वास्तु के कुछ मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांत हैं। इन सिद्धांतों के आधार पर ही कोई निर्माण कार्य किया जाना चाहिए
- चाहे वह किसी भवन का निर्माण हो, किसी प्रासाद का निर्माण हो या फिर किसी पुर का निर्माण हो। इनके प्रतिकूल निर्माण कार्य करने पर संभावना रहती है। इन सिद्धांतों से संबद्ध महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं
- वास्तु पद विन्यास, शंकु धारण, हस्त लक्षण (भान), आयादि साधन (षड्वर्ग), छंद: प्रस्तार (पताकादि)।
वास्तु पद विन्यास: वास्तु पद विन्यास को वास्तुशास्त्र में वास्तु पुरुष मण्डल भी कहा गया है। वर्तमान में आवास भवन की प्राक्कल्पना एवं प्रायोजना वास्तु पद विन्यास के अंतर्गत मानी जाती है। अष्टांग स्थापत्य में इसे प्रथम स्थान दिया गया है क्योंकि भवन निर्माण कार्य के प्रथम चरण कार्यान्वयन इसके माध्यम से ही होता है। प्राचीन भारतीय परंपरा में वास्तु पुरुष की परिकल्पना वैदिक एवं दार्शनिक आधार पर की गई थी अतः वास्तु पुरुष की परिकल्पना में भारतीय कला का भारतीय दर्शन के साथ समन्वय दृष्टिगोचर होता है। कलात्मक दृष्टि से वास्तुपद विन्यास मात्र एक भवन योजना है, किंतु दार्शनिक दृष्टि से यह भवन में निवास करने वालों के कल्याण का केंद्रीभूत जीवन दर्शन है। सामान्य रूप से वास्तु पद विन्यास की प्रक्रिया में भवन योजना बनाने से पूर्व निर्धारित क्षेत्र में वास्तु पुरुष की स्थापना की जाती है।
यह स्थापना मंडल रूप में होती है। इस मंडल का तादात्म्य भूमि के साथ स्थापित किया जाता है अतः वास्तु पुरुष की परिकल्पना संपूर्ण भूखंड पर परिकल्पित की जाती है। इस परिकल्पना में लौकिक पुरुष के तुल्य एक वास्तु पुरुष को चित्रित किया जाता है। भूखंड की चारों दिशाएं एवं चारों विदिशाएं निर्धारित करने के उपरांत इस वास्तु पुरुष का चित्रण किया जाता है। इसका सिर ईशान में तथा चरण नैर्ऋत्य कोण में स्थापित किए जाते हैं। इसी प्रकार दोनों हाथ आग्नेय एवं वायव्य दोनों कोणों में स्थापित होते हैं। यह प्रकल्पना लेटी हुई स्थिति में की जाती है। इसके साथ ही संपूर्ण भूखंड का वर्गों में विभाजन किया जाता है। विभाजन की यह क्रिया मंडलीकरण कहलाती है। मंडलीकरण से प्राप्त हुए प्रत्येक वर्ग को वास्तु पद संज्ञा से व्यवहृत किया जाता है। ये वर्ग संख्या में 64, 81 अथवा 100 हो सकते हैं।
1 प्रत्येक वर्ग अथवा वास्तु पद का एक-एक अधिकारी देवता निश्चित होता है तथा सभी वर्गों के अधिकारी देवों को मिलाकर वास्तुदेवता की परिकर के रूप में कल्पना की जाती है। किस वर्ग में कौन सा कार्य अपेक्षित है तथा कौन सा नहीं इसका निर्देश वास्तुशास्त्र करता है। वास्तु योजना अथवा वास्तु पुरुष परिकल्पना के संदर्भ में वास्तुपदों की महत्ता का उल्लेख करते हुए डाॅ. द्विजेंद्र नाथ शुक्ल लिखते हैं- ‘वास्तु