संस्कृति शब्द जितना प्रचलित है और जितना हमारे सामाजिक व्यवहार में घुला मिला है, इसका अर्थ जानना उतना ही कठिन है। जो वस्तु हमारी आंखों के जितना अधिक निकट होती है, उसे देख पाना कठिन होता ही है। कुछ विद्वान सुसंस्कारों के समूह को संस्कृति कहते हैं तो कुछ इसका संबंध वेश-भूषा, भाषा, कला आदि से मानते हैं। संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति ‘कृ’ (करना) धातु में ‘सम’ उपसर्ग और ‘क्तिन्’ प्रत्यय जोड़कर ‘सुट्’ के आगम से स्वीकार की जाती है, अतः इसका अर्थ है- परिष्करण, परिमार्जन अथवा अलंकृत करना। इसका एक अर्थ सृजन-क्रिया भी माना जाता है। अष्टाध्यायी में संस्कृति का अर्थ ‘मण्डन’ माना गया है। हिंदी शब्द सागर में संस्कृति का एक अर्थ ‘सभ्यता’ भी दिया गया है। वहां इसके अन्य अर्थ शुद्धि, सफाई, संस्कार, सुधार, मानसिक विकास, सजावट आदि मिलते हैं। इस प्रकार संस्कारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है क्योंकि संस्कार वैयक्तिक होकर समाजीकरण में परिवर्तित हो जाते हैं। कालांतर में ये सभी संस्कार संबंधित क्षेत्र की संस्कृति में परिवर्तित हो जाते हैं। भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम धर्म की महत्ता मानी जाती रही है।
कोई भी शिशु जन्म से विशिष्ट गुणों से युक्त या महान नहीं होता वरन् संस्कार उसे महान बना देते हैं। ‘संस्करोतीती संस्कार’ अर्थात् जो स्वच्छ करते हैं, पवित्र करते हैं, वे संस्कार कहलाते हैं। संस्कारहीन पुरुष शूद्रवत् माना जाता है। ”जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते“ परंतु ब्राह्मण तो जन्म से ही ब्राह्मण होता है। संस्कारों से उसमें द्विजत्व आता है। ”जन्मना ब्राह्मणों ज्ञेयः संस्कारैद्र्विज उच्यते। विद्याभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रिय स्त्रिभिरेव ही।।“(पदम पुराण) संस्कार शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है। ‘मेदनी’ कोश में इसका अर्थ है प्रतियत्न, अनुभव और मानस कर्म। न्याय दर्शन में यह एक गुण विशेष है- शरीर एवं वस्तुओं की शुद्धि के लिए उनके विकास के साथ समय-समय पर जो कर्म किए जाते हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं। यह विशेष प्रकार का अदृश्य (परोक्ष) फल उत्पन्न करने वाला कर्म होता है। (हिन्दू धर्म कोश) हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को इन संस्कारों के द्वारा सुसंस्कृत बनाया जाता है। बालक का जन्म गृहस्थ आश्रम के अंतर्गत होता है। अतः मानव संस्कृति तथा समाज के विस्तार के लिए गृहस्थ धर्म का सुसंचालन अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए मानव समाज में परिवार का संगठन हुआ। परिवार की सुनिश्चित योजना के लिए व्यक्तियों को सामाजिक एक सूत्रता में आबद्ध करने के लिए संस्कार आवश्यक कृत्य बन गये और इसके बिना कोई भी व्यक्ति समाज में सम्मान पाने का अधिकारी नहीं रहा।
