तनाव व रोगों से बचने का सशक्त उपाय है मंत्र आचार्य हरिओम शास्त्री मंत्र ब्रह्ममय होने के कारण मंत्रशक्ति का मूल्यांकन आज तक कोई नहीं कर सका है इसमें साधक की इच्छा शक्ति काम करती है...
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने अधीन किये हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई रागद्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
अंतः करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है आजकल प्रायः देखा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति तनाव से ग्रस्त रहता है, क्यों? और उसके कारण क्या हैं?
वस्तुतः वर्तमान में व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताएं इतनी बढ़ गई हैं, कि उनकी पूर्ति होना संभव नहीं हो पाने की स्थिति में वह तनावग्रस्त रहने लगता है।
दूसरा कारण है प्रदूषित वातावरण जिससे व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, इसलिए स्वास्थ्य को लेकर, धन को लेकर, नौकरी, पद, प्रतिष्ठा, भूमि, भवन को लेकर तनावग्रस्त रहने लगता है।
तीसरा कारण भगवान श्रीकृष्ण गीता के द्वितीय अध्याय के श्लोक 62-63 वे में कहते हैं कि किसी भी विषय का निरंतर चिंतन करने से उसमें आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से व्यक्ति की चेष्टाएं उसको पाने की होती है और जब कामना पूर्ति नहीं हो पाती, तब क्रोध की उत्पŸिा होती है, क्रोध से व्यक्ति पहले मूढ़भाव और स्मृति-भ्रम की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। स्मृति-भ्रम हो जाने से बुद्धि यानी ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने से पुरुष गिर जाता है।
यथा- ध्यायतो विषयान्पुंसः, संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायतेकामः, कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62।। क्रोधाद् भवतिसंमोहः , संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृति भं्रशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।
जब बुद्धि का नाश हो जाता है तो व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त तथा तनावग्रस्त रहने लगता है। चैथा कारण हम देखते हैं कि व्यक्ति हमेशा भूत के चिंतन तथा भविष्य की चिंता के कारण भी तनावग्रस्त रहता है। रोग व तनाव से बचने के उपाय इस तनाव से दूर रहने के लिए यदि व्यक्ति वर्तमान परिस्थिति में जीते हुए अपने को व्यस्त कर दे तो निश्चित ही शक्ति-संपन्न तथा तनावों से मुक्त रहता है।
इस संबंध में गीता में भगवान कहते हैं कि अपने अधीन किये हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई रागद्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचिŸा वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है
यथा- रागद्वेषवियुक्तैस्तु, विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादेसर्वदुःखानां, हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसोह्याशु, बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
जब बुद्धि स्थिर हो जाती है तब सारे तनाव दूर हो जाते हैं। व्यक्ति जब भजन-कीर्तन करता है तब दोनों हाथों से तालियां बजाता है जिसके कारण एक्यूप्रेशर स्वतः हो जाता है और व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है, तनावों से मुक्ति मिल जाती है। हम देखते हैं कि जब व्यक्ति सत्संग में जाता है तब बहुत चिंताओं से ग्रस्त होकर जाता है लेकिन जब वह सत्संग में पहुंचता है तो सारी चिंताएं समाप्त होकर सत्संग में तल्लीन हो जाता है और मानसिक तनावों का अभाव देखने में आता है।
ज्योतिष के अनुसार देखें तो मन, वाणी व माता का कारक चंद्रमा है। जब चंद्रमा की स्थिति ठीक न हो, यानी नीच राशिगत, शत्रु राशिगत व पापाक्रांत होकर बैठा हो तो ऐसे व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रस्त तथा मानसिक रोगी होते हैं, तो इसमें चंद्रमा के वैदिक मंत्र, बीज मंत्र या तांत्रिक मंत्र का जप करने से अथवा श्वेत वस्तुओं का दान करने से, मिठास भरी वाणी बोलने से, माता-पिता की सेवा करने से भी तनाव या मनोरोग में लाभ मिलता है।