पद विन्यास में वास्तु पुरुष, विकल्पना अनिवार्य रचना है, अतः जब पुरुष की कल्पना है तो पुरुषांगों की कल्पना अनायास ही आ जाती है, जिस प्रकार मानव शरीर के विभिन्न अवयवों में मूर्धा, शीर्ष मुख, ह्रद्, कटि, जानु पद, सिरा, अनुसिरा, वेश, नाड़ी आदि होते हैं उसी प्रकार वास्तु-पुरुष विकल्पना में भी इनकी उद्भावना की जाती है। अतः किस अवयव पर कौन सा निर्माण विहित है और किस अवयव पर अविहित। यह ज्ञेय है। जैसे मर्म आदि पर कोई निर्माण उचित नहीं, इसलिए वह स्थान खुला रखा जाता है। कौन सा भवन या भाग किस देव विशेष के पद पर विन्यस्त है इसका ज्ञान वास्तु पद विन्यास के विश्लेषण से ही प्राप्त होता है।
2’ शंकु धारण: वास्तुशास्त्र में भूमि के दिशा बोध के निमित्त शंकु धारण का प्रावधान किया गया है। इसे वास्तु के ग्रंथों में, और साथ ही साथ शिल्प शास्त्र के ग्रंथों में भी, पर्याप्त महत्व दिया गया है। शंकु की स्थापना प्रक्रिया मुख्यतः भवन तथा पुर निर्माण में अपनाई जाती है। इसका मुख्य प्रयोजन दिशा का निर्धारण है अर्थात् शंकु स्थापना की प्रक्रिया के माध्यम से भूखंड में वास्तुपदों की दिशाओं एवं प्रदिशाओं का निर्णय किया जाता है। शंकु काष्ठ निर्मित एक विशेष प्रकार का उपकरण होता है। इसकी लंबाई 12, 18 अथवा 24 अंगुल हो सकती है। इसी प्रकार नीचे से इसकी चैड़ाई 4, 5, अथवा 6 अंगुल हो सकती है।
3 इसकी ऊपरी शिरा शंकु आकृति की तीक्ष्ण होती है। इस प्रकार यह काष्ठ यष्टिका त्रिभुजाकार होती है। भूखंड के केंद्र बिंदु पर शंकु की स्थापना का विधान किया गया है। शंकु स्थापना से पूर्व भूखंड को मंडलों में विभक्त किया जाता है। इस प्रकार शंकु जिस मंडल में स्थित रहता है वह केंद्रीय मंडल कहा जाता है। उस मंडल का अर्द्ध व्यास शंकु की लंबाई से दोगुना होना चाहिए। इसके निर्धारण के लिए केंद्र बिंदु तथा परिधि बिंदु, चिह्नित किए जाते हैं। शंकु केंद्र बिंदु पर इस तरह स्थापित होनी चाहिए कि मध्याह्न के समय उसकी परछाई परिधि बिंदु का स्पर्श करें। परिधि बिंदु से एक रेखा मंडल पर्यंत खींची जाती है। इस तरह मंडल दो भागों में बंट जाता है। एक भाग को प्राची तथा दूसरे को प्रतीची कहते हैं। प्राची का भाग परिधि की पूर्व दिशा का तथा प्रतीची का भाग पश्चिम दिशा का संकेत करता है। प्राची एवं प्रतीची बिंदुओं को अर्द्ध व्यास मानकर अन्य मंडलों का निर्माण किया जाता है।
4 फलस्वरूप मत्स्याकार रेखा का निर्माण होता है। उसके एक ओर शीर्ष तथा दूसरे ओर पुच्छ की कल्पना की जाती है। शीर्ष भाग उत्तर तथा पुच्छ भाग दक्षिण दिशा को द्योतित करता है। इन चार मुख्य दिशाओं का निर्धारण होने के उपरांत दो-दो दिशाओं के मध्य कोणीय भाग में प्रदिशाओं की कल्पना की जाती है। प्राची का भाग परिधि बिंदु की पूर्व दिशा का तथा प्रतीची का भाग पश्चिम दिशा का संकेत करता है। पुनः