10 अप्रैल 1912 को दुनिया का सबसे बड़ा जहाज ‘‘द टाइटेनिक’’ साउथेम्पटन इंग्लैंड से न्यूयार्क शहर की ओर चल पड़ा। इसके बारे में ऐसा माना जाता था कि यह अब तक का सर्वाधिक सुरक्षित और विशालकाय जहाज था। यह इतना विशाल था कि इसके बारे में ऐसा माना जाता था कि यदि यह डूब जाए तो इसका एक हिस्सा समंदर के ऊपर ही रह जाएगा।
इस जहाज में खतरे की स्थिति में यात्रियों के लिए रक्षा नौकाएं थीं जिनमें इस जहाज में आने वाले यात्रियों की कुल संख्या के आधों को ही जगह मिल सकती थी। इस कमी पर अधिक ध्यान नहीं चांद ने डुबोया टाइटेनिक को यशकरन शर्मा, फ्यूचर पाॅइंट दिया गया क्योंकि सबका यह दृढ़ विश्वास था कि टाइटेनिक तो कभी डूब ही नहीं सकता। यात्रा शुरू होने के चार दिन बाद 14 अप्रैल को दिन में 11 बजकर 40 मिनट पर यह बर्फ की एक बहुत बड़ी चट्टान से टकरा गया। इस टकराव से टाइटेनिक में छेद हो गए और पानी शीघ्रता से इस जहाज में भरने लगा। जल्दी ही यह बात स्पष्ट हो गई की बहुत से लोगों को रक्षा नौकाओं में जगह नहीं मिल सकेगी। जब जहाज का अगला हिस्सा पानी में खूब गहरा डूब गया तो लोग पिछले भाग में जमा हो गए। विशाल जहाज टक्कर के 2 घंटा 40 मिनट पश्चात् पानी की सतह के नीचे चला गया।
अगली सुबह रक्षा नौकाओं में सुरक्षित बचे 705 लोगों को बचा लिया गया जबकि 1522 यात्री और जहाजकर्मी अपनी जान गंवा बैठे। 2012 में टाइटेनिक दुर्घटना की सौवीं वर्षगांठ पूर्ण होने के एक सप्ताह पूर्व वैज्ञानिकों ने इसके डूबने के कारण को पूर्णतया नवीन थ्यूरी के साथ प्रस्तुत कर उसका विश्लेषण किया। इस थ्यूरी के अनुसार सूर्य, पूर्णिमा के चांद और पृथ्वी की अतिदुर्लभ अलाइनमेंट के कारण यह हादसा हुआ। वैज्ञानिकों के अनुसार विशाल टाइटेनिक जिस बर्फीली चट्टान से टकराने के कारण डूबा वह इसके रास्ते में लगभग साढ़े तीन महीने पहले 4 जनवरी 1912 की इसी दुर्लभतम घटना ‘अल्ट्रारेयर अलाइनमेंट’ व सुपरमून के कारण आई। जिस प्रकार से पृथ्वी सूर्य के चारों ओर अंडाकार वृत्त में चक्कर लगाती है उसी प्रकार चंद्रमा भी पृथ्वी के चक्कर अंडाकार वृत्त में ही लगाता है। वह प्रति माह पृथ्वी के पास आ जाता है और फिर दूर भी चला जाता है।
लेकिन यही पास आने का काम यदि पूर्णिमा या अमावस्या के समय होता है तो उसे सुपरमून कहते हैं। इस समय वह और बड़ा दिखाई देता है। खगोल शास्त्र के अनुसार जब भी सूर्य, चंद्र और पृथ्वी एक रेखा में आ जाते हैं (जैसे पूर्णिमा या अमावस्या को) और चंद्रमा अपनी भू-समीपक (perigee) के 90 प्रतिशत के अंदर आ जाता है तो उसे सुपरमून कहते हैं। यह क्रिया लगभग 18 वर्ष पश्चात् पुनः होती है एवं लगभग दिसंबर-जनवरी माह में ही होती है क्योंकि इस समय सूर्य भी पृथ्वी के नजदीक होता है। सूर्य और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल चंद्रमा को पृथ्वी की ओर खींच लेते हैं और सुपरमून की स्थिति बन जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार 795 ई. के बाद 4 जनवरी 1912 को चांद पृथ्वी के सर्वाधिक निकट था। इस किस्म का पृथ्वी से निकटस्थ चांद 2257 ई. तक पुनः दृष्टिगोचर नहीं होगा। वर्ष 1912 के पूर्वार्द्ध के शुरूआती महीने बर्फीली चट्टानों के लिए खराब थे।
ओल्सन नामक वैज्ञानिक का मानना है कि बर्फ की चट्टानों में एकाएक अत्यधिक वृद्धि सुपरमून के कारण हुई क्योंकि इस प्रक्रिया में चांद अधिक बड़ा हो जाता है और इसके गुरुत्वाकर्षण बल में भी अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। यह तो सभी जानते हैं कि चंद्रमा के कारण ही समंदर में ज्वार भाटा उत्पन्न होता है। चांद की इस दुर्लभ स्थिति और अल्ट्रारेअर अलाइनमेंट के कारण पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण बल के बढ़ जाने से समुद्री ज्वार भाटे में अप्रत्याशित तेजी आ गई जिसके फलस्वरूप बर्फीली चट्टानों ने अपना मार्ग बदल लिया और वे दूसरी दिशाओं में जाने की बजाय टाइटेनिक की राह में आ गईं और विशाल टाइटेनिक इससे टकराकर क्षतिग्रस्त हो गया। इस प्रकार चांद ने विशालकाय टाइटेनिक को डूबो दिया।
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