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फ्यूचर समाचार
व्यूस : 5823 | दिसम्बर 2006

आपके विचार प्र श्न: रेकी और प्राणिक हीलिंग में क्या अंतर है? इन पद्धतियों से रोगी का उपचार कैसे किया जाता है?

रेसे स्पर्श कर इलाज करता है। इसमें रोगग्रस्त व्यक्ति का स्पर्श आवश्यक होता है। इसमें प्राण ऊर्जा को वह व्यक्ति जिसने रेकी सीखी हो चारों ओर फैले हुए वायुमंडल या वातावरण से प्राप्त करके अपने सहस्रार चक्र, आज्ञा चक्र एवं हृदय चक्र से ले जाते हुए अपनी हथेली के माध्यम से अन्य व्यक्ति या रोगी का स्पर्श कर उसके शरीर में प्रवाहित कर देता है। जिसे रेकी दी जाती है वह रोगग्रस्त व्यक्ति ऐसी प्राण ऊर्जा को अपनी ग्रहण शक्ति के अनुरूप प्राप्त कर लेता है। रे

की का मूल नियम है कि इसे दिया नहीं जाता वरन लिया जाता है - पूर्ण आस्था, आशा और विश्वास के साथ। रेकी एक अद्भुत नैसर्गिक व हानिरहित उपचार - प्रणाली है। इसे हथेलियों में छिपी हुई अद्भुत औषधि कह सकते हैं। मानव शरीर अपरिमित अणुओं का कोष है जिसके अस्वस्थ होने पर रेकी उसे स्वस्थ कर देती है।

इसके अलावा मनुष्य के आत्मबल या मनोबल का विकास कर उसे आवश्यक ऊर्जा प्रदान करते हुए उसके शरीर बल की वृद्धि भी करती है। रेकी का पर्यायवाची अर्थ स्पर्श चिकित्सा है जिसका आधार करुणा है। डाॅ. युसूई ने ‘रे’ का अर्थ विश्वव्यापी तथा ‘की’ का अर्थ प्राणशक्ति अर्थात सूर्य बताया, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि रेकी का आधार करुणा (दया) है। करुणा उसी व्यक्ति में उत्पन्न होगी जो हमेशा खुश रहेगा। डाॅ. विलियम्स के अनुसार हंसमुख लोगों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, उनकी एंडोक्राउन अधिक सक्रिय व सतेज रहती है। मानसिक तनाव में रहने वाला व्यक्ति कभी भी दयालु नहीं हो सकता। उसमें करुणा का भाव लेश मात्र भी नहीं मिलेगा। वही व्यक्ति दयालु हो सकता है जिसने मन को वश में कर लिया हो। इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ेगा। मनुष्य की संकल्प शक्ति से बड़ी शक्ति कोई नहीं। यदि वह संकल्प कर ले, तो कुछ ही समय में काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेगा, मन उसके वश में होगा। उसके हृदय में करुणा का सागर लहराएगा। बिना किसी क्रिया के सिर्फ मन को वश में करके ध्यान किया जाए, तो संभव है मनुष्य में स्पर्श के द्वारा चिकित्सा के गुण आ जाएं क्योंकि रेकी का आधार करुणा है।

गायत्री जप और प्राणायाम के द्वारा सूर्य की शक्ति को अपने में समाविष्ट करने पर भी मनुष्य स्पर्श चिकित्सक बन सकता है, जिसकी चर्चा बाद में करेंगे। प्राणिक हीलिंग भी रेकी ही है, लेकिन यह सिर्फ गायत्री जप और प्राणायाम के द्वारा प्राप्त विश्वव्यापी शक्ति, जिसे प्राण शक्ति (सूर्य) कहते हैं, को अपने में समाविष्ट करने के बाद ही प्राप्त होगी। रेकी और प्राणिक हीलिंग में यही अंतर है अर्थात रेकी का आधार सिर्फ करुणा है और प्राण् िाक हीलिंग का आधार सिर्फ सूर्य शक्ति (प्राण वायु)। प्राणिक हीलिंग का तात्पर्य है प्राण रूपी वायु, अर्थात वह वायु जिससे सांस लेते हैं, के असंतुलन को संतुलित करते हुए उपचार करना।