प्राची एवं प्रतीची बिंदुओं को अर्द्ध व्यास मानकर अन्य मंडलों का निर्माण किया जाता है। फलस्वरूप मत्स्याकार रेखा का निर्माण होता है। उसके एक ओर शीर्ष तथा दूसरे ओर पुच्छ की कल्पना की जाती है। शीर्ष भाग उत्तर तथा पुच्छ भाग दक्षिण दिशा का द्योतक होता है। इस प्रकार चार मुख्य दिशाओं का निर्धारण होने के उपरांत दो दो दिशाओं के मध्य कोणीय भाग में प्रदिशाओं की कल्पना की जाती है। दिशाओं के सही निर्धारण में शंकु स्थापना का अपना विशेष महत्व है तथा दिशा ज्ञान के बिना विन्यस्त वास्तुपदों में क्रियमाण कार्यों की क्रियान्विति नितांत आवश्यक है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में तथा उसके अंगभूत स्थापत्य अथवा शिल्प में भी दिशाओं की जानकारी भवन अथवा पुर निर्माण के लिए अनिवार्य है।
5 शंकु स्थापना का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राची सूर्योदय की दिशा होने से पोषक, उन्नायक एवं उद्भावक मानी गई है। अतः सर्वप्रथम शंकु स्थापना द्वारा पूर्व दिशा का ज्ञान कर लेना चाहिए। क्योंकि पूर्व दिशा से ही सूर्य किरणों का उपयोग किया जा सकता है अतः पुर अथवा भवन निर्माण में सूर्य रश्मियां अवरुद्ध न हों। इस क्रम में द्वार प्रकोष्ठ आदि का विन्यास किया जा सके इसके लिए शंकु स्थापन आवश्यक है। दार्शनिक दृष्टि से भी शंकु स्थापना को महत्वपूर्ण माना गया है। भारतीय दर्शन में पृथ्वी की सतह की प्रकल्पना सूर्योदय और सूर्यास्त को आधार मानकर की गई है। अतः क्षितिज पर जहां सूर्योदय दिखाई देता है उसे प्राची तथा जहां सूर्यास्त दिखाई देता है उसे प्रतीची नाम दिया गया है। दार्शनिक दृष्टि से ही सूर्योदय एवं सूर्यास्त के मध्य केंद्र बिंदु से दायीं और दक्षिण तथा बायीं और उत्तर की कल्पना की जाती है। दिशा बोध व्यवहार का ज्ञान शंकु स्थापना के माध्यम से इसलिए भी आवश्यक है कि पुर अथवा भवन निर्माण किस क्षेत्र की किस दिशा में हो इसका ज्ञान हो सके। इस तरह दिशा निर्धारण के लिए शंकु स्थापन परमावश्यक है। हस्त लक्षण: वास्तु विन्यास में हस्त लक्षण मापन प्रक्रिया को मौलिक सिद्धांत के रूप में अपनाया जाता है। वास्तु पदों में भवन तथा प्रकोष्ठादि का क्या मान हो इसके लिए प्राचीन काल से ही अंगुल एवं हस्त को प्रमाण माना जाता रहा है।
6 मापन के मानदंड का निर्धारण यदि नहीं किया जाए तो भवन अथवा पुर निर्माण में विसंगति उत्पन्न हो सकती है, जिसके कारण हम अपनी प्राक्कल्पना के अनुरूप भवन एवं पुर का निर्माण संभवतः न कर सकें। हमारी परिकल्पना में वास्तु-पद विन्यास की जो प्राक्कल्पना निहित है वह नितांत अव्यक्त रूप में है और उसे व्यक्त रूप में परिवर्तित करने के लिए मापन एक अत्यावश्यक प्रक्रिया है। दार्शनिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि जिस प्रकार निराकार ब्रह्म माया शक्ति के अभाव