श्रीविद्या और श्रीयंत्र: दर्शन व महात्म्य !
श्रीविद्या और श्रीयंत्र: दर्शन व महात्म्य !

श्रीविद्या और श्रीयंत्र: दर्शन व महात्म्य !  

भगवान सहाय श्रीवास्तव
व्यूस : 4407 | नवेम्बर 2010

श्री विद्या के यंत्र को ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं। इसमें जो ‘श्री’ शब्द आया है वह श्री विद्या का ही वाचक है और ‘यंत्र’ शब्द श्री विद्या के यंत्र स्वरूप का वाचक है। केवल यही एक ऐसा यंत्र है जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। यह प्रणवस्वरूप शब्द महा परब्रह्म- स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी श्री विद्या रूप महात्रिपुरसुंदरी का आराधना स्थान है। यह दिव्य धाम है, दिव्य रथ है। इसका स्वरूप मनोहर है। इसमें समस्त देवताओं की आराधना और सभी प्रकार की उपासनाएं होती हैं। इसमें सभी आम्नाओं, क्रमों, आचारों, विद्याओं एवं सभी तत्वों का समावेश होता है। सभी वर्णों, आश्रमों, संप्रदायों के सभी प्रकार के अधिकारी इसकी उपासना कर सकते हैं। श्री यंत्र का स्वरूप: श्रीयंत्र का स्वरूप मनोहर है और इसका विन्यास विचित्र। इसके बीचोंबीच बिंदु और सबसे बाहर भूपुर है। भूपुर के चारों ओर चार द्वार हैं। बिंदु से लेकर भूपुर पर्यंत इसके कुल दस प्रकार के अवयव होते हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, बहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल, षोऽशदल, तीनवृŸा और तीन भूपुर। पूजा के अवसर पर बिंदु भी तीन माने जाते हैं, जिससे कि इसके कुल सोलह अवयव हैं, वे एक के बाद एक इस तरह अनुस्यूत होते हैं जिससे इनके अन्य कई अवांतर कोण एवं रेखाएं बन जाती हैं।

फिर चतुर्दशार के जो कोण होते हैं, उनकी भी नोकें बाहर वाले अष्टदल के साथ मिली होती हैं और इसी तरह अष्टदल की नोकंे षोऽशदल के साथ और षोऽशदल की नोकें प्रथम वृŸा के साथ मिली होती हैं, जिनके कारण और भी कई कोष्ठ और कोण बन जाते हैं जिनको स्पंदीचक्र भी कहते हैं। इनमें बिंदु, अष्टकोण, दो दशकोण और चतुर्दशार को शक्ति का अंश माना गया है। इस प्रकार पांच शिव त्रिकोण और चार शक्ति त्रिकोण के मिलने से परस्पर कटकर कुल तेंतालीस कोण बन जाते हैं। इसमें अट्ठाईस मर्म स्थान तथा चैबीस संधियां होती हैं। श्रीयंत्र में 2816 देवियों व 96 देवताओं का निवास माना गया है। बाहर जो भूपुर है, वह एक प्रकार के प्राकार या दुर्ग सा दिखाई देता है। इस तरह इसका विन्यास अतीव मनोहर होता है, साथ ही जटिल भी। इसीलिए यह श्रीपुर अर्थात् श्रीविद्या का पुर भी कहलाता है। आगमों में इस चक्र का एक दिव्य दीप के रूप में वर्णन किया गया है क्योंकि कोशिकारों ने चक्र शब्द का एक अर्थ नगर भी बताया है। रक्तवर्ण के सुधासमुद्र से घिरा हुआ यह ‘रत्न द्वीप’ है। इसमें कल्पवृक्ष पारिजात से लेकर सभी प्रकार के फल-फूल और लता वनस्पतियों से हरे भरे दिव्य नंदन-उद्यान के बीच अनंत योजन विस्तीर्ण रत्न प्राकार के भीतर अवस्थित इस पुर के मध्य में रत्न सिंहासन पर अनंत कोटि ब्रह्मांड नायिका श्री महात्रिपुर सुंदरी विराजमान हैं।

