माता-पिता एवं पूर्वज से जात-पात, गोत्र का निर्धारण हुआ। ये सभी तो पूज्य हैं ही, तो फिर ''स्रोत'' कहां छूट रहा है। यही स्रोत सर्व सृष्टि का प्रणेता है, ईश्वर है। मां भगवती के आरती गान में कहा जाता है कि ''कोटि रतन ज्योति'' आप में विराजमान हैं। अर्थात् असंखय रत्नों के समान ज्योति सदा आपके क्षेत्र में, तारे नक्षत्र ग्रहों के रूप में स्थित है। उनकी ऊर्जा शक्ति की कृपा, भक्त को प्राप्त हो। श्री दुर्गा चालीसा में इसी अनन्त व्योम का ''निराकार है ज्योति तुम्हारी, तिहूं लोक फैली उजियारी'' रूप में बखान है। इससे यही भाव स्पष्ट होता है कि निराकार मातृशक्ति की परिधि में जो शक्ति, ऊर्जा के स्रोत हैं वे ही अनंत आकाश में विद्यमान है उनकी कृपा दृष्टि याचक पर हो। इसी ईश्वर के दो आयाम हैं, कर्म का विशाल क्षेत्र और ज्ञान का चक्षु।

अपने बुद्धि विवेक से इसे जहां तक समझने का प्रयास किया, वह अंतहीन कालिमा में सदा भाल पर कृष्ण रूप में उदित दिखे। इस श्याम कालिमा युक्त चादर को युगों-युगों से महान आत्माओं के धारकों ने जाना। स्वामी विवेकानंद ने इसे ''शून्य'' स्वरूप जाना और अपने व्याखयान से, शिकागो में विश्व को चकित कर दिया। रामकृष्ण परमहंस उसी काली मां का ज्ञानाधिकारी के संधान से शायद साक्षात्कार करके, नाम अमर कर गये। बाल हृदय बहुत निश्छल होता है, बालिका मीरा ने उन्हें हृदय में धारण किया उसी साक्षात कृष्ण विग्रह में समा गयी। उसी अनंत भगवान से सब कुछ आया है और उसी में समाहित होने की कामना प्रभु भक्ति, भगवत् भक्ति है। जैसे विवाहित पुत्री को उसके माता-पिता कदापि नहीं चाहते हैं कि अपने पास रखें। वैसे ही ईश्वर मोक्ष देकर अपनी शरण में हमें नहीं बुलाते। उस प्रभु का संदेश प्रायः सभी आदि ग्रंथों में है। जड़-चेतन उनके शिशु हैं और वही सबों का स्वामी है। सदा से ऋषि-महर्षियों ने भगवत् प्राप्ति के लिये प्रयत्न किये और विरले ही इस गति को प्राप्त कर पाये। उनका संदेश तो इस जगत रूपी फुलवारी को ज्ञान-बुद्धि-विवेक से सुसज्जित करना है।

प्रभु ने ही माया रूपी तत्त्व का मनुष्य में रोपण किया है, फलतः मोह का क्षय नहीं होता और मोक्ष संभव नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में ज्ञान रूपी श्याम, काली मां का आशीष प्राप्त करके और विवेक द्वारा जीवन की अकर्मण्यता को शुभ कर्मों में बदलने हेतु ईश्वरीय ज्योति द्वारा प्रदत्त इष्ट की आराधना के पथ में प्रेरित करते हैं। यही श्रेष्ठतम अनुग्रह है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति रूप में अवतरित किया। इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति के रूप में अवतरित किया।

इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था, तत्पश्चात् पर्यावरण के पेड़-पौधे आदि, फिर जलचर, नभचर, पशु, पक्षी, तदुपरांत मानव का प्रादुर्भाव हुआ, और आज हम विकसित मनुष्य है। आदि पूर्वजों के प्रति आभार के संदर्भ में शिव, कल्याण के कारक हैं। पर्यावरण इस जीवन का आधार है, एवं पशु-पक्षी मानव के सहायक है। देव तुल्य ऋषि-महर्षियों ने ज्ञान के सागर आदि-ग्रंथों की रचना की और इन सबों पर विस्तृत विवेचनायें दी। यही सब आदि स्रोत हैं। अंत में यही कहा जा सकता है। कि सांसारिक जीवन में रहते हुये भगवत् कृपा पाने हेतु वर्तमान जन्मदाता एवं पूर्वजों के अतिरिक्त जगत निर्माता रूपी आदि की आराधना व मनन-चिंतन ही, मानव जीवन का परमलक्ष्य बनता है। विश्व में सर्वमान्य श्री गीता के अमृत-सागर के मंथन में यह पाया गया- तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्व देहिकम्। यतते च ततो भूयः संसिद्धो कुरुनन्दन॥ (अ. 6-43) भावार्थ इस प्रकार है- यह जीवात्मा पूर्व के भौतिक कार्यों में संग्रहित किये हुए ज्ञान-बुद्धि एवं संस्कारों के साथ पुनः शरीर प्राप्त करता है। वह इन सब गुणों के प्रभाव से बारंबार परमेश्वर की कृपा प्राप्ति का पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है और यही निरंतर अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त करता है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.