में सगुण ईश्वर का स्वरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार अव्यक्त भवन अथवा पुर की प्राक्कल्पना मापन प्रक्रिया के बिना व्यक्त रूप में नहीं की जा सकती। अतः जिस प्रकार माया दृश्यमान जगत की मूल शक्ति है उसी प्रकार मापन प्रक्रिया भवन अथवा पुर इत्यादि का मूलाधार है। मापन प्रक्रिया अथवा मान निर्धारण के बिना किसी भी भवन अथवा पुर आदि की पूर्णता संभव नहीं मानी जाती। इस संदर्भ में मयमतम् में उल्लेख है .. ‘मानम् धामनस्तु सम्पूर्णम् जगत् सम्पूर्णना भवेत्।
7 ’ मयमतम् के लेखक मयाचार्य ने उक्त कथन में जहां मान के महत्व को प्रतिपादित किया है वहीं वास्तु की व्यापकता का भी निर्देश कर दिया है। उनके अनुसार मान ही वास्तु की परिपूर्णता का मूल आधार होता है चाहे वह भवन के संबंध में हो, चाहे पुर के संबंध में या चाहे संपूर्ण विश्व के संबंध में हो। समरांगण सूत्रधार ग्रंथ के कत्र्ता भोजराज ने प्रमाण की महत्ता बताते हुए लिखा है कि मापन क्रिया के निश्चित मानदंडों के परिमाण से विन्यस्त किए गए मंदिर इत्यादि में स्थापित किए गए देवादि भी पूजनीय हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार से आवास्य भवन अथवा पुर आदि में निवासकर्ता को सामान्य स्थिति की दृष्टि से मान निर्धारण की आवश्यकता समझनी चाहिए। ‘प्रमाणे स्थापिताः देवाः पूजार्हाश्च भवन्ति ते।।
8’ समरांगण सूत्रधार के उक्त वाक्य में (नाप) मान को ही सम्मान का कारक कहा गया है अतः सम्मान एवं उन्नयन के दृष्टिकोण से किसी भी स्थपति के लिए मान ज्ञानार्थ हस्त लक्षण की जानकारी अत्यावश्यक है। शास्त्रीय दृष्टिकोण से किसी भी कला में उसकी कलात्मकता का मूल्यांकन किया जाता है तथा कला में निहित जो रमणीयता अथवा सौंदर्य तत्त्व है वह केवल शास्त्र मान से ही संभव बतलाया गया है। अतः किसी ने सही कहा है- ‘शास्त्रमानने यो रम्यः स रम्यो नान्य एवहि
9’ अर्थात् सुंदर कलात्मक कृति द्रव्यों द्वारा तभी संभव है जब उन द्रव्यों का उपयोग शास्त्रमान को आधार बनाकर किया जाए। समरांगण सूत्रधार के कत्र्ता ने इसी दृष्टिकोण को महत्त्व देते हुए द्रव्य को मेय शब्द के द्वारा अभिहित किया है- ‘यत् च येन भवेत् द्रव्यं मेयं तदपि कथ्यते।
10’ अर्थात् कोई भी भौतिक द्रव्य हो वह वस्तुतः मेय ही होता है अर्थात् मान योग्य होता है। यहां यह तथ्य भी जानना परमावश्यक है कि भौतिक द्रव्यों के उपयोग से निर्मित अन्य भौतिक द्रव्य भी मेय ही हैं अतः भौतिक दृष्टि से द्रव्यमान वैज्ञानिक महत्त्व का विषय बन जाता है। वास्तु अथवा स्थापत्य के संदर्भ में कई प्रकार के मानों का उल्लेख मिलता है। जैसे भवन मान, प्रतिमा मान, भित्तिमान, तालमान इत्यादि। इन सब प्रकार के मानों की केवल जानकारी ही आवश्यक नहीं है अपितु अच्छे वास्तुकार के लिए सावधानीपूर्वक इनकी क्रियान्विति भी आवश्यक बताई गई है। आयादि साधन: आयादि साधन का आधार ज्योतिष शास्त्रीय है। आयादि साधन की आवश्यकता वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से भी मानी गई है। वास्तु कोष में आयादि साधन को भी मान का आधार बतलाकर उन्हें षड्ङ्गमान शब्द से अभिहित किया गया है। यद्यपि शिल्प शास्त्र में जिन षड्ङ्गों की चर्चा हुई है, वे आयादि षडवर्ग से भिन्न हैं।