यह पुर चक्राकार है। इसी का प्रतीक श्रीयंत्र है। इसी चक्राकार रथ में बैठकर संपूर्ण देवी-देवताओं, योगिनियों से परिवृŸा होकर देवी ने भस्मासुर का संहार किया था। उपरोक्त दृष्टांश से भी श्री यंत्र का चक्राकार द्वीप, पुर अथवा सर्वतः स्वविभूति परिवृŸा आदि शक्ति का प्रतीक होना सिद्ध होता है। इस चक्र का मध्यवर्ती बिंदु शिव का और त्रिकोण शक्ति का स्थान है तथा रूप भी। फिर इन दोनों का समन्वय होने पर समरसी भाव से स्थित शिवशक्ति रूप साक्षात प्रतीक यही बिंदु होता है। इस तरह यह बिंदु श्री महात्रिपुर संुदरी का केंद्र बिंदु होता है और श्रीयंत्र रूपी पुर सभी देवताओं का आवास। तात्पर्य यह है कि वही महात्रिपुरसुंदरी विभिन्न देवरूप अपनी विभूतियों से इस पुर को व्याप्त कर इसके बीच में बैठती हैं। इसलिए यह श्रीयंत्र उनका प्रतीक है। फिर मेरुपृष्ठ के आकार में यह चक्र जब ऊपर को उठा हुआ ऊंचे आकार का होता है तब यह समस्त ब्रह्मांड को संभाले हुए सुमेरु पर्वत के प्रतीक रूप में खड़ा होता है और पुराणों में वर्णित सुमेरु पर अवस्थि सभी लोकों का इसमें समन्वय होता है। ‘मेरु’ को निर्वाण रूप में कहा गया है और श्री चक्र को ‘मेरु’ माना गया है। संप्रदायः श्री विद्या के 12 उपासक प्रसिद्ध हैं मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, कामदेव, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, कार्तिकेय, शिव और दुर्वासा। श्रीयंत्र के मुख्य तीन संप्रदाय हैं- ह्यग्रीव, आनंद भैरव और दक्षिणामूर्ति।

इनमें ह्यग्रीव संप्रदाय में त्रिवृŸा नहीं होता है, आनंद भैरव संप्रदाय में त्रिवृŸा तो होता है, किंतु उसमें पूजा नहीं होती एवं दक्षिणामूर्ति संप्रदाय में श्रीयंत्र में त्रिवृŸा भी होती है और उसमें पूजा भी होती है। सारांशतया यंत्रों में श्रीयंत्र ही मुख्य है क्योंकि इससे ब्रह्म एवं शक्ति दोनों की उपासना की जाती है। श्रीयंत्र में 153 देवताओं का भगवती देवी के रूप में पूजन किया जाता है। श्रीयंत्र को विभिन्न आकारों में भी बनाया जा सकता है जैसे अंगूठी, लाॅकेट, बांह पर बांधने वाले ताबीज के रूप में, बटुए में रखने के लिए सिक्के के रूप में, उपहार देने के लिए फ्रेम आदि के रूप में। श्रीयंत्र-दर्शनार्थः श्री विन्ध्यवासिनी क्षेत्र में अष्टभुजा के मंदिर के पास भैरवकुंड नामक स्थान है। वहां पर एक खंडहर में शुद्ध और विशदाकार श्रीयंत्र रखा है। दूसरा श्रीयंत्र फर्रुखाबाद जिले के तिरवा नामक स्थान में है। यहां एक बड़ा सा मंदिर है जिसे अन्नपूर्णा का मंदिर कहते हैं। वास्तव में यह त्रिपुरा का मंदिर है। एक ऊंचे चबूतरे पर संगमरमर पत्थर पर बहुत बड़ा श्रीयंत्र बना है और उसके केंद्रस्थ बिंदु के ऊपर पाशांकुश धनुर्बाणधरा भगवती की सुंदर चतुर्भुजी, जी प्रतिमा है। इस मंदिर को किसी तांत्रिक साधक अथवा महात्मा के आदेशानुसार लगभग 100-125 वर्ष पूर्व राजा तिरवा ने बनवाया था।

इसी प्रकार सूरत शहर में भी श्रीयंत्र के आकार का विशाल व भव्य मंदिर है जो वास्तव में दर्शनीय है। पूरा मंदिर ही श्रीयंत्र के आकारनुमा है और मंदिर के मध्य में यंत्र शिरोमणि श्रीयंत्र भी विराजमान है। रुद्रयामल ग्रंथ में इस यंत्र के दर्शनमात्र का ही बड़ा फल लिखा है। श्रंृगेरी मठ में श्रीयंत्र: एक बार दुर्वासा ऋषि ने रुष्ट होकर भगवती सरस्वती को श्राप दिया कि तुम्हें पथभ्रष्ट होकर मानव योनि में अवतीर्ण होना पड़ेगा। फलतः विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती ने मण्डनमिश्र की पत्नी उभय भारती के रूप में जन्म धारण किया, दिग्विजय के अंतर्गत आचार्य शंकर को साक्षात सरस्वती स्वरूपा उभय भारती से भी शास्त्रार्थ करना पड़ा एवं उन्हें संतुष्ट भी किया। मण्डनमिश्र ने शंकर के शिष्यत्व को ग्रहणकर सन्यास धर्म को स्वीकार किया, फलतः उभय भारती ने अपने महाप्रयाण की तैयारी शुरु की। आचार्य को उभय भारती का जन्म रहस्य ज्ञात था। उन्होंने कहा- ‘‘जननि’’ ! मैं जानता हूं आप देवी सरस्वती हैं। आपके मत्र्यधाम को छोड़कर चले जाने से सर्व-विद्याएं लुप्त हो जाएंगी, इस कारण श्रंृगेरी में एक मठ स्थापित करने की मेरी इच्छा है।

