पृथ्वी के सर्वाधिक निकटस्थ होने तथा मन का कारक होने के कारण चन्द्रमा को ज्योतिष-मर्मज्ञों ने अत्यन्त महत्त्व दिया है। सरस, सफल, सार्थक, उत्तरदायी और सन्तुष्ट दाम्पत्य के यापन हेतु पति-पत्नी में पारस्परिक, मानसिक, सामंजस्य अपेक्षित है। वैचारिक साम्य असन्तोषप्रद वैवाहिक स्थितियों का परिषमन करता है। आज की परमुखापेक्षी परिस्थितियों में जब सम्बन्धों में औपचारिकता का अतिषय सम्मिश्रण हो गया है तब इस मानसिक मधुरता की आवष्यकता अत्यधिक है। चन्द्रमा की स्थिति भिन्न नक्षत्रों पर भिन्न प्रभाव डालती है; अतः ‘जन्म-नक्षत्र-मेलापक’ जन्मांग मेलापक में अनिवार्य अंग है।“
1 जन्माङ्ग-मेलापक में ‘नक्षत्र-मेलापक’ का स्थानानुसार गणना में भेद है - ‘विन्ध्य के उत्तर में वर्ण, वष्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट (राषि) और नाड़ी ये आठ भेद मुख्यतः देखे जाते हैं।’
2 ”कहीं-कहीं वर्ण, वष्य, तारा, नृदूर, योनि, ग्रह-मैत्री, गण-मैत्री, भकूट और नाड़ी - यह नवविध मेलापक देखा जाता है। इसमें 45 गुण होते हैं। इन्हीं में वर्ग मिलाकर दष भेद का भी मेलापक कहीं देखा जाता है, उस अवस्था में 55 गुण होते हैं।“
3 ”कहीं ब्राह्मण के लिए दष भेद का, क्षत्रिय के लिए आठ भेद का, वैष्य के लिए छः भेद का तथा शूद्र के लिए चार भेद का ही मेलापक लिखा गया है।“
4 गौतम ऋषि के अनुसार, ”वर्ण, वष्य, तारा, नृदूर, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, वर्ग, भकूट और नाड़ी में दष भेद ब्राह्मण के लिए, इनमें नृदूर और वर्ग को छोड़ देने से आठ भेद क्षत्रियों के लिए, वर्ण और वष्य छोड़ देने से छः भेद वैश्य के लिए तथा योनि, ग्रह-मैत्री, गण-मैत्री और भकूट ये चार भेद शूद्र के लिए हैं।“
5 एक मत के अनुसार ”ब्राह्मण के लिए नाड़ी और ग्रह-मैत्री, क्षत्रिय के लिए वर्ण और गण, वैष्य के लिए तारा और भकूट तथा शूद्र के लिए नृदूर और वर्ग का विचार करना चाहिए।“
6 ”दक्षिण देष में दूसरे प्रकार के दषविध मेलापक देखे जाते हैं। इनका नाम इस प्रकार है - दिन, गण, माहेन्द्र, स्त्री-दीर्घ, योनि, भकूट, ग्रह-मैत्री, वष्य, रज्जु और वेध।“
7 ”गर्ग ऋषि ने अठारह प्रकार का मेलापक बतलाया है जो इस प्रकार है - 1. माहेन्द्र, 2. गण, 3. दिन, 4. योनि, 5. स्त्री-दीर्घ, 6. रज्जु, 7. वष्य, 8. वर्ण, 9. भकूट, 10. ग्रह-मैत्री, 11. वेध, 12. नाड़ी, 13. भूतलिंग, 14. वर्ग, 15. जातिकूट, 16. पक्षीकूट, 17. योगिनी, 18. गोत्रकूट।“
8 जातकादेष मार्ग (चन्द्रिका) दक्षिण भारतीय ग्रन्थ ने भी ”प्रधान रूप से वर और कन्या की जन्मकुण्डलियाँ मिलाने में आठ बातों का विचार किया है - 1. राषि, 2. राषीष या राषि स्वामी, 3. वष्य, 4. माहेन्द्र, 5. गण, 6. योनि, 7. दिन और 8. स्त्री दीर्घ।“
9 जन्म कुण्डली मेलापक के लिए इन्होंने ‘आनुकूल्य प्रकरण’ में आनुकूल्य का अर्थ अनुकूलता- ”पति-पत्नी एक दूसरे के अनुकूल हों - प्रतिक ूल न हों - एक द ूसरे को स्वास्थ्य, जीवन (दीर्घायु), सन्तान, स्वभाव, धन, धर्म, समृद्धि की दृष्टि से माफ़िक हों। दोनों विवाह जनित सुखोपलब्धि करें।“
10 ”नर्मदा से उत्तर के प्रदेषों में प्रायः बंगाल से पंजाब तथा गुजरात तक 8 प्रकार का नक्षत्र मेलापक सर्व जाति के लिए व्यवहार में प्रसिद्ध है और यही शास्त्र सम्मत है।“
