भवन निर्माण पूर्णतः वास्तु शास्त्र सम्मत हो ऐसा संभव नहीं हो सकता। वास्तु में कुछ न कुछ दोष अवश्य ही रह जाता है। जो शास्त्रों के सूत्रों में बतलाया गया है उस प्रकार बदलाव अवश्य करवायें और कुछ बदलाव संभव नहीं हो पाये, तो या नहीं करवा पाते हो तो, या और कोई दोष हो तो या न हो तब भी स्वस्तिक और रत्नदीप स्थापना बहुत ही लाभकारी सिद्ध होता है।
रत्नदीप स्थापना के विषय में मयमतम्, मानसारम् और अपराजित पृच्छा, समरांगण सूत्रधार, मनुष्यालय चंद्रिका आदि प्राचीन ग्रंथों में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गयी है तथा प्रत्येक ग्रंथ में अलग-अलग क्रम और विधि दर्शायी गई है। पर गुरुजी मा. श्री. य. न. मग्गीरवारजी ने रत्न स्थापना और स्वस्तिक स्थापना का समन्वय करते हुए नंदी प्रतिष्ठापना का भी अंतर्भाव किया है। हम लोग जो विधि करते आ रहे हैं वह अंत में दी गयी है, जो मानसारम् पद्धति से संलग्न है:
मयमतम् पद्धति:
मध्यमे पद्रागं तु मरिचै विद्रुमं मतम्।। 27 ।।
सविन्द्रे पुष्परागं तु वैडुर्य स्याद् विवस्वति।
वज्रमिन्द्रजये विद्यादिन्द्रनीलं तु मित्रके।। 28 ।।
रूद्रराजे महानीलं मरकतं तु महिधरे।
मुक्तापवत्से मध्यादिपुर्वेण क्रमशो न्यसेत।। 29 ।।
मयमतम् अध्याय :
1. ब्रह्म-मध्य में माणिक रत्न स्थापना।
2. ब्रह्म स्थान के बगल में पूर्व दिशा में मारीच पद मंे मूंगा स्थापना
3. ब्रह्म स्थान के बगल में आग्नेय दिशा में सविंद्र पद मंे पुखराज स्थापना।
4. ब्रह्म स्थान के बगल में दक्षिण दिशा में विवस्वान पद में वैदुर्य (लहसुनिया) स्थापना
5. ब्रह्मस्थान के बगल में नैर्ऋत्य दिशा में इंद्रजय पद में हीरा या स्फटिक स्थापना।
6. ब्रह्मस्थान के बगल में पश्चिम दिशा में मित्र पद मंे इंद्रनील (नीलम) स्थापना।
7. ब्रह्मस्थान के बगल में वायव्य दिशा में रूद्रजय पद में महानील (नीलम) स्थापना।
8. ब्रह्मस्थान के बगल में उत्तर दिशा में पृथ्वीधर पद मंे पन्ना की स्थापना।
9. ब्रह्मस्थान के बगल में ईशान्य दिशा में आपवत्स पद में मोती की स्थापना आदि मयमतम ग्रंथ में दर्शाया गया है।
अपराजिता पृच्छ पद्धति:
अनेन क्रमयोगेन रत्नन्यासं तथोत्तमम्।
पूर्वादीक्रमयोगेन रत्नधात्वौष्धानि च।।
वज्रव ैड ुर्य म ुक्ताश्चइन्द ्रनीलस ुनीलकम।
पुष्परागं च गोमेदं प्रवालं पूर्वतः क्रमात्।।
मयमतम् और मानसारम् दोनों ग्रंथों की पद्धति से अपराजित पृच्छा पद्धति में रत्न स्थापना करने का क्रम अलग है। इसमें शुरूआत पूर्व दिशा के मध्य में दर्शाया गया है।
1. पूर्व मध्य में - वज्र - (हीरा या स्फटिक)
2. आग्नेय दिशा में - वैदुर्य (लहसुनिया)
3. दक्षिण मध्य में - मोती
4. नैर्ऋत्य में - इंद्रनील (नीलम)
5. पश्चिम मध्य में - सुनील (नीलम)
6. वायव्य में - पुखराज
7. उत्तर-मध्य में - गोमेद
8. ईशान्य में - प्रवाल (मूंगा)
9. ब्रह्म मध्य स्थान में - माणिक
मानसारम् पद्धति 21 :
मध्ये तु पद्मरागं तु वज्रं चैवेन्द्रकोष्टके।