11 आयादि षडवर्ग में निम्न छः विषयों का है-
1. आय
2.व्यय
3.अंश
4.ऋक्ष
5.योनि
6.कर अथवा तिथि शिल्प शास्त्र के षङ्ग इस प्रकार हैं-
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1. अधिष्ठान
2. पाद
3. स्तंभ
4. प्रस्तर
5. करण
6. शिखर यहां आयादि साधन में यह उल्लेखनीय है कि आयादि षडवर्ग का विचार ज्योतिष के आधार पर किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों के अनुसार आयादि षड वर्ग की उपादेयता लग्न साधन की दृष्टि से स्वीकार की जाती है। अतः भवन अथवा पुर निर्माण इत्यादि महत्वपूर्ण कार्यों के प्रारंभ हेतु लग्न साधन प्रथम आवश्यक कार्य है।
भारतीय ज्योतिष परंपरा के अनुसार किसी भी प्रकार के कार्य का आरंभ लग्न की श्रेष्ठता को देखकर किया जाना चाहिए क्योंकि तिथि की श्रेष्ठता से नक्षत्र की श्रेष्ठता को चैगुना उत्तम बताया गया है तथा चैंसठ गुना उत्तम बताया गया है। क्रियमाण कार्य का भावी परिमाण उत्तम हो इस दृष्टि से उत्तम लग्न का निर्धारण करना चाहिए। लग्न विनिश्चय के साथ ही आयादि षडवर्ग का निर्धारण होता है क्योंकि ये आयादि षडवर्ग भी भावी उत्तमता के निर्णायक माने जाते हैं। आयादि साधन हेतु ज्योतिषशास्त्र के अंतर्गत निम्नलिखित अष्टांग आय का उल्लेख है।
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1. ध्वजाय
2. धूम्राय
3. सिंहाय
4. श्वानाय
5. वृषाय
6. खराय
7. कुंजराय
8. ध्वांक्षाय व्यय के तीन अंग माने गए हैं-
1. पिशाच
2. राक्षस
3. यक्ष अंश भी तीन माने गए हैं-
1. इंद्र
2. यम
3. राजा ऋक्ष संज्ञा तारा अथवा नक्षत्र की मानी गई है। समस्त ऋक्षों अर्थात् नक्षत्रों को या ताराओं को नौ-नौ की संख्या में तीन गणों में विभाजित किया गया है।
1. देवगण
2. राक्षसगण
3. मनुष्यगण योनि, जिसे वास्तु का प्राण कहा गया है, का संबंध आय से जोड़ दिया गया है।
14 संक्षेप में अष्टांग आय में प्राची इत्यादि दिशाओं का निर्धारण करना ही योनि साधन के नाम से जाना गया है। ये आठ योनि भवन अथवा पुर की जननी मानी गई है अतः कई स्थानों पर वास्तुशास्त्र में वास्तु पुरुष के भी आठ प्रकार बताए गए हैं। तिथि या वार ग्रह संबंध से शुभाशुभ होने का संकेत देते हैं तथा वार विशेष का तिथि विशेष के साथ वार विशेष का योग भी शुभाशुभ मुहूर्त का द्योतक होता है। मानसार आदि वास्तुशास्त्र के ग्रंथों में आयादि का संबंध गणित शास्त्र से भी जोड़ा गया है अतः वहां आयादि की गणनात्मक परिभाषाएं भी प्राप्त होती हैं।