तनाव व रोगों के शमन में मंत्रों का बड़ा योगदान है। तनाव एवं रोगों से मुक्ति पाने तथा जीवन को शक्ति संपन्न बनाने के लिए मंत्र-साधना सर्वश्रेष्ठ है, इतना ही नहीं मानव जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं मंत्र। मंत्र का अर्थ ही यह होता है कि जिसका मनन करने मात्र से हमारी रक्षा हो जाये, उसको कहते हैं मंत्र। यथा- ‘‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’’ ध्वनि तरंगों के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण मंत्रों मंे अलग-अलग ध्वनियां होती हैं, वैज्ञानिकों ने तरंगों पर कई परीक्षण किये हैं। उन्होंने देखा कि चिकित्सा के क्षेत्र में ऊंची फ्रीक्वेंसी वाली ध्वनि का प्रयोग मांसपेशियों व मानसिक तनाव की पीड़ा के उपचार में बहुत उपयोगी है।
एक ऐसे उपकरण की सहायता से जिससे प्रति सैकेण्ड लगभग 10 लाख चक्रों की रफ्तार से ध्वनि तरंगें निःसृत होती हैं डाॅक्टर मानव शरीर के रुग्ण भाग में ध्वनि धारायें भेजते हैं, ताकि उसमें ताप उत्पन्न हो। यह ताप आरोग्यकारी होता है, किंतु शब्द-ध्वनि का सबसे क्रांतिकारी प्रयोग मानसिक रोगियों की चिकित्सा में किया जाता है।
प्रथम उदाहरण ‘‘यूट’’: कालेज आॅफ मेडीसन के डाॅ. पैटर लिडस्ट्राय ने गंभीर रोग वाले 192 मानसिक रोगियों के मस्तिष्क में अतिस्वन ध्वनि धारायें पहुंचाईं। इनमें से 132 स्नायु रोगियों में तथा 60 विक्षिप्त में कोई भी काम नहीं कर पाते थे, उन्हें असाध्य रोगी समझा जाता था। बिजली मनोविज्ञान या औषधि की चिकित्सा पद्धतियों से उन्हें लाभ नहीं हुआ था किंतु अतिस्वन (ध्वनि धारा) चिकित्सा से 31 विक्षिप्त और 107 स्नायु रोगियों की स्थिति में इतना सुधार हुआ कि वे फिर से रोजगार करने लायक हो गये।
द्वितीय उदाहरण डाॅ. क्रिस्टलव ने ‘‘आल्ट्रा सोनोटेनर’’ नाम के यंत्र का आविष्कार किया है जिसमें दो रासायनिक द्रव्यों को मिलाने में सफलता प्राप्त की है। इससे ध्वनि कंपन इतनी तीव्रता से उत्पन्न होते हैं कि बर्तन में भरे जल का मंथन होने लगता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि भविष्य में किसी भाग के किसी भी प्राकृतिक परमाणु की पथ-गणना संभव हो जायेगी। यदि यह संभव हो सकता है तो मंत्र उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि कंपनों से रोग निवारण, विष उतरना, उन्माद दूर करना व मानसिक रोग ठीक हो जाना जैसे प्राचीन उदाहरण भी सत्य माने जाने चाहिए।
बहुत सारे वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है कि ध्वनि तरंगों से असाध्य रोगों से ग्रसित व्यक्ति को भी स्वास्थ्य लाभ कराया जा सकता है। परीक्षण के बाद वैज्ञानिकों का यह निश्चित मत है कि बाह्य कर्ण यंत्रों से 20 से लेकर 2000 तक कंपन वाली ध्वनि को सुना जा सकता है। इससे कम तथा अधिक ध्वनि-कंपनों को सुनना संभव नहीं है। परंतु जिस तरह बादलों की गरज में परमाणुओं को कंपाने की शक्ति होती है, उसी तरह ध्वनि-कंपनों में इतनी शक्ति निहित रहती है कि वह जिस क्षेत्र से भी जाती है, तीव्र परिवर्तन कर सकती है। यह परिवर्तन ही शक्ति का दूसरा नाम है।
मंत्र-विज्ञान में यही पद्धति काम करती है, मंत्र उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि शब्द को विद्युत चुंबकीय शक्ति में परिवर्तित कर देती है। दवाओं से रोग जड़ से खत्म नहीं होता है, लेकिन मंत्र की ध्वनि रोग की जड़ तक पहुंचकर रोग को समूल समाप्त कर देती है। इसमें साधक की इच्छा-शक्ति भी काम करती है, जिससे अनेकों असंभव कार्य संभव हो जाते हैं। जप, ध्यान और नाद (शब्द-कंपन) मंत्र-साधना का मिला जुला रूप है।
गीता में भगवान् कहते हैं कि प्रत्येक मंत्र में प्रणव मैं ही हूं इसलिए मंत्र का महत्त्व बहुत अधिक हो गया है। स्मृतियों में आया है कि शब्द ही ब्रह्म है, यथा- ‘‘शब्दों वै ब्रह्म’’ और श्रीमद् भागवत महापुराण में तो श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने लिखा है कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी मन का बड़ा महत्व है। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण होता है। यथा- ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः’’ हिंदी के कवियों ने भी कहा, व्यक्ति मन से हार गया तो उसको कोई सफलता नहीं दिला सकता और मन से जीत गया तो कोई हरा नहीं सकता।