विद्रुमं चाग्निकोणे तु याम्ये नीलं तु विन्यसेत्।। 194 ।।
नैऋत्ये पुष्परागं तु प्रत्यड्मरकतं क्षिपेत्।
गोमेदकं न्यसेद्वायौ सौम्ये मौक्तिकं विन्यसेत्।। 1951 ।।
ईशे स्फटिकं निक्षिप्य तत्तद्देवान्स्वनामतः।।। 195-5।।
मानसारम् अध्याय 18 :
1) मध्ये तु पद्मरागं तु - ब्रह्मस्थान - माणिक
2) वज्रं चैवेन्द्रकोष्टके - हीरा- पूर्व मध्य में हीरा या स्फटिक
3. विद्रूमं चाग्निकोणे तु- आग्नेय में मूंगा
4. याम्ये निलं तु विन्यसते - दक्षिण मध्य में नीलम
5. नैर्ऋत्य पुष्परागं तु - नैर्ऋत्य में पुखराज
6. प्रत्यमरकतं क्षिपेत् - पश्चिम मध्य में पन्ना।
7. गोमेदकं न्यसेद्धायौ - वायव्य में गोमेद।
8. सौम्ये मौक्तिकं विन्यसेत् - उत्तर मध्य में मोती।
9. ईशे स्फटिकं निक्षिप्य तत्तद्देवान्स्वनामतः स्फटिक श्री, य. न. मग्गीरवारजी ने प्रथमेष्टिका - (नंदा प्रतिष्ठापना) और रत्न संस्कार दोनों का समन्वय करके रत्नदीप संस्कार बनाया है।
आज कल ईंटों के काॅलम बनना बंद सा हो गया है। इसलिए ईंटो पर शं, षं, सं, हं लिखवाकर या खोद कर नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा लिखवा दें। सुगम पद्धति साधकर मयमतम् अध्याय 9 में सूचित किये अनुसार ताम्रपत्र पर स्वस्तिक कोर के (इंचिंग) तैयार किया गया और आग्नेय दिशा में तांबे की प्लेट पर शं, षं सं हं ऊँ बीज मंत्र अक्षर को इस प्रकार लिखा गया है, कि एक-एक बीज अक्षर जैसे नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा यह ईंट पर लिखा गया ऐसा प्रतीत हो।
इससे चारों मुख्य दिशा में रखने वाले- स्वस्तिक की कमी पूरी होती है और उसी प्रकार नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा- बीज मंत्र के साथ स्थापना का समाधान मिलता है। यह केवल चार मुख्य दिशा के अलावा सभी 9 दिशा में रखने से सभी दिशा के रत्न स्थापना को योग्य जगह पर योग्य आसन भी बन जाता है।
इस स्थिति में ‘मानसार’ पद्धति रत्नस्थापना का अवलंबन करके नौ जगह 9 स्वस्तिक जिसमें ऊँ लिखा है और नंदा प्रतिस्थापना स्वस्तिक का अवलंबन पूर्ण नवरत्न स्थापना करंे मतलब ग्रंथ में दी गयी पद्धतिनुसार आग्नेय में प्रथमेष्टिका स्थापन करने का श्रेय प्राप्त होगा और ताम्रपत्र स्वस्तिक स्थापन का समाधन होगा।
इतना ही नहीं सभी रत्न स्थापना के लिए स्वस्तिक का आसन मिलेगा। यहां प्रत्येक स्वस्तिक के नीचे चावल का आसन बनाकर ताम्रपत्र स्वस्तिक स्थान करें और उस दिशा अनुसार उस ग्रह देवता के बीज मंत्र से अभिमंत्रित करके रत्न स्थापन करें खासकर सोम कृपा में (उत्तर) मोती, ईशान्य व पूर्व में स्फटिक और वरूण कप्पा में पन्ना इनका प्रमाण थोड़ा अधिक रखें, विशेष पन्ना के ऊपर मोरपंख तथा मोती के साथ थोड़ा समुद्री नमक जरूर रखें।
शंखनाद और बीजमंत्र के साथ रत्नदीप स्थापना विधि करें। उपरोक्त मानसारम् पद्धति में जो दर्शाया गया है, उसे हम प्राकृतिक भी समझ सकते हैं। जैसे लाल रंग आग्नेय का मूंगा अग्नितत्व जिसे आग्नेय में रखा जाये। नीलम जो यम भगवान का भी माना गया है। इसलिए दक्षिण में यम कप्पा नीलम के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