15 1. ल ग 8 - शेष = आय 12 2. चै. ग 8 - शेष = आय 10 3. लं. ग 8 - शेष = ऋक्षा 27 4. चै. ग 3 - शेष = योनि 8 5. प. ग 9 - शेष = वार 9 6. प. ग 8 - शेष = तिथि 30 ज्योतिष शास्त्र के तंत्र समुच्चय ग्रंथ में भी वास्तु के गणितीय आधार पर आयादि की परिभाषाएं सूत्र रूप में प्रतिपादित की गई हैं
16, जो निम्न प्रकार से हैं- 1. प. ग 8 - शेष = आय 12 2. प. ग 3 - शेष = व्यय 14 3 प. ग 8 - शेष = ऋक्षा 27 4. प. ग 3 - शेष = योनि 8 5. प. ग 8 - शेष = वार 7 6. प. ग 8 - शेष = तिथि 30 मानसागरीय आयादि गणन परिभाषाओं में लंबाई, चैड़ाई और परिधि तीनों को मानदंड के निर्धारण का आधार माना गया है, जबकि तंत्र समुच्चय में मात्र परिधि को ही मानदंड का आधार माना गया है।
इनमें मूलभेद का कारण यह है कि मानसार की गणना परिभाषाएं दिक् सामुख्य पर आधारित है, जबकि तंत्र समुच्चय गणन परिभाषाएं शंकु आवरक मंडल पर आधारित हैं। दिक् सामुख्य में केंद्र बिंदु से लेकर प्रत्येक दिशा में लंबाई एवं चैड़ाई का मापन किया जा सकता है अतः वहां आयादि का निर्धारण लंबाई व चैड़ाई को आधार बनाकर किया जाना संभव प्रतीत होता है। किंतु शंकु आवरक मंडलीय प्रक्रिया में दिक् सामुख्य को न अपनाने पर मात्र परिधि के आधार पर ही आयादि का निर्धारण संभव हो पाता है। यद्यपि मानसार एवं तंत्र समुच्च्य के परवर्ती ग्रंथों में दोनों प्रक्रियाओं को मिश्रित कर दिया गया है।
इसका कारण यह है कि भवन की मान व्यवस्था में दिक् सामुख्य एवं शंकु आवरक मंडल दोनों का पारस्परिक संबंध प्रतिपादित किया जाता है। शंकु आवरक मंडल के बिना शंकु की सही स्थिति का अनुमान नहीं किया जा सकता है तथा शंकु की सही-सही स्थिति के अभाव में दिक् सामुख्य का निर्धारण भी संशयास्पद प्रतीत हो सकता है। अतः शंकु आवरक मंडल का निर्माण प्राथमिक आवश्यकता है तथा तदुपरांत दिक् सामुख्य का निर्धारण उचित है।
आयादि षडवर्ग के महत्व के संदर्भ में समराङ्गणीय का निर्देश है कि आयादि षडवर्ग का भवन की मान व्यवस्था के साथ-साथ उसके दिक् सामुख्य के साथ भी उसका अनिवार्य संबंध है। वास्तु एवं शिल्प अथवा प्रस्तर (पाषाण कला) और प्रतिमा कल्पन दोनों में इसका प्रयोग आवश्यक है। मानसार शिल्पशास्त्र के अनुसार लंबाई अथवा लंबमान, आय अथवा ऋक्षा के द्वारा परीक्षित किया जाता है। चैड़ाई को व्यय तथा योनि से परीक्षित किया जाता है। इसी प्रकार परिधि एवं ऊंचाई को वार या तिथि से परिनिष्ठित किया जाता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया का निष्कर्ष यह है कि भवन निवेश अथवा पुर निवेश के संबंध में आयादि षडवर्ग के द्वारा जो मान सुनिश्चित होता है वही मान अधिकृत मान माना जा सकता है।