11 अष्टविध मेलापक विचार वर्ण - ”वर और कन्या के जन्म नक्षत्र से उनकी राषि का निष्चय किया जाता हैं जिनका जन्म कर्क, वृष्चिक और मीन राषि में हो उसका वर्ण ब्राह्मण होता है। जिसका जन्म मेष, सिंह या धनु राषि में हो तो क्षत्रिय वर्ण का होता है। जिसका जन्म मिथुन, तुला या कुम्भ राषि में हो वह शूद्र वर्ण कहलाता है। वृष, कन्या और मकर राषि का वर्ण वैष्य है। यदि कन्या के वर्ण से वर का वर्ण उच्च हो तो 1 गुण मिलता है। वर एवं कन्या का वर्ण समान होने पर कुछ विद्वान 1/2 गुण तथा अधिकांष विद्वान 1 गुण मानते हैं। यदि वर के वर्ण से कन्या का वर्ण उच्च हो तो गुण शून्य मिलता है।“
12 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार ”वर्ण कार्य क्षमता का द्योतक है। कन्या की कार्य क्षमता से वर की कार्य क्षमता अधिक या समान होना परिवार की गाड़ी चलाने के लिए आवष्यक होता है।“
13 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार ”ब्राह्मण वर्ण की कार्य क्षमता है कि वह निष्काम भाव से फल की चिन्ता किए बिना परोपकारी भाव से कर्म करता है। क्षत्रिय वर्ण की प्रभावोत्पादन की भावना से कार्य करने की प्रवृत्ति, वैष्य वर्ण की अर्थोत्पादन की भावना से तथा शूद्र वर्ण की लगातार दबाव में कार्य करने की प्रवृत्ति होती है।“
14 वष्य विचार मृदुला त्रिवेदी के अनुसार ”जन्मांगों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर-वधू में पारस्परिक आकर्षण की सघनता कितनी है। मेष राषि सिंह और वृष्चिक को, वृष राषि कर्क और तुला को, मिथुन राषि कन्या को, तुला राषि मकर और कन्या को, वृष्चिक राषि कर्क को, धनु राषि मीन को, मकर राषि मेष को और कुम्भ को, कुम्भ राषि मेष को मीन राषि मकर को आकर्षित करती है।“
15 परन्तु शुकदेव चतुर्वेदी वष्य को इस प्रकार स्वीकारते हैं। ”वष्य पाँच प्रकार के होते हैं - 1. चतुष्पद, 2. मानव (द्विपद), 3. जलचर, 4. वनचर, 5. कीट। ये राषि की आकृति के अनुसार है जैसे मेष, वृष, सिंह व धनु का उत्तरार्द्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पद संज्ञक होते हैं। इनमें से सिंह राषि चतुष्पद होते हुए भी वनचर मानी गई है। मकर का उत्तरार्द्ध मीन तथा कर्क राषि जलचर होती है। इनमें से कर्क जलचर होते हुए भी कीट मानी गई है। मिथुन, कन्या, तुला, धनु का पूर्वार्द्ध तथा कुम्भ राषि द्विपद या मानव संज्ञक मानी गई है। इस प्रकार वर और कन्या के वष्य का निर्धारण उनकी राषि से कर लेना चाहिए।“
16 उक्त पाँचों वष्य अपने स्वभाव एवं व्यवहार के कारण चार वर्गों में विभक्त किए गये हैं- 1. वष्य, 2. मित्र (सख्य), 3. शत्रु (वैरी), 4. भक्ष्य। जैसे वृष्चिक को छोड़ कर सभी राषियां सिंह के वष में रहने के कारण इसकी वष्य मानी गई हैं। चूँकि वृष्चिक (बिच्छू) सिंह के वष में नहीं रहता सिंह को छोड़कर अन्य चतुष्पद मानव के वष्य हैं, किन्तु जलचर उसके भक्ष्य हैं। प्रत्येक वष्य की अपने वर्ग से मित्रता तथा घातक वर्ग से शत्रुता होती है।“
17 ”वर एवं कन्या की राषियों से उनके वष्य का निष्चय करके फिर उनके स्वभाव के अनुसार उनमें वष्यभाव, मित्रभाव, शत्रुभाव या भक्ष्य भाव पर ध्यान देना चाहिए। यदि इन दोनों के वष्यों में मित्रता हो तो 2 गुण, यदि एक वष्यभाव एवं दूसरा शत्रुभाव रखता हो तो 1 गुण, यदि एक वष्य भाव और दूसरा भक्ष्य भाव रखता हो तो आधा गुण तथा दोनों परस्पर शत्रु भाव या भक्ष्य भाव रखते हों तो कोई गुण नहीं मिलता।“
