ग्रहों की शांति के लिए मुख्य रूप से दो प्रकार के उपाय किए जाते हैं- रत्न धारण एवं दान। जिस ग्रह से संबंधित रत्न धारण किया जाता है वह ग्रह उस जातक के जीवन में अधिक प्रभावषाली हो जाता है तथा जिस ग्रह से संबंधित दान किया जाता है उस ग्रह विषेष से होने वाली हानि का शमन होता है। प्रत्येक व्यक्ति को उस ग्रह से संबंधित दान करना चाहिए जो उसके लिए हानिकारक है तथा उस ग्रह का रत्न धारण करना चाहिए जो उसके लिए लाभदायक है।
लग्न भाव, तृतीय भाव एवं अष्टम भाव आयुर्भाव हैं और यही कारण है कि इन आयुर्भावों का व्यय करने वाले इनसे द्वादष भाव क्रमषः द्वादष, द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक हैं । इसके अतिरिक्त चर लग्नों यथा मेष, तुला, कर्क और मकर में एकादष भाव बाधक है, स्थिर लग्नों यथा वृष, वृष्चिक, सिंह और कुभ में नवम भाव तथा द्विस्वभाव लग्नों यथा मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन में सप्तम भाव बाधक है। प्रत्येक जातक को अपनी जन्मपत्रिका के अनुसार बाधक एवं मारक ग्रहों से संबंधित दान करना आवष्यक है।
यह दान उस समय और भी ज्यादा आवष्यक हो जाता है जब इन ग्रहों का प्रभाव विषोंत्तरी दषा के कारण व्यक्ति पर चल रहा हो। ग्रहों का विषिष्टीकरण किया जाना चाहिए तथा तदनुसार ही दान अथवा रत्न धारण किया जाना चाहिए। विषिष्टीकरण से आषय ग्रह विषेष की पूर्ण जांच से है। यथा कन्या लग्न की कुंडली में सप्तम भाव बाधक भी है और मारक भी। ऐसी स्थिति में सप्तमेष तथा सप्तम में बैठे ग्रह एवं वह ग्रह जिसके नक्षत्र में सप्तम भाव में ग्रह बैठा है, इन तीनों का दान आवष्यक है।
अब यदि सप्तम भाव में शुक्र मीन राषिस्थ एवं रेवती नक्षत्र में और बुध मीन राषिस्थ एवं उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में विराजमान है तो ऐसी अवस्था में विषिष्टीकरण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि ग्रह विषेष का संपूर्ण अध्ययन कर उसकी प्रकृति तथा क्षमता का पूरा जायजा लिया जा सके। उक्त उदाहरण में शुक्र एवं बुध का अवलोकन करें तो पाएंगे कि सप्तम में बैठा शुक्र उच्चस्थ होकर बुध के नक्षत्र में और बुध नीचस्थ होकर शनि के नक्षत्र में तथा दोनों बृहस्पति की राषि में हैं।
यहां पर दान बृहस्पति प्रधान तत्व का किया जाना है। साथ ही बुध के प्रभाव युक्त उच्चस्थ शुक्र एवं शनि के प्रभाव युक्त नीचस्थ बुध का भी समावेष किया जाना है। शनि के नक्षत्र में उपस्थित बुध, किसी प्राचीन मंदिर में स्थित भगवान गणेष की प्रतिमा का द्योतक है, बुध के नक्षत्र में शुक्र हरीतिमा युक्त मीठे पकवान का तथा बृहस्पति घृत का द्योतक है। इस परिस्थिति में किसी जीर्ण एवं पुराने गणेष मंदिर में घृत से तैयार किए गए हरीतिमा युक्त मीठे पकवान का भोग नित्य प्रति लगाना लाभदायक रहेगा।
इसी प्रकार समस्त बाधक एवं मारक ग्रहों का दान विषिष्टीकरण के आधार पर किए जाने पर लाभ देखने में आए हैं। इसके अतिरिक्त किसी लाभकारी एवं कारक ग्रह के रत्न और उससे संबंधित वस्तुएं एवं वस्त्र धारण करने से उस ग्रह विषेष के फल अधिक प्रभावषीलता से प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए यदि नौकरी में बाधा है अथवा नौकरी मिल नहीं रही है तो निष्चित रूप से दषम भाव एवं छठे भाव से संबंधित समस्या है किंतु यदि नौकरी में समस्या यह है कि वेतनवृ़िद्ध समय पर नहीं हो रही है
तो यह समस्या एकादष भाव एवं द्वितीय भाव से देखी जानी चाहिए। जातक की विंषोत्तरी दषा में अंतर एवं प्रत्यंतर के साथ ही उसकी समस्याओं में भी परिवर्तन होता रहता है। किंतु कईं बार यह देखने में भी आता है कि एक ग्रह विषेष किसी जातक की कंुडली में किसी कारक भाव का स्वामी होने के साथ ही किसी बाधक भाव का भी कारक होता है।
ऐसी स्थिती में ज्योतिषीय उपाय यदि संपूर्ण सावधानी से न किया जाए तो अनर्थ हो सकता है। जैसे किसी कुडली में दषम भाव का कारक ग्रह मारक या बाधक भाव का सिग्नीफिकेटर भी हो सकता है।
ऐसी स्थिति में ऐसे ग्रह का उपाय अत्यंत सावधानी के साथ किसी अनुभवी ज्योतिर्विद के मार्गदर्षन में ही करना चाहिए। एकादषेष का रत्न धारण करना सर्वदा हानिरहित हो यह मानना भी गलत होगा। कुछ स्थितियों में जब जातक के कार्य में अत्यंत बाधाएं आ रही हो तब सामान्य रूप से ज्योतिषीगण एकादषेष या एकादष भाव में उपस्थित ग्रह का रत्न धारण करने की सलाह देते हैं।
किंतु चर लग्नों यथा मेष, कर्क, तुला एवं मकर में एकादषेष का रत्न धारण करने से पूर्व यह देखना आवष्यक है कि वह किसी अन्य प्रकार से भी फलदायक हो रहा है या नहीं। क्यों कि सामान्य रूप से चर लग्नों में एकादषेष बाधक स्थानाधिपति होता है।
इस बाधक स्थानाधिपति के अन्यथा समुचित रूप से फलदायक नहीं होने की स्थिति में यदि इसका रत्न धारण किया जाता है तब यह निष्चित रूप से बाधाओं में वृद्धि करता है। संतान प्राप्ति के लिए स्त्री जातक की कुंडली में जहां पंचव भाव का विचार किया जाना चाहिए वहीं पुरूष जातक की कुंडली में सप्तम का पंचम अर्थात एकादष भाव का विचार किया जाना चाहिए।
दोनों ही परिस्थितियों में यह देखा जाना चाहिए कि पंचमेष अथवा एकादषेष का प्रभाव बढ़े तथा इन भावों के बाधक, मारक एवं व्ययकारक भावों में उपस्थिति ग्रहों तथा इन भावों के स्वामियों का विषिष्टिकरण के आधार पर दान किया जाए। इस प्रकार से निष्चित रूप से लाभ प्राप्ति होती है।