मनु स्मृति में एक स्थान पर कहा गया है- ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कार द्विज उच्यते’ अर्थात् जन्म के समय प्रत्येक बालक शूद्र होता है। संस्कार के द्वारा उसे द्विज पद की प्राप्ति होती है। यहां पर द्विज शब्द का अर्थ है जिसने दो बार जन्म लिया है। बालक एक बार जन्म लेकर संसार में पदार्पण करता है और दूसरी बार संस्कार युक्त होकर समाज के अनुरूप बनता है। वेदों और उनसे संबंधित साहित्य में यत्र-तत्र संस्कारों का उल्लेख मिलता है परंतु उनमें सूत्रबद्धता का अभाव मिलता है। वेदों में संस्कारों का वर्णन सुविचारित से कहीं भी प्राप्त नहीं होता। वैदिक साहित्य के अंतिम चरण में संस्कारों को सामाजिक मान्यता प्राप्त होने लगी थी, परंतु ये एक व्यवस्थित रूप में उपलब्ध नहीं थे। सर्वप्रथम गृह्यसूत्रों में संस्कार का व्यवस्थित उल्लेख किया गया। हिंदू धर्मशास्त्र में इसके महत्व को निर्धारित करके मानव जीवन में इसकी उपयोगिता नियत की गई। इस विषय पर सभी शास्त्रकार सहमत हैं कि संस्कार के द्वारा बालक शुद्ध होकर जीवन को संचालित करने योग्य बनता है। संस्कार का अर्थ है-बाह्य तथा आंतरिक दृष्टि से समान रूप से विकसित करने वाले वे कृत्य जो समाज को संचालित करने की शक्ति प्रदान करते हैं। समाज शास्त्री ‘मेकाइवर’ संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए कहते हैं ”संस्कार का अर्थ औपचारिक व प्रतिष्ठित प्रकृति की ऐसी स्थापित कार्यवाही है जिसका उद्देश्य किसी संदर्भ या अवसर की महत्ता को अंकित करना होता है।
संस्कार मानव समूह को दृढ़ एकता के सूत्र में बांधने का कार्य करते हैं तथा मानवीय विचारों एवं कृत्यों के लिए निर्दिष्ट मार्ग निर्धारित करते हैं।“ सामाजिक जीवन की एक सूत्रता तथा सामूहिक उत्कर्ष के लिए संस्कार व्यक्ति को निश्चित कर्तव्यों से बांध देते हैं। संस्कारों के माध्यम से हमें किसी भी समाज की उन्नति तथा अवनति का बोध होता है। संस्कारों की संख्या के विषय में भारतीय विद्वान एक मत नहीं हैं।
गृह्यसूत्र में इनकी संख्या 40 मानी गई है, इसके अतिरिक्त गौतम ऋषि ने अपने धर्मसूत्र में इनकी संख्या 48 मानी है। महर्षि दयानंद ने संस्कार विधि में संस्कारों की संख्या 15 तथा अन्त्येष्टि कर्म को संस्कार न कह कर अन्त्येष्टि कर्म कहा है। परंतु प्रस्तुत संदर्भ में संख्या विस्तार की विवेचना आवश्यक नहीं, अतः उन संस्कारों का विवेचन ही आवश्यक है जो जीवन में विशेष उपयोगी हंै। वर्तमान युग में शरीर के मुख्य सोलह निम्नलिखित संस्कार प्रचलित हैं:
1. गर्भाधान,
2. पुंसवन
3. सीमंतोन्नयन,
4. जातकर्म
5. नामकरण,
6. निष्क्रमण,
7. अन्नप्राशन,
8. चूड़ाकरण,
9. कर्णवेध,
10. विद्यारंभ,
11. उपनयन,
12. वेदारंभ,
13. केशान्त,
14. समावर्तन,
15. विवाह,
16. अन्त्येष्टि