18 तारा - ”तारा नौ प्रकार की होती है। तारा की शुभाषुभत्व को जानने के लिए वर के जन्म नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक तथा कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक गिनना चाहिए। प्राप्त संख्या को नौ से भाग दें। जो शेष बचे उस शेष से तारा की संख्या का बोध होता है। इस प्रकार दोनों की तारा का निर्धारण कर लेना चाहिए। तारा संख्या 3 है तो ‘विपत्’, 5 है तो ‘प्रत्यरि’ और 7 है तो ‘वध’ तारा है, जो नामार्थ के समान अषुभ है तथा शेष संख्या 1 है तो जन्म, 2 है तो सम्पत्, 4 है तो क्षेम, 6 है तो साधक, 8 है तो मित्र तथा 9 है तो अतिमित्र होता है जो शुभ है।“
19 ”कुण्डली मिलान में तारा कूट के हमारे ऋषियों ने तीन अंक दिए हैं। दोनों तारा शुभ होने पर 3, एक शुभ व द ूसरा अषुभ होने पर 1) तथा दोनों अषुभ होने पर शून्य अंक प्राप्त होता है।“
20 योनि ”योनि मेलापक का विचार न केवल वर-वधू के मेलापक में ही विचारणीय होता है, अपितु यह साझेदारी, मालिक, नौकर एवं राजा तथा मन्त्री के परस्पर मेलापक में भी विचारणीय माना गया है।“
21 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार - ”योनि जातक की मनोवृत्ति को प्रकट करता है। योनियाँ 14 होती हैं, जिनके नाम हैं - 1. अष्व, 2. गज, 3. मेष, 4. सर्प, 5. ष्वान, 6. मार्जार, 7. मूषक, 8. गौ, 9. महिष, 10. व्याघ्र, 11. मृग, 12. वानर, 13. नकुल एवं 14. सिंह। योनि विचार में नक्षत्रों की संख्या 28 स्वीकार की गई है।“
22 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार - ”सभी योनियों की एक मनोवृत्ति होती है। जैसे अष्व चुस्ती, स्फूर्ति, गज में लापरवाही, मेष सीधे-सीधे अनुकरण करना, ष्वान अनुकरणीय तथा वफादारी, मार्जार एकाकी तथा आक्रामक, मूषक दब्बू, गौ दयालु तथा परोपकारी, महिष आराम प्रिय तथा सुस्त, व्याघ्र क्रोधी, मृग उन्मुक्त, वानर चालाक तथा सिंह में पराक्रमी की मनोवृत्ति होती है। सर्प की मनोवृत्ति असहिष्णुता तथा नकुल की मनोवृत्ति व्यावहारिकता होती है।“
23 ”योनि विचार में समान योनि शुभ मानी गई है। मित्र योनि एवं भिन्न योनि ग्राह्य होती है; किन्तु वैर (षत्रु) सर्वथा वर्जित होती है। योनि विचार में पूर्ण शुभता के 4 अ ंक, मित्र योनि के 3 अ ंक, सम योनि के 2 अंक, मित्र योनि का 1 अ ंक तथा शत्रु योनि के शून्य अंक माने जाते हैं। योनियों की शत्रुता पति-पत्नी, साझेदार एवं नौकर-मालिक की मनोवृत्ति तथा उनके जीवन में स्वाभाविक अन्तर की द्योतक होती है। सम योनि के लोगों की मनोवृत्ति, रूचि एवं जीवन के मूल्य समान होते हैं, तथा ऐसे लोगों में मित्रता एवं सहज प्रेम भाव दिखलाई देता है।“
24 ग्रह मैत्री ”मेलापक में ग्रहमैत्री का काफी महत्त्व है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस राषि में होता है, वह राषि तथा उसका स्वामी ग्रह, ये दोनों व्यक्ति के सहज सवभाव के द्योतक हैं। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है इसलिए जन्म राषि का स्वामी ग्रह व्यक्ति के मानसिक या स्वभावगत विष्लेषण के लिए सबसे अच्छा उपकरण माना गया है।“
