एक बार की बात है। संगीतविशारद हाहा, हूहू और तुम्बरू नामक गन्धर्व पीतांबर धारण किये, गोपीचन्दन का तिलक लगाये, वीणापुर मधुर स्वरों में हरिगुण गाते कैलाश की यात्रा करते हुए महर्षि कश्यप के आश्रम पर पहुंचे। मुनि ने उनका स्वागत किया और उनसे भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। तीनों अतिथियों ने स्नान कर देवी पार्वती, शिव, विष्णु, विनायक और सूर्य की पूजा की और फिर अपने ईष्ट का ध्यान करने लगे। उसी समय महोत्कट बाहर से खेलकर आये।
उनकी दृष्टि पंचदेवों के विग्रह पर पड़ी तो उसने धीरे से उन्हें उठाकर फेंक दिया। नेत्र खुलने पर देवताओं की प्रतिमा न देख गन्धर्व व्याकुल हो गये। उन्होंने यह बात महर्षि कश्यप से कही। महर्षि कश्यप चकित और चिंतित थे। सम्मानित अतिथियों की देव-प्रतिमाएं ढूंढ़ने के लिये वे चारों ओर दौड़-धूप कर रहे थे। उन्हें अपने चंचल पुत्र महोत्कट पर संदेह हुआ।
उन्होंने हाथ में छड़ी लेकर क्रोध से कांपते हुए विनायक से पूछा - ‘अतिथियों की प्रतिमाएं क्या हुईं? ‘मैं तो बाहर बालकों के साथ खेल रहा था।’ भस्मलिप्तांग महोत्कटने भय की मुद्रा में उत्तर दिया। ‘तू शीघ्र ही मूर्ति ला दे, नहीं तो तुझे बुरी तरह पीटूंगा।’ कुपित कश्यपने पुनः कहा। ‘मैंने मूर्ति नहीं ली है।’ महोत्कट रोने लगा। रोते-रोते वह पृथ्वी पर लेट गया। माता अदिति भी वहां पहुंच गयीं।
‘यदि मैंने मूर्ति खा ली है तो मेरे मुंह में देख लो।’ महोत्कटने अपना मुखारविन्द खोल दिया। अत्यंत आश्चर्य ! माता अदिति मूचर््िछत हो गयीं। महर्षि कश्यप और हरिभक्तिपरायण गन्धर्वत्रय ने आश्चर्यचकित होकर देखा- बालक महोत्कट के छोटे से मुखाब्ज में कैलाश, शिव, बैकुण्ठ सहित विष्णु, सत्यलोक, अमरावती सहित सहस्राक्ष, पर्वतों, वनों, समुद्रों सरिताओं, यक्षों, पनगों एवं वृक्षों सहित संपूर्ण पृथ्वी, चैदह भुवन, समस्त लोकपाल, पाताल, दसों दिशाएं तथा अद्भुत सृष्टि दीख रही थी।
सचेत होने पर माता अदिति ने तुरंत बालक महोत्कट को अंक में उठा लिया और उसे स्तनपान कराने लगीं। महर्षि कश्यपने मन-ही-मन कहा- ‘अरे ! यह तो अखिलेश्वर प्रभु ने ही मेरे पुत्ररूप में जन्म लिया है। मैंने इन्हें दंड देने का विचार कर बड़ी भूल की।’ ‘मैं तो इस बालक को दंड दे नहीं सकता। अब आप लोग जैसा उचित समझें, वैसा करें।’ कश्यप ने गंधर्वों से स्पष्ट कह दिया। ‘देव-प्रतिमाओं के मिले बिना हमलोग आपका अन्न, फल और कंद-मूल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे।’ अत्यंत दुखी होकर गंधर्वों ने महर्षि कश्यप से इतना कहा ही था कि उन्होंने महोत्कट के स्थान पर देवी पार्वती, शिव, विष्णु, विनायक और सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन किया।
वही बालक क्षण-क्षण में पंचदेव के रूप में दीख रहा था। फिर तो हाहा, हूहू और तुम्बुरु ने महोत्कट के चरणों में प्रणाम किया और वे महर्षि कश्यप-प्रदत्त अन्नादि को प्रेमपूर्वक ग्रहण करने लगे। उस समय उन्होंने महोत्कट में अनेक रूपों के दर्शन किये। वह एक क्षण महोत्कट एवं दूसरे ही क्षण पंचदेवों के रूप में दीखने लगता। क्षण में अत्यंत भयानक दीखता तो दूसरे क्षण विश्वरूप में उसका दर्शन होता।
इस प्रकार परमप्रभु के अचिन्त्य, अकथनीय स्वरूपों का दर्शन कर गन्धर्वों ने अपना जीवन-जन्म एवं कश्यपाश्रम में आगमन सफल समझा। गन्धर्वों को महोत्कट विनायक के तत्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने परमप्रभु विनायक की श्रद्धा-भक्तिपूर्ण हृदय से स्तुति की और बार-बार उनके चरणों में प्रणाम कर उनका स्मरण करते हुए कैलाश के लिये प्रस्थान किया।