1. गर्भाधान संस्कार: गर्भाधान संस्कार प्रत्येक गर्भ के लिये करना जरूरी है। पुत्र माता-पिता के रजो वीर्य से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार के भाव उस समय माता-पिता के होंगे वैसे ही संस्कार संतति ग्रहण करेगी। यह क्रिया सर्वथा आध्यात्मिक है पाशविक नहीं। संतान उत्पन्न करना, मनुष्य का वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्य है। साथ ही इसका संबंध, पुरुषार्थ अथवा मुक्ति से भी है। अतः इसे संयमपूर्वक सर्वथा आध्यात्मिक वातावरण में संपन्न करना उचित है।
2. पुंसवन संस्कार: ‘पुमान प्रसूयते येन कर्मणा तत्त्पंसवनमीरितम्’ यह संस्कार भावी संतान शक्तिशाली हो इस प्रयोजन से गर्भ के संस्कार रूप में किया जाना चाहिए। प्रायः ऐसी धारणा है कि संतान पुत्र हो इस इच्छा से वह संस्कार किया जाता है। पारस्कर गृह्यसूत्र के वचनानुसार गर्भ स्थिति में दूसरे या तीसरे महीने के जिस दिन, पुष्य, पुनर्वसु, मृगशिरा, हस्त, मूल और श्रवण आदि पुल्लिंग नाम वाला कोई नक्षत्र हो, उस दिन गर्भिणी को उपवास के बाद स्नान करा कर नये दो शुद्ध वस्त्र पहनाकर पूर्वाभिमुख बैठा कर यह संस्कार किया जाता है।
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार: ‘सीमन्त उन्नीयन्ते यस्मिन तत् सीमन्तोन्नयनमिति’ यह संस्कार गर्भिणी स्त्री के मन को संतुष्ट और नीरोग रखने तथा गर्भ स्थिति को स्थायी एवं उत्तरोत्तर श्रेष्ठ बनते जाने की इच्छा से किया जाता है। सीमन्तोन्नयन शब्द का अर्थ है स्त्रियों के सिर की मांग । यहां पति अपने हाथ से पत्नी के बाल संवार कर मांग में सिंदूर दान करता है। गर्भवती पत्नी को विशेषतः प्रसन्न रखने के लिए इस संस्कार का समय गर्भ का चैथा या आठवां महीना नियत है। इन महीनों में जब चंद्रमा पुनर्वसु, पुष्य आदि पुल्लिंग नक्षत्रों से युक्त हो तब यह संस्कार किया जाना चाहिए। चरक के कथनानुसार ‘सा यत् यत् इच्छेत् तत् अस्यै दद्यात् अन्यत्र गर्भपात करेभ्यः भावेभ्यः’ अर्थात् गर्भवती स्त्री गर्भ नष्ट करने वाली वस्तुओं को छोड़कर जो भी वह मांगे उसे देना चाहिए।
4. जातकर्म संस्कार: उत्पन्न हुए बालक के जो कर्म किये जाते हैं उन्हें ‘जात कर्म’ कहा जाता है। इन कर्मों में बच्चे का स्नान, मुख आदि की सफाई, मधु, घी चटाना, स्तनपान आदि सूतिका गृह में बच्चे के करने होते हैं। अतः इन्हें संस्कार माना गया है। किंतु आजकल के युग की परिस्थितिवश अस्पतालों में शिशु जन्म होने से ये सभी क्रियाएं सूतिका गृह में संभव नहीं हैं ऐसे में तो प्रसव का 9वां महीना लगने पर किसी शुभ दिन में इस संस्कार को किया जाना चाहिये जिससे कर्म लोप न हो और परंपरा की रक्षा भी हो जाये।
5. नामकरण संस्कार: पारस्कर गृह्य सूत्र के प्रमाणानुसार ‘हरिहर भाष्य’ ने अर्थ किया है कि - प्रसव दिनभारभ्य दशम्यां तिथौसूतिकां सूतिका गृहाद् उत्थाप्य, पिता अपत्यस्य नामधेयं करोति’ अर्थात् ब्राह्मण आदि वर्णों में जिसके यहां जितने दिन का सूतक माना गया है, उतने ही दिन सूतिका को उठाकर अगले दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। साधारण प्रथा 11वें दिन नामकरण संस्कार करने की चली आ रही है। अष्टाध्यायी के भाष्यकार अपने ग्रंथ के शब्दानुशासन प्रकरण में लिखते हैं। ‘दशाभ्यामुत्तर कालं पुत्रस्य जातस्य नाम विदध्यात्’ अर्थात् दसवें दिन के पश्चात् पुत्र का नाम रखें। चरक ने स्पष्ट किया है- दसवीं रात्रि बीतने के बाद ग्यारहवें या नियत दिन, यदि नामकरण न हो सके, तो फिर किसी भी शुभ दिन नामकरण संस्कार कर लेना चाहिए।