25 ”इसमें वर-कन्या की जन्म राषि के अधिपतियों की नैसर्गिक मैत्री पर विचार होता है। इनमें सामंजस्य होने पर दाम्पत्य जीवन सुखमय व्यतीत होता है, यदि वर-वधू के जन्म राषि अधिपतियों में कटुता-षत्रुता हो तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टों का भण्डार बन जाता है। उनमें वैचारिक मतभेद, क्लेष और द्वेष बना रहता है।“
26 ”वर एवं कन्या की राषि के स्वामी परस्पर जो सम्बन्ध बनाते हैं, उनको सात वर्गाें में रखा गया है - 1. परस्पर मित्र, 2. एक सम दूसरा मित्र, 3. एक मित्र दूसरा शत्रु, 4. परस्पर सम, 5. एक सम दूसरा शत्रु, 6. परस्पर शत्रु तथा 7. दोनों का एकाधिपति होना।“
27 ”परस्पर मित्र या दोनों का एकाधिपति के गुणांक 5, एक सम दूसरा मित्र के गुणांक 4, एक मित्र दूसरा शत्रु का गुणांक 1, परस्पर सम के गुणांक 3, एक सम दूसरा शत्रु का गुणांक 1/2 तथा दोनों शत्रुओं का गुणांक शून्य होता है।“
28 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार - ”दो सच्चे मित्र दैनन्दिन जीवन में लेन-देन, तात्कालिक मतभेद, शूद्र व्यवहार या अन्य छोटी-मोटी बातों पर ध्यान नहीं देते और अपनी मित्रता को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। ठीक उसी प्रकार मेलापक में राषीषों की मित्रता होने पर गण दोष, भकूट दोष एवं अन्यान्य छोटे-मोटे दोष दम्पत्ति के सम्बन्धों को दूषित नहीं कर पाते अपितु उनमें सहज स्नेह या प्रेम भाव बना रहता है। गण दोष एवं भकूट दोष का एक मात्र परिहार ग्रह मैत्री ही है इसलिए मेलापक में ज्योतिष शास्त्र के आचार्यों ने ग्रह मैत्री अर्थात् राषीषों की मित्रता को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।“
29 गण कूट ”समस्त नक्षत्र देव, मनुष्य तथा राक्षस तीन गणों में विभक्त हैं। इससे जातक के स्वभाव की अभिव्यक्ति होती है। देव गण के नक्षत्र में उत्पन्न जातक उदात्त, मनुष्य गण के नक्षत्र में उत्पन्न जातक परिश्रमी, मेधावी, महत्त्वाकांक्षी, व्यवहार कुषल, राक्षस गण में उत्पन्न जातक क्रूर-दुष्ट होता है। अतः विपरीत गणों के जातकों में दाम्पत्य बन्धन होने पर जीवन में पग-पग पर प्रतिरोध प्रकट होता है समान गणों में अथवा मनुष्य और देव गण में विवाह उत्तम है, किन्तु राक्षस गण का विवाह राक्षस गण में होना चाहिए।“
30 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी अलग-अलग गणों में उत्पन्न जातकों के गुण भी अलग-अलग होते हैं ऐसा स्वीकार करते हैं। जातक की गण के अनुसार उनकी प्रकृति बनती है, यह प्रकृति अपरिवर्तनीय है (मूलक प्रकृति अभिकृति)। उनके अनुसार - ”देव गण में उत्पन्न व्यक्ति स्वभावतः सात्त्विक होता है।
उसमें भावुकता, उदारता, सहनषीलता, उदात्त भाव, प्रेम, उपकार, दया, तितिक्षा, धैर्य, आत्मविष्वास, बन्धुत्व एवं लोकप्रियता पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। मनुष्य गण में उत्पन्न व्यक्ति चतुर, चैतन्य, दूरदर्षी, स्वाभिमानी, साहसी, अपने हित का चिन्तक तथा अपने हित की रक्षा करने वाला, सौन्दर्य प्रेमी, व्यवहार-कुषल, सामाजिक कार्य-कत्र्ता, प्रभावषाली, प्रतिष्ठा एवं यष चाहने वाला तथा स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढालने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति भोगोपभोग, प्रभाव एवं प्रतिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्व देना है। राक्षस गण में उत्पन्न जातक साहसी, क्रोधी, स्वार्थी, धूर्त, चालाक, लोगों पर रूआब जमाने वाला, जिद्दी, लापरवाह, क्षणिकमति, बलवान, अभिमानी, कठोर एवं दृढ़ भाषी, परनिन्दक, आत्मष्लाघी एवं अपनी इच्छा या अपने हित के लिए किसी को भी हानि पहुँचाने वाला होता है। वह स्वभावतः उग्र, दृढ़ निष्चयी एवं एकाधिकार में विष्वास रखने वाला होता है।