भविष्य पुराण में अशून्य शयन व्रत की मीमांशा की गई है। इस व्रत का अनुष्ठान श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारंभ होता है। इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य तथा पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है। यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा मोक्ष प्रदाता है। इस व्रत का विधान स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए ही है। अशून्य शयन का अर्थ है - स्त्री का शयन पति से शून्य तथा पति का शयन पत्नी से शून्य नहीं होता। दोनों का ही यावज्जीवन विशुद्ध साहचर्य बना रहता है। भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी का नित्य-निरंतर साहचर्य रहता है। इसलिए पति-पत्नी के नित्य साहचर्य के लिए दोनों को अशून्य शयन व्रत में श्रावण कृष्ण द्वितीया तिथि को लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की मूर्ति को विशिष्ट शय्या पर अधोस्थापित कर अनेक उपचारों द्वारा उनका पूजन करना चाहिए। व्रती को चाहिए कि श्रावण कृष्ण द्वितीया को प्रातः स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हो विधिवत संकल्प लेकर श्रीवत्सचिह्न युक्त चार भुजाओं से विभूषित, शेष शय्या पर स्थित लक्ष्मी सहित भगवान का षोडशोपचार पूजन करे। दिन भर मौन रहे, व्रत रखे और सायंकाल पुनः स्नान करके भगवान् का शयनोत्सव मनाए।
फिर चंद्रोदय होने पर अघ्र्यपात्र में जल, फल, पुष्प और गंधाक्षत रखकर निम्नांकित मंत्र से भगवान को अघ्र्य दे। गगनाङ्गणसंदीप क्षीराब्धिमथनोद्भव। भाभासितादिगाभोग रामानुज नमोऽस्तु ते।। हे रामानुज ! आपका अवतार क्षीर सागर के मंथन से हुआ है। आपकी आभा से ही दिशा-विदिशाएं आभासित होती हैं। गगन रूपी आंगन के आप सत्स्वरूपी देदीप्यमान दीपक हैं। आपको नमस्कार है। तदनंतर भगवान को प्रणाम करके भोजन करे। इस प्रकार प्रत्येक मास की कृष्ण द्वितीया को व्रत करके मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया को उस ऋतु में होने वाले मीठे फल सदाचारी ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दे। करौंदे, नीबू आदि खट्टे तथा इमली, नारंगी आदि स्त्री नाम के फल न दे। चंद्रमा लक्ष्मी का अनुज होने के कारण उसका प्रिय है। वह प्रत्यक्ष देवता है। उसके पूजन से लक्ष्मी प्रसन्न होती है। उक्त विधान के साथ जो व्यक्ति श्रावण मास से मार्गशीर्ष तक व्रत के नियमों का पालन करता है, उसे कभी स्त्री-वियोग नहीं होता और लक्ष्मी उसका साथ नहीं छोड़ती। जो स्त्री भक्तिपूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान करती है, वह तीन जन्मों तक न तो विधवा होती है और न दुर्भाग्य का सामना करती है। यह अशून्य शयन व्रत सभी कामनाओं की पूर्ति और उत्तम भोगों को प्रदान करने वाला है।
स्वयं नृपश्रेष्ठ रुक्मांगद ने इस व्रत का पालन कर सभी भोगों और कामनाओं को प्राप्त किया। इसकी कथा इस प्रकार है। कथा: एक समय राजा रुक्मांगद ने जन रक्षार्थ वन में भ्रमण करते-करते महर्षि वामदेवजी के आश्रम पर पहुंच महर्षि के चरणों में साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। राजा ने कहा, ‘महात्मन! आपके युगल चरणारविंदों का दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य कर्मों का फल प्राप्त कर लिया।’ वामदेव जी ने राजा का विधिवत सत्कार कर कुशल क्षेम पूछी। तब राजा रुक्मांगद ने कहा- ‘भगवन ! मेरे मन में बहुत दिनों से एक संशय है। मैं उसी के विषय में आपसे पूछता हूं, क्योंकि आप सब संदेहों का निवारण करने वाले ब्राह्मण शिरोमणि हैं। मुझे किस सत्कर्म के फल से त्रिभुवन सुंदर पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टि से कामदेव से भी अधिक सुंदर देखती है। परम सुंदरी देवी संध्यावली जहां-जहां पैर रखती हैं, वहां-वहां पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। वह सदा शरद्काल के चंद्रमा की प्रभा के समान सुशोभित होती है। विप्रवर ! बिना आग के भी वह षड्रस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं। वह पतिव्रता, दानशीला तथा सभी प्राणियों को सुख देने वाली है।
उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है। द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतल पर केवल मैं ही पुत्रवान हूं, जिसका पुत्र पिता का भक्त है और गुणों के संग्रह में पिता से भी बढ़ गया है। वह बड़ा ही वीर, पराक्रमी, साहसी, शत्रु राजाओं को परास्त करने वाला है। उसने सेनापति होकर छः माह तक युद्ध किया और शत्रुपक्ष के सैनिकों को जीतकर सबको अस्त्रहीन हीन कर दिया। पृथ्वी पर उसने जिन-जिन सुंदरियों, दिव्य अस्त्रों एवं वस्त्रों तथा खजाने को प्राप्त किया उन सभी वस्तुओं को लाकर मुझे समर्पित किया। इसी समर्पण भाव के कारण वह अपनी माता का भी प्रशंसनीय बन गया। वह एक ही दिन में अनेक योजन विस्तृत समूची पृथ्वी को लांघकर रात को मेरे पैरों में तेल मालिश करने के लिए पुनः घर लौट आता है। आधी रात में मेरे शरीर की सेवा करके वह द्वार पर कवच धारण करके खड़ा हो जाता है। मुनिश्रेष्ठ! मेरा यह शरीर भी नीरोग रहता है। किस कर्म के प्रभाव से मुझे इस समय यह अनंत सुख प्राप्त हुआ है? यह सत्कर्म इस जन्म का किया हुआ है या दूसरे जन्म का? ब्रह्मन ! आप अपनी बुद्धि से विचार कर मेरा पुण्य मुझे बताएं। भगवान के चरणों में मेरी भक्ति है। विद्वानों में मेरा आदर है।
मेरा पुत्र मुझसे बढ़कर सातों द्वीपों की पृथ्वी का पालक है। ब्राह्मणों को दान देने की मुझमें शक्ति है। अतः मैं ऐसा मानता हूं कि यह सब किसी (विशेष) पुण्यकर्म का फल है।’ राजा का यह वचन सुनकर महाज्ञानी मुनीश्वर वामदेवजी ने राजा के सुख सौभाग्य का कारण जानकर कहा ‘महीपाल ! तुम पूर्व जन्म में शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे। उस समय दरिद्रता तथा दुष्टभार्या ने तुम्हारा बड़ा अपमान किया था। राजन ! तुम ऐसी स्त्री के साथ बहुत वर्षों तक रहते हुए दुख से संतप्त होते रहे। एक समय किसी ब्राह्मण के संसर्ग से तुम तीर्थ यात्रा के लिए गए; फिर सब तीर्थों में घूमकर ब्राह्मण की सेवा में तत्पर हो, तुम पुण्यदायी मथुरापुरी में जा पहुंचे। महीपते ! वहां ब्राह्मण देवता के संग से तुमने यमुना जी के सब तीर्थों में उत्तम विश्रामघाट नामक तीर्थ में स्नान करके भगवान वराह के मंदिर में होती हुई पुराण की कथा श्रवण की, जो अशून्य शयन व्रत के विषय में थी, चार पारणों से जिसकी सिद्धि होती है, जिसका अनुष्ठान कर लेने पर मेघ के समान श्याम वर्ण देवेश्वर लक्ष्मीभर्ता जगन्नाथ, जो अशेष पाप राशि का नाश करने वाले हैं, प्रसन्न होते हैं।
राजन ! तुमने अपने घर लौटकर वह पवित्र एवं परम मंगलप्रदाता अशून्य शयन व्रत किया, जो घर में परम अभ्युदय प्रदान करने वाला है। महीपते ! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को यह पुण्यमय व्रत ग्रहण करना चाहिए। इससे जन्म, मृत्यु और जरावस्था का नाश होता है। पृथ्वीपते ! इस व्रत में फल, फूल, धूप, लाल चंदन, शय्यादान, वस्त्रदान और ब्राह्मण भोजन आदि के द्वारा लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। राजन ! तुमने यह दुस्तर कर्म भी पूरा किया। महीपते ! तुमने जो सुख विस्तार पूर्वक बताए हैं, वे सभी तुम्हारे पहले किए गए अशून्य शयन व्रत के फलस्वरूप प्राप्त हुए हैं। सुनो, जिसके ऊपर भगवान विष्णु प्रसन्न न हों, उसके यहां वे सुख निश्चय ही नहीं हो सकते। अतः राजन ! अशून्य शयन व्रत की बड़ी महिमा बताई गई है जो मैंने तुम्हारे कल्याणार्थ श्रवण कराई। जो भी श्रद्धा भाव से इस अशून्य शयन व्रत का पालन करता है उसे राजा की ही भांति संपूर्ण सुख-वैभव के साथ-साथ भगवान लक्ष्मीपति का परमधाम प्राप्त हो जाता है।