6. निष्क्रमण संस्कार: नवजात शिशु को पहले पहल घर से बाहर भ्रमण के लिये ले जाते समय यह संस्कार किया जाता है। सूतिका गृह से शिशु को बाहर निकालने के लिये 12वें दिन से चतुर्थ मास तक, भिन्न-भिन्न समय का धर्म ग्रंथों में उल्लेख है। जातक को तृतीय मास में सूर्य तथा चतुर्थ मास में चंद्र दर्शन कराना चाहिए। ‘तत्तः तृतीयेमासे कत्र्तव्यं सूर्य दर्शनम्। चतुर्थे मासे कत्र्तव्यं शिशोष्चन्द्रस्य दर्शनम्’ सूर्य चंद्र के दर्शन से अभिप्राय ज्योति के सामने निकालने में सावधानी रखने की ओर ध्यान रखना, इस संस्कार का उद्देश्य है। यदि देशांतर में शिशु को ले जाने की शीघ्रता हो तो 12वें दिन ही यह संस्कार कर लेना उचित है।
7. अन्नप्राशन संस्कार: नवजात शिशु को मां के दूध के अतिरिक्त ठोस भोजन खिलाने का नाम ही अन्नप्राशन संस्कार है। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार - ‘अन्नप्राशन’ संस्कार छठे महीने करना चाहिये। शिशु के दांत निकलनी आरंभ होने का सामान्यतः यही समय है। इसी समय दूध के साथ भोजन देना आरंभ करना चाहिए।
8. चूड़ाकर्म संस्कार: केशों को काट कर देवता को अर्पण करना चूड़ाकर्म (चूड़ाकरण) संस्कार कहलाता है। केश, नख रोमादिच्छेदन पाप निवृत्ति माना है। ‘चूड़ाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव जन्मतः। प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कत्र्तव्यं श्रुति चोदनात्’। चूड़ाकर्म अथवा मुण्डन संस्कार जातक के एक वर्ष का होने पर या उसके जन्म के तीसरे वर्ष में करना चाहिए। यदि कुलाचार ऐसा हो तो पांचवें वर्ष में उपनयन के साथ भी इसे किया जा सकता है। जातक की माता गर्भिणी हो तो पांचवें वर्ष से पूर्व चूड़ाकर्म न किया जाए। पांचवें वर्ष के बाद तो गर्भिणी अवस्था में भी कर लेना चाहिए, उपनयन के साथ भी गर्भिणी होने का दोष नहीं। ‘विवाह व्रत चूड़ासु माता यदि रजस्वला। तस्याः शुद्धः पर कार्य मंगलं मनुरब्रवीत्’।। विवाह, उपनयन और चूड़ाकर्म के समय माता रजस्वला हो तो उसके शुद्ध होने पर ये कर्म किये जाने चाहिये।
9. कर्णवेध संस्कार: कर्णवेधो वर्षे तृतीये पंचमे का पुष्येन्दु चित्रा हरि रेवतीषु पूर्वान्हे। चूड़ा कर्म से पहले या पीछे, तीसरे अथवा पांचवें वर्ष में पुष्य, मृगशिरा, चित्रा, श्रवण और रेवती आदि नक्षत्रों में से किसी नक्षत्र में प्रातः सूर्योदय के पश्चात् मध्याह्न से पूर्व इस संस्कार के करने का समय है। ‘रक्षा भूष्णनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते।’ बालक की रक्षा तथा भूषण पहनाना इस संस्कार का प्रयोजन है। सुश्रुत के वचनानुसार कान को बींधने से आन्त्र-वृद्धि आदि रोगों से रक्षा होती है। ग्रह व्याधि की निवृत्ति, इस संस्कार का दूसरा प्रयोजन भी माना गया है। कर्णवेध क्रिया के समय बालक के सामने उसको प्रसन्न रखने के लिये, मिठाई, खिलौने आदि भी रखे जाने चाहिये। यह संस्कार जन्म के दसवें दिन से लेकर पांच वर्ष तक कभी भी शुभ मुहूर्त में किया जा सकता है। मंत्रोच्चारण पूर्वक स्वर्ण चांदी की श्लाका से बालक का पहले दायां फिर बायां तथा कन्या का पहले बायां फिर दायां कान वेध करना चाहिए।
10. विद्यारंभ संस्कार: इस संस्कार के बारे में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। विद्या आरंभ के समय गुरु के समीप जातक को ले जाना ही इस संस्कार के अंतर्गत आता है। अतः उपनयन संस्कार के समय भी यह संस्कार किया जा सकता है।
11. उपनयन संस्कार: ‘आचार्यादीनां बटो नयनं प्रायण उपनयनम्’ आचार्य के पास बटुक को ले जाना ही ‘उपनयन’ कहलाता है, ‘उप-समीपे नयन, उपनयनम।’ पारस्कर के मत से तथा अन्य आचार्यों के मत से भी जिस दिन जन्म हुआ हो या जिस दिन गर्भ रहा हो उससे आठवें वर्ष में ब्राह्मण, ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय और बारहवें वर्ष में वैश्य का ’उपनयन’ होना चाहिये। मनु जी के प्रमाणानुसार, ब्राह्मण का यज्ञोपवीत सोलहवें वर्ष तक, क्षत्रिय का बाईस और वैश्य का 24 वर्ष की आयु तक हो जाना चाहिये। ब्राह्मण का उपनयन वसंत में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में, वैश्य का शरद् ऋतु में तथा रथकार का उपनयन संस्कार वर्षा ऋतु में करना चाहिये। मनुष्य को हमेशा यज्ञसूत्र धारण किये हुए तथा शिखा बांधे रहना चाहिये। शिखा और यज्ञोपवीत शून्य मनुष्य जो कुछ भी धार्मिक कृत्य करता है वह निष्फल ही है, ऐसा कात्यायन का मत है।
12. वेदारंभ संस्कार: यह संस्कार ‘उपनयन’ के बाद उसी का एक अंग माना गया है। उपनयन के बाद ही वेद के अध्ययन तथा गायत्री जप एवं अन्य देव पितृ संबंधी धार्मिक सत्कर्म करने का अधिकारी होता है। किसी भी शुभ दिन अपनी शाखा के अध्ययन के साथ वेदाध्ययन का आरंभ किया जाता है। वशिष्ठ वचनानुसार जिस कुल में जिस जिस वेद शाखा के मंत्रों द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार आदि होते रहते हैं उस कुल में पहले उस वेद का अध्ययन आरंभ करना चाहिये। उस वेद की समाप्ति पर दूसरे वेद का आरंभ करना चाहिये।
13. केशान्त कर्म: वेदारंभ संस्कार के उपरांत वेदाध्ययन की समाप्ति पर ‘समावर्तन’ संस्कार होता है। परंतु मनु जी आदि शास्त्रकारों ने 16वें वर्ष में ‘केशांत’ संस्कार की भी गणना की है। ‘केशान्तः षोडषे वर्षे, ब्राह्मणस्य विधीयते। राजन्य बन्धोद्र्वाविषे, वैष्यस्य द्वयाधिके ततः।’ (मनुस्मृति अ. 2) इससे प्रतीत है कि ‘चूड़ाकरण’ और ‘केषान्त’ संस्कार का प्रयोजन एक समान है। अतः अनेक आचार्यों ने ‘केशान्त’ को पृथक संस्कार नहीं माना। 16 वर्ष की आयु बीतने पर 16वें वर्ष में जब मूछ-दाढ़ी व बगल के बालों का छेदन करवाना आरंभ करे, तब प्रथमच्छेदन काल में यह विधि की जाती है। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार ‘चूड़ाकर्म’ और ‘केशान्त’ की विधियां भी एक समान हैं।