दूसरे शब्दों में कह सकते हैं प्राण् ाोपचार। प्राणिक हीलिंग विधि में रुग्ण व्यक्ति को हाथ से स्पर्श नहीं किया जाता है। रोगी को अपने समक्ष बैठाकर उसकी खराब ऊर्जा को इलाज करने वाला अर्थात हीलर झाड़फंूक करने वाले के सदृश्य अपने हाथों से दूर करता है। इस पद्धति में रोगग्रस्त व्यक्ति के सामने की ओर एक पात्र में लवण मिश्रित जल रख दिया जाता है और माना जाता है कि उसके शरीर से निकाली गई बुरी ऊर्जा का उस जल में विलय कर दिया जाता है। बुरी ऊर्जा नष्ट करने के उपरांत प्राणिक हीलर दोनों हाथों से शुद्ध-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति एवं प्राणदाता सूर्य आदि से खगोलीय ऊर्जा को संग्रहीत कर रोगग्रस्त व्यक्ति के अंग विशेष संबंधी ऊर्जा-चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसे ऊर्जा प्रदान करता है।

ऊर्जा देने की प्रक्रिया को हीलिंग कहते हैं। अंग्रेजी शब्द भ्मंस का अर्थ होता है स्वस्थ करना। इसी से बने हैं हीलर व हीलिंग शब्द। रेकी और प्राणिक हीलिंग पद्धतियों से रोगोपचार करने वाला की संख्या दिन-व-दिन बढ़ती जा रही है। देश-विदेश दोनों में इन पद्धतियों के संचालित पाठ्यक्रम में भाग लेकर इन्हें सीखने का कार्य भी निरंतर प्रगति पर है। इनका इतिहास भारत में लगभग दो दशक पुराना ही प्रतीत होता है परंतु नए स्वरूप में प्रकट हुई रेकी एवं प्राणिक हीलिंग पद्धतियां प्राणायाम का ही एक रूप कही जा सकती हैं। रेकी और प्राणिक हीलिंग में अंतर: इन दोनों उपचार पद्ध तियों में महत्वपूर्ण अंतर का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। रेकी सीखने-सिखाने के पाठ्यक्रम के 4 चरण होते हैं जिन्हें डिग्री कहते हैं।

प्राणिक हीलिंग तीन पाठ्यक्रमों वाली होती है। इन्हें हीलिंग कोर्स कहते हैं। रेकी सिखाने वाला मास्टर व प्राणिक हीलिंग सिखाने वाला हीलर होता है। रेकी में प्राणिक ऊर्जा वायुमंडल (वातावरण या परिवेश) से खींची जाती है जबकि प्राणिक हीलिंग में इसे हवा, सूरज, पृथ्वी और पेड़-पौधों आदि से लिया जाता है। रेकी में रेकी मास्टर का मरीज को हथेली से स्पर्श करना आवश्यक होता है जबकि प्राणिक हीलिंग में हीलर मरीज का स्पर्श नहीं करता। रेकी देते वक्त अस्वस्थ व्यक्ति के सामने कटोरी जैसे पात्र में नमक का घोल नहीं रखा जाता जबकि प्राणिक हीलिंग में इसे रखना जरूरी है। रेकी में मरीज की बुरी ऊर्जा का विलीनीकरण अंतरिक्ष में किया जाता है जबकि प्राणिक हीलिंग में बुरी ऊर्जा का विलीनीकरण नमक घोल के जलपात्र में कर दिया जाता है। रेकी देते समय रेकी मास्टर को शरीर में हल्का सा झटका महसूस होता है और प्राणिक हीलिंग में रोगी को।