5. छंद: प्रस्तार (पताकादि): छंद शब्द सामान्यतः पद्य रचना के लिए प्रयुक्त होता है, अतः वास्तु के संबंध में काव्य शास्त्रीय छंदास शब्द का प्रयोग अटपटा सा प्रतीत होता है तथापि वास्तु में कलात्मकता के सन्निवेश के लिए छंद प्रस्तार का विधान किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार काव्य में किसी भी छंद के निर्माण के लिए लघु एवं गुरु गणीय आधार पर नष्ट, उद्दिष्ट, मेरू आदि प्रस्तरों की कल्पना की जाती है
17 ठीक उसी प्रकार भवन की आकृति में कलात्मकता के सन्निवेश के लिए उसमें वास्तु पदों के प्रस्तार की योजना की जाती है। काव्य शास्त्रीय छंदः प्रस्तार की तुलना, वास्तुशास्त्रीय छन्दः प्रस्तार से करते हुए डाॅ. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल लिखते हैं: ‘जिस प्रकार भाषा में छंदः की योजना से प्रबंध की गति एवं लय से एक अपूर्व रसास्वाद का आनंद प्राप्त होता है ठीक उसी प्रकार भवन निर्माण में की जाने वाली छंद योजना उसे अवश्य ही काव्य रूप में परिणत कर देती है। इस प्रकार वास्तु कला एक यांत्रिक कला न रहकर मनोरम कला के रूप में निखर उठती है और उसी प्रकार छंदों की योजना से भवन का बाह्य रूप निखर उठता है।
18 शुक्ल महोदय के उक्त कथन से यह प्रतीत होता है कि पुर अथवा भवन निर्माण में बाह्य स्वरूप को कलात्मक बनाने के लिए ही पताकादि छंद प्रस्तार की योजना की जाती है। इस छंद प्रस्तार की सार्थकता इस तथ्य में नहीं निहित है कि किसी भी भवन अथवा पुर को देखकर उसके बारे में यह पता किया जा सके कि वह ग्राम है, नगर है अथवा राजधानी है या राजभवन है अथवा मंदिर है इत्यादि।
जब तक हमेें किसी भी भवन अथवा पुर के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिल जाती तब तक हम उसके उपयोग से वंचित रह सकते हैं अतः वास्तुशास्त्र में छंद प्रस्तार का क्रियान्वयन दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि वर्तमान में छंद प्रस्तार की अपेक्षा पर्याप्त रूप में देखी जाती है, आज सामान्य भवनों तथा विशिष्ट भवनों में कलात्मकता का अंतर बहुत कम रह गया है। उदाहरण के लिए किसी विश्वविद्यालय का भवन औद्योगिक भवन के जैसा हो सकता है या कोई औद्योगिक भवन किसी विश्वविद्यालय के समान दिखाई दे सकता है।
अतः साध्य वास्तु भवन अथवा पुर जो हमारा लक्ष्य है ऐसी स्थिति में लक्षणहीन दिखाई देता है। वास्तविकता यह है कि लक्षण के बिना लक्ष्य का पूर्ण ज्ञान असंभव होता है और लक्ष्य के ज्ञान के अभाव में उसकी प्राप्ति नितांत असंभव है, अतः वास्तुशास्त्रीय छंद योजना को स्वीकार करना है। 19 यह शास्त्रीय दृष्टि से या व्यावहारिक दृष्टि से भी उपयोगी प्रतीत होता है। वास्तुशास्त्र में छः प्रकार के छंदों की योजना की गई है- छंद योजना पताका, सूची, मेरू, खंडमेरू, नष्ट, उद्दिष्ट