14. समावर्तन संस्कार: वेदाध्ययन की समाप्ति पर यह संस्कार किया जाता है जो गृह की ओर लौटने का द्योतक है, यह प्रत्यावर्तन संस्कार भी कहा जाता है। एक वेद के अध्ययन की समाप्ति हो, दो की हो, तीन की हो, अथवा 48 वर्ष पर्यन्त, चारों वेदों के अध्ययन की समाप्ति हो। किंतु वर्तमान काल में गुरुकुलों और वेद के अध्ययन की प्रथा लुप्त हो जाने के कारण ‘उपनयन’, ‘वेदारंभ’ और ‘समावर्तन’ संस्कार प्रायः एक साथ ही संपन्न कर लिये जाते हैं। आचार्य की अनुमति मिलने पर ही यह संस्कार होता है क्योंकि ‘आज्ञा गुरुणामविचारणीया’ गुरु आज्ञा शिरोधार्य होती है।
15. विवाह संस्कार: विवाह सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्कारों में से एक माना जाता है और यह अपने आपमें यज्ञ के रूप में देखा जाता है जिसके बिना कोई भी जातक पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् धर्म (सही व्यवहार), अर्थ (आर्थिक उन्नति), काम (भोग्य पदार्थ) और मोक्ष (पापों से अंतिम मुक्ति तथा आवागमन से निवृत्ति) प्राप्त नहीं कर सकता है। विवाह ही एक ऐसा संस्कार है जिसके द्वारा जातक संतान को जन्म देकर और उनका पालन-पोषण करके पितृ ऋण से मुक्त हो सकता है। विवाह मात्र काम-वासना की पूर्ति के लिए आवश्यक नहीं माना जाता है अपितु संतति की वृद्धि, मानवता के स्वनियंत्रण एवं स्वत्याग जैसे उच्च मूल्यों को आगे बढ़ाने, व्यक्तित्व के सही परिपक्व होने और व्यक्तिगत जीवन में भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। विवाह की पवित्रता तथा श्रेष्ठता स्मृतियों में इस प्रकार कही गई है। ‘ब्रह्माद्द्वहसम्भूतः पितृणां तारकः सुतः। विवाहस्य फलं त्वेतत् व्याख्यातः परमर्षिभिः।।’ अर्थात् केवल ब्राह्म आदि पवित्र विवाह संबंधों से उत्पन्न पुत्र ही पितृगणों की आत्मा को मुक्ति प्रदान करा सकता है। विवाह के बाद ही संतान प्राप्ति होती है और संतान प्राप्ति पर ही सद्गति प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में विवाह संस्कार के बाद ही जातक संतानोत्पत्ति का अधिकारी है।
16. अन्त्येष्टि संस्कार: यह अंतिम संस्कार है। इस संस्कार के उपरांत कोई भी संस्कार नहीं बचता। इस संस्कार के अंतर्गत मृत्यु उपरांत मानव देह को अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। विभिन्न शास्त्रकारों ने अन्त्येष्टि कर्म की अलग-अलग विधि बतलाई है। मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि संस्कार के द्वारा व्यक्ति के परलोक का नियमन तथा पुनर्जन्म की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार संस्कार मानव जीवन को सुव्यवस्था देने के लिए बनाए गए। इनके द्वारा व्यक्ति अपनी संस्कृति की विशिष्टताओं को वहन करने योग्य बनता है तथा समाज को सुसंचालित करने में समर्थ होता है।