रेकी क्या है?: जापानी संस्कृति का शब्द है ‘रेकी’। रेकी का शब्दार्थ है सारे संसार में समायी हुई प्राण ऊर्जा अर्थात एक प्राकृतिक चेतनायुक्त शक्ति। जापानी में ‘रे’ कहते हैं जगद्व्यापी को और ‘की’ का अर्थ है चेतना शक्ति। यह सभी प्रकार के जीव जंतुओं, पेड़-पौधांे, लता, गुल्म आदि वनस्पतियों में विद्यमान रहती है। इस चेतना या प्राण शक्ति के श्रीर में घटने पर शरीर अस्वस्थ रहने लगता है और बीमारी जन्म लेती है। रेकी में इस घटी हुई चेतना ऊर्जा को पुनः बढ़ाकर अस्वस्थ शरीर को स्वस्थ बनाने की क्रियाएं की जाती हैं। रेकी के माध्यम से स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरों को लाभ मिलता है। मनुष्य कितना भी मन-मस्तिष्क से अप्रसन्न क्यों न हो, थकान आदि से उसका शरीर टूट रहा हो अथवा शरीर बीमारियों का घर बन रहा हो, रेकी प्राप्त करते ही उसे स्फूर्ति का आभास होने लगता है। रेकी में जरूरत इस बात की होती है कि रेकी देने वाले एवं प्राप्त करने वाले दोनों को रेकी पर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था होनी चाहिए।

रेकी भावनात्मक रूप में, भौतिक रूप में, मानसिक एवं आध्यात्मिक किसी भी रूप में दी जा सकती है। इस चैतन्य नैसर्गिक ऊर्जा का रोगी के शरीर में संचार हस्त-स्पर्श से कराया जाता है। दो दिन के बुनियादी उपचार के पश्चात अस्वस्थ व्यक्ति को स्वयं इक्कीस दिनों तक लगातार इस प्रक्रिया को दोहराना पड़ता है - जब तक उसे स्वयं इस चेतना शक्ति को समेटने की क्षमता प्राप्त करने में सफलता न मिल जाए। रोगग्रस्त व्यक्ति की दूषित ऊर्जा को रेकी मास्टर कल्पित प्रकाश पुंज में समेटते हुए उसका विलीनीकरण अंतरिक्ष में कर देता है। रेकी प्रवाहित करते समय रेकी मास्टर के हाथ गरमाहट महसूस करते हैं एवं उसका शरीर मामूली सा झनझना जाता है।

रेकी के द्वारा हृदय रोग, अस्थि भंग, स्मरण शक्ति की कमी, दमा, पेट दर्द, त्वचा रोग, कैंसर, आत्मविश्वास की क्षीणता आदि का इलाज किया जा सकता है। ऐसा पढ़ने-सुनने को मिलता है कि रेकी की चारों डिग्रियों का प्रशिक्षण प्राप्त करने में हजारों लाखों रुपए व्यय हो जाते हैं। इसे टी.आर. या टी.टी. (ज्वनबी त्मउमकल वत ज्वनबी ज्तमंजउमदज) कहा जा सकता है। रेकी के केंद्र दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर अहमदाबाद, इन्दौर आदि बड़े नगरों महानगरों में खुल चुके हैं और अन्य अनेक स्थ¬ानों में इनका खुलना संभावित है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि टोकियो में प्रथम रेकी चिकित्सा केद्र डाॅ. हयासी ने आरंभ किया था।

उन्होंने अमेरिका से अपने रोग-निवारण के लिए पधारी कुमारी हवाओ टकाटा की चिकित्सा भी की और उसे रेकी का प्रशिक्षण देकर रेकी उपचार प्रक्रिया भी सिखाई। अमेरिका जाकर इस पद्धति का प्रचार कर, इसके गुण गाकर इसी कुमारी टकाटा ने रेकी को प्रसिद्धि दिलाई। अमेरिका निवासी रेकी उपचार पद्धति के विशेषज्ञ फिलिस फ्यूरोमीतो का नाम इस सं बं ध म े ंविशे ष उल्ले खनीय है। रेकी प्रशिक्षण के चार चरण (डिग्रियां) हैं। जिनका वर्णन यहां प्रस्तुत है।