“31 वर एवं कन्या का गण एक ही हो तो उन दोनों के स्वभाव में समानता होने के कारण उन दोनों में अत्यन्त प्रेम रहता है।
यदि उन दोनों में से एक का गण मनुष्य तथा दूसरे का देव हो तो उनमें प्रेम मध्यम दर्जे का रहता है। इस स्थिति में वे स्वयं को आपस में व्यवस्थित करके बगैर किसी विरोध या मतभेद के साथ-साथ रहते हैं। किन्तु देव गण एवं राक्षस गण में उत्पन्न वर-वधू में प्रेम का अभाव तथा स्वाभाविक मतभेद रहने की सम्भावना बतलायी गई है। तात्पर्य यह है कि जिन युगलों में एक का गण देव और दूसरे का राक्षस अथवा एक का मनुष्य गण तथा दूसरे का राक्षस गण हो तो स्वभाव, रूचि एवं जीवन के मूल्यों में आधारभूत मतभेद होने के कारण उन लोगों में प्रायः विरोध, कलह एवं विवाद होता रहता है। अतः इस स्थिति में विवाह करना वर्जित माना गया है।“32 डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार ”यदि वर एवं कन्या के राषीषों (राषि स्वामियों) में नैसर्गिक मित्रता हो अथवा उन दोनों की राषियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो गण दोष अपना दूषित प्रभाव नहीं डाल पाता। कारण यह है कि प्रकृति, मनोवृत्ति एवं रूचि में समानता का विचार राषीषों की मित्रता से किया जाता है।“
33 भकूट ”भकूट को नक्षत्र मिलान में 7 अ ंक प्रदान किए गए हैं। इससे वर कन्या की जन्म राषियों की पारस्परिक स्थिति पर आलोक पड़ता है। वर-कन्या की जन्म राषियों को परस्पर द्वितीय-द्वादष, षष्ठ-अष्टम्, पंचम-नवम् नहीं होना चाहिए। परस्पर तृतीय-एकादष, चतुर्थ-दशम, सप्तम-सप्तम तथा एक भावस्थ होने पर परिणय उत्तम होता है। जन्म राषियों की षडाष्टक स्थिति (6/8) सर्वाधिक निकृष्ट होती है। इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य और आयुष्य से है। द्वितीय द्वादषस्थ राषियाँ जर्जर आर्थिक स्थिति को संकेतित करती हंै। पंचम नवमस्थ राषियाँ अल्प संतति सुख व क्षीण मानसिक तारतम्य प्रकट करती हैं।“
34 डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार - ”नक्षत्र मेलापक में द्विद्र्वादष, नवम-पंचम एवं षडाष्टक ये तीनों भकूट अषुभ एवं त्याज्य माने गये हैं। इसका कारण यह है कि दूसरा स्थान धन का तथा बारहवाँ खर्च का स्थान होता है। द्विद्र्वादष भकूट में एक की राषि से दूसरे की राषि बारहवें पड़ती है जो इस बात की प्रतीक है कि इन दोनों लोगों के खर्चे को अधिक बढ़ायेगा। तात्पर्य यह है कि द्विद्र्वादष भकूट भावी जीवन में खर्चे को बढ़ाकर आर्थिक सन्तुलन को बिगाड़ देता है। परिणामतः जीवन में धन की कमी या निर्धनता आ जाने की सम्भावना रहती है।
