भद्रा = आकाश ग ंगा में ज्योतिष के अनुसार एक आरंभ योग। भद्रा = द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी तिथि की संज्ञा। भद्रा = सूर्य की वह कन्या जो छाया से उत्पन्न हुई है अर्थात् एक रश्मि। भद्रा = यम की बहन भद्राकाल समय को रेखांकित करने वाला किरण। भद्रा = तिथि के आधा भाग करण के अ ंतर्गत विष्टि नामक करण। पौराणिक आख्यान - देवासुर संग्राम में राक्षसों ने देवताओं को परास्त कर दिया तो महादेव ने क्रोध करके अपने शरीर से खरमुखी (गदहे जैसे मुख), लांगूल युक्त तीन चरण (बंदर की पूंछ जैसे तीन पांव), सातभुजा (सात हाथ), सिंह के समान गला, क्षामोदरी (बांस जैसी पतली कमर), प्रेत पर सवार दैत्यों को मारती हुई आकृति के रूप में उत्पन्न हो गयी। तब देवताओं द्वारा प्रसन्न होकर उसे विष्टि अर्थात यम के समकक्ष महत्व देते हुए उसका स्वभाव दारुण कष्ट देने वाली निर्धारित कर स्थान दे दिया गया। भद्रा के नाम: कराली = आग सी लपट लिये डरावनी जिह्ना नंदनी = कन्या सी आयु में दिखाई देने वाली रौद्री = रुद्र की पत्नी, गौरी दुर्मुखी = बुरे मुख वाली राक्षसी सी आकृति। सुमुखी = आकर्षण लिए मिश्री = सम्मिश्रण करने वाली (मिकवरी) नाग का नाम वैष्णवी = अपराजिताहंसी = मादा हंस भद्रा काल पं. बाबूलाल जोशी भद्रा का प्रवेश काल:
1. प्रति शुक्ल पक्ष में = चतुर्थी और एकादशी के उŸारार्द्ध में।
2. प्रति शुक्ल पक्ष में = अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वाद्ध में।
3. प्रति कृष्ण पक्ष में = तृतीया और दशमी के उŸारार्द्ध में।
4. प्रति कृष्ण पक्ष में सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में। भद्रा का प्रमाण काल: दिन-रात का 30वां भाग तिथि का आधा भाग।
भ का निवास:
1. मीन, मेष, सिंह और वृश्चिक राशि का चंद्रमा-स्वर्ग तक = शुभ।
2. कन्या, तुला, धनु और मकर राशि का चंद्रमा - पाताल लोक = धन प्राप्ति।
3. कर्क, कुंभ, वृषभ और मिथुन राशि का चंद्रमा - मृत्यु लोक = अशुभ। अंततः भद्रा भद्रा ही है। इसका समय काल निन्दित ही कहा गया है। यह समस्त शुभ मंगल कर्मों में निषेध ठहरायी गयी है। भद्रा में हरतालिका व्रत, शिव पार्वती की पूजा, जात कर्म संस्कार उपाकर्म, हेमाद्री संस्कार, श्रावणी, वस्तुओं की अदला-बदली, रसोई बनाने की क्रिया, इष्ट देवता का पूजन, जलदान, जल सेवा प्याऊ लगाना जैसे कार्य किये जा सकते हैं। किंतु, श्रावण पूर्णिमा पर रक्षा बंधन तथा फाल्गुन पूर्णिमा पर होलिका दहन भद्राकाल समाप्ति के बाद ही करना योग्य ठहराया गया है।