पुखराज नैर्ऋत्य में पीला रंग-पृथ्वी तत्व- हरा पन्ना पश्चिम के वरूण कप्पा नीलम के लिए सर्वश्रेष्ठ है। पुखराज नैर्ऋत्य में पीला रंग-पृथ्वी तत्व’ हरा पन्ना पश्चिम के वरूण कप्पा में जो माता लक्ष्मी का स्थान भी है। माता लक्ष्मी जी का अति प्रिय रत्न माना गया है गोमेद जो वायव्य में।
वायव्य काॅर्नर में जो है माता लक्ष्मी जी के वरूण और कुबेर जी के सोम कप्पा के बीच है तथा वरूण माता जी के वाहन गरूड़ का स्थान भी है। उत्तर दिशा के सोम कप्पा में मोती जो कुबेर जी का अतिप्रिय माना गया है तथा ईशान्य में स्फटिक लिंगम जो स्वयं ईश्वर है। वो ईश कप्पा तथा ब्रह्म मध्य भाग में माणिक सूर्य देवता का। नीचे दिये गये बीज मंत्र द्वारा नंदा प्रतिष्थापना और रत्नदीप स्थापना करें।
1. माणिक - ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः ।
2. स्फटिक - ऊँ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः ।
3. मूंगा - ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः।
4. नीलम- ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः।
5. पुखराज - ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः।
6. पन्ना - ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।
7. गोमेद - ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।
8. मोती - ऊँ श्रां श्रीं श्रौं सः सोमाय नमः।
9. स्फटिक लिंगम - ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम ऊर्वारूकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।
उपरोक्त पद्धति से नंदा प्रतिष्ठापना और रत्नदीप स्थापना से वास्तु का रक्षण इन रत्नों के तेजोवलय से लक्ष्मण रेखा की तरह होगा, और वास्तु में सकारात्मक ऊर्जा ज्यादा रहेगी। खासकर इसका परिणाम व्यावसायिक वास्तु में भी काफी अच्छा मिलता है। गृह वास्तु में व्यापार बहुत कम होता है इसलिए इसके परिणाम व्यावसायिक वास्तु में जल्दी समझ में आते हैं।
जिस दिशा में दोष होगा वहां रत्नों की मात्रा बढ़ा दें और एकाध रत्न जो हम अंगूठी में धारण करते हैं वैसे यानी थोड़ी अच्छी गुणवत्ता का रत्न निक्षेपण करें। विदिशा वास्तु के लिए भी स्वास्तिक यंत्र रखते समय प्रथम ब्रह्म और दूसरा पूर्व मध्य आग्नेय इसी तरह प्रदक्षिणा मार्ग से स्थापित करें। आड़े- टेढ़े या बिना आकार के वास्तु के लिए कोशिश करें कि चैकोर या आयताकार चैरसाकृति में ही रत्नदीप स्थापित करें जिससे कृत्रिम तरीके से वास्तु चैकोर हो जाती है और कटे या बढ़े हुए अधिक भाग के दुष्परिणाम अपने आप ही कम हो जाते हैं।
आकृति- अ- ईशान्य थोड़ा बढ़ा हुआ है आकृति - ब- नैर्ऋत्य बढ़ा हुआ है। जहां बढ़ा है वहां भी दोनों जगह-नैर्ऋत्य वाली सामग्री की ओर ईशान्य वाली सामग्री की स्थापना करें।
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