यह मन से पैदा की हुई सारी परिस्थितियों के कारण ही व्यक्ति परेशान होता है और सुखी भी होता है और मन ही ईश्वर से मिला देता है जैसे-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन ही मिलावत राम से, मन ही करत फजीत।। और मन को सशक्त करता है मंत्र। मंत्र ब्रह्ममय होने के कारण मंत्र शक्ति का मूल्यांकन आज तक कोई नहीं कर सका है।
इसमें साधक की इच्छा-शक्ति काम करती है। मंत्र-शक्ति का कैसे होता है प्रभाव जैसे हमने सूर्य मंत्र का उच्चारण किया तो जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे तीव्र गति से ऊपर की ओर जाती हैं और सूर्य के अंतराल से टकराकर वापिस आती हैं, तो अपने साथ सूर्य की सूक्ष्म शक्तियों सहित, गर्मी, प्रकाश, विद्युत को समेटे रहती हैं और साधक के शरीर मंे प्रवेश करके तेज, ओज व आरोग्य प्रदान करती हैं।
उसमंे एकाग्रता जितनी बढ़ती है उतनी ही आकर्षण-शक्ति असंभव कार्यों को संभव करती चली जाती है और इस तरह हम मंत्र शक्ति से लाभान्वित होते रहते हैं। मंत्र साधना के नियम मंत्र साधना से यदि लाभ प्राप्त करना हो तो निम्नलिखित नियमों का पालन करते हुए साधना करंे तो निश्चित लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
मंत्र-साधना करने से पहले स्नान आदि करके बाह्य शुद्धि कर लें। कपड़े धुले हुए, साफ स्वच्छ तथा आरामदायक होने चाहिए। जिस स्थान पर साधना करें वह स्थान शुद्ध व सात्विक तथा वहां का वातावरण ठीक होना चाहिए। जब मंत्र साधना करें तो किसी आसन पर बैठकर करें।
मंत्र साधना यदि किसी विशेष प्रयोजन से कर रहे हैं तो सत्य बोलें, मधुर बोलें, क्रोध न करें, ब्रह्मचर्य से रहें और तामसी वृŸिायों का परित्याग करके ही साधना में संलग्न हों। व्यक्ति का खान पान शुद्ध, सात्विक तथा दोषों से रहित होना चाहिए। मंत्र का जप माला से करना चाहिए।
माला रुद्राक्ष या तुलसी की प्रशस्त मानी गई है। मंत्र साधना को वैसे तो किसी भी समय कर सकते हैं लेकिन प्रातःकाल का समय सर्वोŸाम माना गया है। यदि किसी विशेष प्रयोजन से साधना की जा रही है तो साधना नियमित और निश्चित समय पर करनी चाहिए। प्रतिदिन 1, 3, 5, 7, 9, 11 माला आदि विषम संख्या में जप कर सकते हैं।
पूर्व या उŸार दिशा की और मुंह करके ही जप करें। यदि आप अकेले में बैठे हो, तो माला सामने करके, लेकिन जहां पर आपके अलावा भी कोई और है तो गौमुखी से ही, जप करें और माला के सुमेरु का उल्लंघन कदापि न करें। जप ऐसा करें कि आपकी जिव्हा हिले लेकिन ओष्ठ नहीं हिले या फिर मानसिक जप करें। यदि सफर में या रुग्ण स्थिति में जप करना हो तो चलते, फिरते या लेटे हुए भी मानसिक जप करें।
ध्यान दें कि जप, पूजन, पाठ, भजन, कीर्तन में जितनी एकाग्रता होगी, उतनी ही सफलता प्राप्त होगी। संस्कृत भाषा के मंत्रों में महामृत्युंजय मंत्र का नाम सबसे प्रथम आता है क्योंकि जैसा नाम है, वैसा ही काम है, जो मृत्यु पर जय प्राप्त कराता है। यह मंत्र महामृत्युंजय की प्रतिमा के समक्ष रुद्राक्ष की माला से करने पर बहुत लाभ देता है। मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा व विश्वास रखना चाहिए। विशेष साबर मंत्रों को छोड़कर कोई भी मंत्र हो तो उसका अर्थ भी जान लेना आवश्यक है।
यद्यपि प्रत्येक शब्द अर्थ की शक्ति रखता है और उसे जाने बिना भी उसका प्रभाव होता है, तथापि मंत्र के अर्थ को भी जान लिया जाये तो मंत्र का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है और लक्ष्य की प्राप्ति सहज हो जाती है। जहां तक महामृत्युंजय मंत्र का प्रश्न है, तो यह केवल रोगादि के उपचार के लिए ही नहीं है, यह जीवन की प्रत्येक मृत्युवत् कठिन परिस्थितियों से बाहर लाने का सहज और परिपूर्ण साधन है। लेकिन इसकी साधना में इस मंत्र से जुड़े सभी विधिनिषेधों का शत प्रतिशत पालन करने से लक्ष्य की सिद्धि भी शतप्रतिशत होती है। कर्मकाण्डनिष्णात पण्डित के माध्यम से किया गया मंत्र का जप चमत्कारिक परिणाम देता है।