“35 ”नवम-पंचम भकूट इसलिए त्याज्य माना गया है कि दाम्पत्य सम्बन्धों में विरक्ति तथा सन्तान की हानि करता है। नवम् स्थान धर्म एवं तप का प्रतिनिधि भाव होता है। वर-वधू की राषियाँ जब आपस में 5वें एवं नवें स्थान में हों तो धार्मिक भावना, तप-त्याग, दार्षनिक दृष्टि या प्रबल अहं की भावना दाम्पत्य सम्बन्धों में दूरी या वैराग्य उत्पन्न कर देती है। दामपत्य सम्बन्धों को सुखमय बनाने के लिए अनुरक्ति, आकर्षण एवम् आसक्ति का होना अनिवार्य है। किन्तु नवम-पंचम भकूट इन तीनों वृत्तियों/भावनाओं को दबा देता है। परिणामस्वरूप दम्पत्ति का गृहस्थ धर्म की ओर ध्यान न देने से सन्तान के अभाव की आषंका बन जाती है। तात्पर्य यह है कि अनुराग, आकर्षण या आसक्ति के बिना भोग एवं सम्भोग की कल्पना करना सम्भव नहीं है इसीलिए विरक्ति उत्पन्न करने वाले नवम-पंचम भकूट का परिणाम सन्तान का अभाव बतलाया गया है।“
36 ”षडाष्टक भकूट एक महादोष है क्योंकि छठा स्थान शत्रुता का तथा आठवाँ स्थान मृत्यु का होता है। यदि वर एवं कन्या की राषियाँ आपस में छठी एवं आठवीं हो तो इन दोनों के भावी जीवन में शत्रुता, विवाद, कलह एवं रोजाना के झगड़े-झंझट होते रहते हैं। न केवल तलाक अपितु नव दम्पत्ति में से किसी एक की हत्या या आत्महत्या के सर्वाधिक मामले षडाष्टक भकूट में विवाह करने पर देखे गये हैं।“
37 ”षेष तीन भकूट तृतीय-एकादष, चतुर्थ-दषम तथा प्रथमश्सप्तम शुभ होते हैं। प्रथम-सप्तम भकूट में दाम्पत्य सुख तथा अच्छी सन्तान होती है, तृतीय-एकादष में आर्थिक स्थिति तथा जीवन स्तर उन्नत होता है तथा चतुर्थ-दषम भकूट में विवाह करने से दम्पत्ति में अतिषय प्रेम बना रहता है। किन्तु यदि वर एवं कन्या दोनों की राषियों का स्वामी एक ही ग्रह है या राषीषों की मित्रता है तो प्रकृति, मनोवृत्ति व अभिरूचि में समानता होने पर दाम्पत्य सम्बन्धों में मधुरता रहती है।“
38 नाड़ी कूट ”समस्त नक्षत्रों को तीन श्रेणियों में विभक्त करने वाली नाड़ियाँ आदि, मध्य और अन्त; वात, कफ और पित्त को अभिसूचित करती हैं। समस्त शारीरिक व्याधियों के मूल में वात, कफ, पित्त परक असंतुलन ही होता है। वर-कन्या की सम नाड़ी होने पर परिणय सुखमय नहीं होता। भिन्न नाड़ी होने पर उनकी संतति में कफ, पित्त का अनुपात उचित रहता है। समनाड़ी वाले दम्पत्तियों की सन्तानंे आंषिक अस्वस्थ, प्रायः मानसिक रूपेण अविकसित होती हैं। ऐसे बच्चों में मानसिक दोषों की सम्भावना अधिक होती है। नाड़ी मनुष्य के दैहिक स्वास्थ्य सूत्र का दर्पण है।“
39 ”यदि दम्पत्ति आदि नाड़ी संदर्भित है तो दाम्पत्य अनेक संकटों से आपन्न होता है तथा उनकी स्वास्थ्य क्षति होती है, मध्य नाड़ी संदर्भित होने पर एक का देहावसान सम्भव है, अन्त नाड़ी संदर्भित होने पर संतति मृत्यु सम्भव है। वर-कन्या के नक्षत्र का चरण भिन्न हो तो विवाह की अनुमति दी जाती है तथा नाड़ी दोष नहीं माना जाता है।“
40 डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार - ”जैसे शरीर के वात, पित्त एवं कफ इन तीन दोषों की जानकारी नाड़ी स्पन्दन द्वारा होती है, ठीक उसी प्रकार दो अपरिचित व्यक्तियों के मन की जानकारी आदि, मध्य एवम् अन्त नाड़ियों से की जा सकती है। संकल्प, विकल्प एवं क्रिया-प्रतिक्रिया करना मन के सहज कार्य हैं इन तीनों की परिचायक उक्त तीनों नाड़ियाँ होती हैं।“41 ”नक्षत्र मेलापक में नाड़ी के सर्वाधिक गुण होते हैं। इनकी गुण संख्या 8 है। भिन्न-भिन्न नाड ़ी होने पर 8 गुण तथा एक नाड़ी होने पर शून्य गुण मिलता है।“42