प्रथम चरण या पहली डिग्री: इस डिग्री में लगभग 2 दिनों का प्रशिक्षण दिया जाता है। शरीर और हाथों की धीमी गति वाले स्पंदन केंद्रों, रेकी के बुनियादी ढांचे, रेकी के इतिहास आदि का बुनियादी ज्ञान प्रशिक्षणार्थी या छात्र को दिया जाता है। नैसर्गिक प्राण शक्ति को सीखने वाले के शरीर में स्थायित्व के साथ संचारित या प्रवाहित किया जाता है। इस चरण में सिर के ऊपरी भाग से प्रशिक्षणार्थी के शरीर में प्राण ऊर्जा समाविष्ट होने लगती है और दिल तक पहुंचकर हाथों के मार्ग से हथेलियों द्वारा प्रवाहमान होने लगती है। इस चरण में प्रशिक्षण लेकर व्यक्ति अपने साथ साथ अन्यों को भी रेकी देने योग्य बन जाता है। इस अवधि में उसे मात्र 1/5 के लगभग ऊर्जा क्षमता संचरण की शक्ति प्रदान करा दी जाती है क्योंकि बेसिक कोर्स की अवधि में मनुष्य का शरीर ज्यादा ऊर्जा ग्रहण करने के काबिल नहीं रहता। इस चरण के उपरांत व्यक्ति हथेलियों के स्पर्श से अस्वस्थ व्यक्ति का उपचार कर सकता है।

द्वितीय चरण या डिग्री: इस चरण में मनुष्य को कुछ पवित्र संकेत चिह्न या आकृतियां, आश्चर्यकारी पावन अक्षर, शब्द, मंत्रादि का ज्ञान कराया जाता है। इन प्रतीकों, मंत्रों आदि की पूर्णरूपेण गोपनीयता बनाए रखना प्रशिक्षणार्थी के लिए अनिवार्य होता है। वह इन्हें अन्य किसी को दिखा या बता नहीं सकता। इन सबकी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद छात्र या प्रशिक्षणार्थी पूर्ण श्रद्धा, विश्वास एवं आशा के साथ अपने स्थान पर बैठकर ही अन्य स्थान पर बैठे रोगी का इलाज कर सकता है। इस चरण में रेकी सीखने वाले की प्राण ऊर्जा शक्ति का बहुत अधिक विकास हो जाता है।

तृतीय चरण या डिग्री: उपर्युक्त दो चरणों की अपेक्षा रेकी प्रशिक्षण का तृतीय चरण पेचीदा होता है। इसमें प्रशिक्षण् ाार्थी को अध्यात्म विषयक आत्मा या जीव संबंधी ऊर्जा में वृद्धि करने और रेकी मास्टर बनने के योग्य बनाया जाता है। रेकी मास्टर बनने में वही मनुष्य सक्षम हो सकता है जिसका संकल्प मन-वचन-कर्म से लोक कल्याण करना हो। इस पद को पाने के लिए व्यक्ति में रेकी और समुदाय के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए, तभी वह सफलता पा सकता है।