पताका: प्रस्तार लंबी आकृति का बोधक है। जिस प्रकार पताका का फैलाव एक निश्चित दिशा में क्रमशः कम होता जाता है उसी के अनुरूप किसी भी त्रिभुजाकार क्षेत्र में इस छंद प्रस्तार को अपनाया जाकर किसी भी भवन अथवा पुर की बाह्य अकृति को रमणीय बनाया जा सकता है। इस रचना में पताका की भांति शीर्ष छत्र की आकृति से युक्त होता है तथा पाश्र्व भाग मंडलाकृति के रूप में निर्मित किया जाता है। यह मंडलाकृति अर्द्धवृत्त के अनुरूप कही जा सकती है।
सूचि: प्रस्तार केवल ऊंचाई की दिशा में भवन अथवा पुर के निवेश को प्रसार प्रदान करता है। कम क्षेत्रफल वाले भू-भाग में अधिक आवासीय स्थान के निमित्त इस प्रस्तार का महत्व बताया गया है। बड़े शहरों में जहां भू-क्षेत्र की कमी है वहां इस प्रस्तार को अपनाया जा सकता है। इसमंे प्रत्येक भवन स्तंभ के समान अनेक मंजिलों में विन्यस्त किया जाता है। राजस्थान में महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित चित्तौड़ का कीर्ति स्तंभ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
मेरू: प्रस्तार के अंतर्गत ऊंचाई कम तथा लंबाई अधिक होती है। इस प्रस्तार में चैड़ाई भी अपेक्षाकृत कम होती है अतः ऐसे आवासीय भू भाग में पर्वताकृति तुल्य भवन अथवा पुर का निवेश किया जा सकता है। भारत की प्राचीन राजधानियों में राजप्रासादों का निर्माण इसी छंद प्रस्तार की योजना के अंतर्गत किया जाता रहा है। ऐतिहासिक एवं कलात्मक दृष्टि से जाबा, बोरोबुदुर स्तूप, मेरू प्रस्तार का श्रेष्ठ उदाहरण है।
खण्डमेरू: प्रस्तार अर्द्ध पर्वताकृति का सूचक है। यह प्रायः अर्द्धपर्वताकृति भू-भाग में विन्यस्त किया जाता है। बेलना कृति भू-भाग में भी इस प्रकार की छंद योजना का विधान उपलब्ध होता है। नष्ट एवं उद्दिष्ट नामक प्रस्तार छंद न होकर छन्दाभास मात्र है। यह चतुष्कोणीय आकृति से अधिक पंच अथवा षट्कोणीय आकृति के बोधक है। पंच कोणीय आकृति में प्रायः नष्ट प्रस्तार को तथा षटकोणीय आकृति में उद्दिष्ट प्रस्तार को अपनाया जाता है।
1. अपराजितपृच्छा 18/203
2. समराङ्गण सूत्रधार भवन निवेश पृ. 33
3. समराङ्गण सूत्रधार भवन निवेश 21/11-12
4. वास्तुशास्त्र भाग पृष्ठ 182 (द्विजेंद्रनाथ शास्त्री)
5. समराङ्गणीय भवन निवेश पृ. 34
6. समराङ्गण सूत्रधार भवन निवेश 11/4-5
7. मयमतम्
8. समराङ्गण सूत्रधार भवन निवेश 34/21
9. अपराजितपृच्छा 32/22
10. समराङ्गण सूत्रधार भवन निवेश 32/2
11. दैवज्ञवल्लभ आयनिर्णयाध्याय
12. भारतीयस्थापत्य (रतनलाल मिश्र) पृ. 38
13. वृहद् वास्तुमाला, ज्योतिषतत्त्वप्रकाश
14. मनुष्यालाय चंद्रिका ‘योनि: प्राणा एव धान्नां यदस्माद् ग्राह्यस्तत्तöोग्ययोनिप्रमेदाः’
15. समराङ्गणीय भवन निवेश, पृ. 37 पर उद्धृत भानसार का मत
16. समरांङ्गणीय भवन निवेश पृ. 37 पर उद्धृत भानसार का मत
17. वृत्तरत्नाकर अध्याय 5 (प्रस्तारतिरुपणांश)
18. समरांङ्गणीय भवन निवेश पृ. 38
19. समरांङ्गण सूत्रधार भवन निवेश 24/36-38
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