आप, वहां अधिष्ठित रहकर सबको विद्यादान दीजिए। हे भगवती! मैं आपकी उपासना करुंगा। मेरी प्रार्थना पूर्ण कीजिए। साक्षात शंकर स्वरूप शंकराचार्य की वंदना से प्रसन्न होकर देवी सरस्वती ने कहा ‘‘यतिराज- मैं देव शरीर में अवस्थान करते हुए आपकी प्रार्थना पूर्ण करुंगी। आप वहां ‘श्रीयंत्र’ स्थापित कीजिएगा। मैं उस यंत्र में निवास करूंगी।’तब से लेकर आज तक उस श्रीयंत्र की श्रंृगेरीमठ में नित्य पूजा होती है। उपासना संदर्भ: श्री विद्या की उपासना पद्धति, तंत्रों की आधार भूत पद्धति है। त्रिपुरोपनिषद में कादिहादि विद्या के नाम से इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। श्री विद्या का प्रचार व प्रसार मद्रास (चैन्नई) में अधिक है। परमकारुणिक शंकरावतार भगवत्याद श्री मच्छड़्कराचार्य की लेखनी से प्रादुर्भूत सौंदर्य लहरी व ‘प्रपंचसार’ इस विद्या की शुद्ध सात्विकी का सर्वोपरि प्रमाण है। श्रीमच्छड़्ंकराचार्य को श्रीविद्या की दीक्षा योगीन्द्र श्री गोविंदपादाचार्य से मिली थी। श्री गोविंदपादाचार्य को इस विद्या की दीक्षा श्री गोडापादाचार्य के गुरु परमाचार्य भगवान श्री दŸाात्रेय ने स्वयं दी। देवी-महात्म्य इस प्रकार से इस विद्या की अतिप्राचीनता सिद्ध होती है। यह कथा प्रसिद्ध है कि गुरुगृह निवास के नियमानुसार आचार्य शंकर एक दिन भिक्षा के लिए किसी ब्राह्मण सद््गृहस्थ के द्वार पर गये।

वह गृहस्थ बहुत ही निर्धन था। भिक्षा देने योग्य मुट्ठी भर चावल भी उसके घर नहीं था। निदान ब्राह्मण पत्नी ने शंकर के हाथ में एक आंवला देकर रोते हुए अपनी निरंत अवस्था का वर्णन किया। ब्राह्मणी की दुखद निर्धनता से करुणामूर्ति शंकर के कोमल हृदय को द्रवित कर डाला। उन्होंने वहीं खड़े होकर करुणा विचलित चिŸा से श्री विद्या की अधिष्ठात्री देवी आद्या शक्ति भगवती महालक्ष्मी की स्तुति प्रारंभ की और उनके वाणी से अनायास ही करुणा पूर्ण कोमल कांत पद्मावली से आकृष्ट होकर भगवती महालक्ष्मी देखते-देखते आचार्य के सम्मुख अपने त्रिभुवन मोहनरूप में प्रकट हो गई और कोमल शब्दों में कहा-‘‘बेटा, मैंने तुम्हारा अभिप्राय जान लिया है, लेकिन इस निर्धन परिवार ने पूर्व जन्मों में ऐसा कोई भी सुकृत पुण्य कार्य नहीं किया जिससे मैं इन्हें धन दे सकंू।’’ शकराचार्य जी ने बड़े ही विनीत शब्दों में करुणामयी अंबा से निवेदन किया कि- ‘‘पूर्वजन्म में इस ब्राह्मण ने यदि कोई सृकृत नहीं किया है जिसके फलस्वरूप उसे धन सम्पŸिा दी जा सके, तो इससे क्या हुआ? मेरे जैसे भिक्षुक को आंवले का दान देकर उसने जो महान पुण्य राशि अर्जित की है उसके कारण यह अतुल धन संपŸिा की अधिकारी हो गयी है।

यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हुई हों तो इस परिवार को दरिद्रता से मुक्त कर दीजिए।’’ इस युक्ति का भगवती खण्डन नहीं कर सकी और प्रसन्न होकर देवी ने कहा- ‘‘यही होगा, मैं इनहें प्रचुर सोने के आंवले दूंगी।’’ यह सुनकर आचार्य शंकर प्रसन्नता के साथ ब्राह्मणी को शीघ्र धनवान होने का आशीर्वाद देकर गुरु गृह लौट गये। दूसरे ही दिन प्रातः काल ब्राह्मण दंपŸिा ने देखा उनके घर में सर्वत्र सेाने के आंवले बिखरे पड़े हैं। इस घटना का उल्लेख ‘शंकर दिग्विजय के चतुर्थ सर्ग में सांगोपांग है। इस प्रकार से हम यह देखते हैं कि न केवल श्री विद्या के उपासक अपितु श्री विद्या के उपासक जिस पर प्रसन्न हो जाएं, उस पर भी भगवती श्री की कृपा हो जाती है, इसमें संदेह नहीं। श्री विद्या की साधना हेतु उसके आधारभूत ‘श्रीयंत्र’ को समझना प्रथमतः अनिवार्य है। इस श्रीयंत्र को आर्तभाव (अंतःकरण) से श्रद्धापूर्वक पूजन करने पर बहुतों को धन संपŸिा प्राप्त हुई है व प्राप्त हो रही है।



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