चतुर्थ चरण या डिग्री: रेकी के इस चरण में ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दिया जाता है जो अपने अंतर्मन से रेकी उपचार पद्धति की सर्वोच्च योग्यता प्राप्त करने हेतु लालायित हों एवं गुरु बनने के इच्छुक हों। साथ ही सही मार्गदर्शन करने हेतु पूर्णरूपेण प्रतिबद्ध हों। प्राणिक हीलिंग का ब्यौरा: जीवन का प्रमुख तत्व है प्राण। प्राण के अभाव में जीवन का अस्तित्व संभव ही नहीं है। प्राण है तो जीवन है और प्राण नहीं है तो मृत्यु। शरीर के सारे अवयवों का संचालन प्राण शक्ति ही करती है। लंबी सांस लेने से जहां एक ओर चिŸा की एकाग्रता विकसित होती है, वहीं दूसरी ओर प्राण-पद-वायु सभी पुष्ट होते हैं। यदि सांस ठीक या उचित ढंग से नहीं ली जाए, तो प्राण शक्ति का पोषण भलीभांति नहीं हो पाता और शरीर बीमार हो जाता है। शरीर स्वस्थ रहे, बीमार न होने पाए इसके लिए भारत के प्राचीन ऋषि मुनियों ने प्राणायाम की विधि को अपनाया जो कालांतर में लुप्तप्राय सी हो गई।

इसे पुनः नया स्वरूप प्रदान कर देश-विदेश में फैलाया गया। चीन में जन्मे और फिलीपींस में जा जाकर बसे चो कांक सुई द्वारा प्रतिपादित उपचार की नई तकनीक को ‘प्राणिक-हीलिंग’ का नाम दिया गया। लगभग 20 वर्ष पूर्व उन्होंने प्राणिक हीलिंग पर सर्वप्रथम एक पुस्तक लिखी और उसका प्रकाशन किया। ऐसा लोगों के अनुभव से प्रकाश में आया है कि जहां अनेक प्रकार के उपचारों से उन्हें कोई लाभ नहीं पहुंचा वहां वे प्राणिक हीलिंग उपचार पद्धति अपनाने से स्वस्थ होते पाए गए।

भारत में प्राणिक हीलिंग की प्रक्रिया का प्रारंभ लगभग 15 वर्ष पूर्व केरल के फादर जाॅर्ज कोलथ ने किया। उसके पश्चात दिल्ली, मद्रास, मुंबई, बैंगलोर आदि महानगरों में प्राणिक हीलिंग केंद्र स्थापित किए गए। लोगों का मानना है कि प्राणिक हीलिंग या प्राणोपचार से असाध्य रोग जैसे कैंसर, लकवा आदि तो दूर होते ही हैं, असह्य शिरोशूल, जलन और वेदनायुक्त त्वचा रोग, व्रण, दमा, जिगर के रोग, पाचन क्रिया संस्थान की गड़बड़ी अर्थात आमाशय के रोगादि, रीढ़ की हड्डी की विकृति व जोड़ों की पीड़ा आदि भी ठीक हो जाते हैं। प्राणिक हीलिंग में हीलिंग देने व लेने वाले का 30 से 60 मिनट तक का समय लगता है।

रोगी के स्वस्थ होने में उसकी सद्वृŸिा, श्रद्धा, विश्वास, प्राण ऊर्जा ग्रहण करने की सामथ्र्य आदि आवश्यक होते हैं। हीलरों के मतानुसार त्रुटिपूर्ण तरीके से इस पद्धति को व्यवहार में लान े स े हानि हा े सकती है ।अतएव इसम े ंसजगता अनिवार्य है। इस विधि को पांच दिनों के पाठ्यक्रम के द्वारा सीखा जा सकता है। यह तीन चरणों पर आधारित है -

(1) बेसिक कोर्स,

(2) एडवांस कोर्स,

(3) मनश्चिकित्सा कोर्स।

प्रथम कोर्स में स्वयं एक दूसरे का उपचार करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। द्वितीय एडवांस हीलिंग कोर्स उन्हें कराया जाता है जो तीस या अधिक रोगियों की हीलिंग कर चुके होते हैं। उन्हें विभिन्न रंगों की प्राण ऊर्जा ग्रहण करने की विधि के साथ भौतिक रोगों को दूर करने की विधि का ज्ञान कराया जाता है। मनोरोग निवारण के बारे में पूर्ण जानकारी तृतीय और अंतिम कोर्स में दी जाती है।

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