विवाह पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही होता है। यह एक पवित्र और मजबूत बंधन है। इससे मजबूत बंधन कोई नहीं और बंधन टूटे तो एक मिनट में टूट जाता है बंधन मजबूत जरूर है परंतु यह बंधन एक कच्चे धागे की तरह है। कच्चे धागे को यदि ज्यादा खींचें तो वह टूट जाएगा और यदि प्यार और प्रेम से रखें तो हमेशा आप के जीवन को सुखमय रखेगा। दाम्पत्य सुख का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।
इस भाव का स्थायी कारक ग्रह शुक्र होता है। इसलिए दाम्पत्य सुख का विचार सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र से किया जाता है। इन तीनों की स्थिति यदि लग्न कुंडली में अच्छी हो, तो वैवाहिक सुख अच्छा मिलेगा और इन तीनों में यदि एक भी पीड़ित हो, तो दाम्पत्य सुख में कमी आएगी। यह कमी ग्रह की पीड़ा के अनुपात में होगी। यदि तीनों ही पीड़ित हों, तो दाम्पत्य सुख प्राप्त नहीं होगा। लग्न कुंडली हमारे संचित कर्मों से बनती है। संचित वे कर्म होते हैं, जो हमने पिछले जन्मों में किए हैं।
अभी जो हम कर्म कर रहे हैं, उनका फल अगले जन्म में मिलेगा। ज्योतिष शास्त्र में गणना जन्म तिथि, जन्म समय और जन्म स्थान के आधार पर की जाती है। एक अच्छा ज्योतिषी बच्चे के पैदा होते ही गणना कर के उस के पूरे भविष्य के बारे में बता देता है। लग्न कुडली में जो भाव, भावेश व भाव कारक अच्छी स्थिति में हों, उस भाव के जीवन में अच्छे फल मिलेंगे और जो भाव, भावेश व भाव कारक अशुभ स्थिति में हों, उसके फल नहीं मिलेंगे। अशुभ स्थितियां कई प्रकार की होती हैं। हमें सभी प्रकार के पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए। यहां इनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत है।
1. सबसे पहले उपग्रहों पर विचार करना चाहिए कि सप्तम भाव में कोई उपग्रह तो नहीं बैठा है- विशेष कर मांदी (गुलिक) या धुम। ये दोनों उपग्रह सप्तम भाव को ज्यादा प्रभावित करते हैं और शादी ही नही होने देते। यदि धुम स्पस्ट और सप्तम भाव स्पष्ट की डिग्रियां समान हों, तो ऐसे व्यक्ति का विवाह नहीं होता और अनुकूल गोचर होने की वजह से होता भी है तो व्यक्ति संन्यास ले लेता है, अर्थात वैवाहिक संबंध समाप्त हो जाते हैं।
2. सप्तम भाव में बैठे ग्रह भी दाम्पत्य सुख में बाधा पहुंचाते हैं और एक से अधिक संबंध बना देते हैं या संबंध को तोड़ देते हैं, या फिर संबंध रहते आपस में प्रेम नहीं रहता। यह सब ग्रहों की सप्रम भाव में स्थिति पर निर्भर करता है जैसे यदि सप्तम भाव में छठे, आठवें व 12वें भावों के स्वामी बैठे हों और उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि या प्रभाव न हो, तो व्यक्ति को जाया सुख नहीं मिलता है। इन उदाहरणों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है। सप्तमेश शुभ ग्रह से युत व दृष्ट न हो तथा छठे, आठवें व 12वें भावों में नीचस्थ हो, तो जाया सुख नहीं होता है अर्थात सप्तमेश या सप्तम भाव का संबंध छठे, आठवें व 12वें भावों से हो, तो व्यक्ति के सप्तम भाव में कमी रहती है। सप्तम भाव में पापी ग्रह या पापी भाव का स्वामी हो, तो जाया सुख में कमी रहती है।
3. शुक्र व मंगल की युति लग्न में, सप्तम भाव में या चंद्र के साथ या चंद्र से सप्तम भाव में हो, तो जाया सुख में कमी रहती है या सुख नहीं मिलता और शादी विलंब से होती है।
4. पंचमेश, सप्तमेश और द्वादशेश आपस में युति करते हों या एक साथ सम सप्तम बैठकर दृष्टि संबंध बनाते हों, तो व्यक्ति का प्रेम विवाह होता है। इस युति या दृष्टि संबंध में यदि शुभ ग्रह या शुभ भावों के साथ संबंध बनाते हों, तो विवाह सफल होता है और यदि अशुभ ग्रह शुभता रहित संबंध बनाते हैं, तो संबंध ज्यादा समय नहीं चलता है।
5. यदि लग्न, चंद्र लग्न व सप्तम भाव तीनों में द्विस्वभाव राशि हो और किसी प्रकार का सप्तम भाव पर शुभता का अभाव हो, तो दो पत्नियां होती हैं, अर्थात एक से संबंध समाप्त हो जाता है और फिर दूसरी शादी होती है, या फिर एक के रहते भी दूसरी पत्नी हो सकती है। इस तरह सुख में कमी रहती है क्योंकि द्विस्वभाव लग्न में सप्तम भाव बाधक होता है। पत्नी का हस्तक्षेप सभी कार्यों में ज्यादा रहता है।
6. लग्नेश, सप्तमेश, चंद्र लग्नेश व शुक्र चारों द्विस्वभाव राशि में हों, तो जातक के दो विवाह या दो स्त्रियां होती हैं अर्थात सुख में कमी रहती है।
7. अष्टक वर्ग में सप्तम व द्वादस भावों में यदि 22 या 22 से कम बिंदु हों, तो व्यक्ति का तलाक हो जाता है और दाम्पत्य सुख में कमी रहती है। यदि सुख है तो सप्तम भाव, भावेश व भाव कारक शुक्र तीनों ही अच्छी स्थिति में हैं, परंतु कमी जरूर रहेगी। जीवन साथी अपने से कमी वाला मिलेगा और उससे पूरा सुख नहीं मिलेगा। वक्री गुरु: जिन बहनों का बृहस्पति वक्री होता है उनके सुहाग सुख में कमी रहती है। ज्यादातर ऐसी बहनों का तलाक हो जाता है क्योंकि शुभ ग्रह यदि अति शुभ हो जाते हैं, तो अपने स्वभाव के विपरीत फल देते हैं। इसी प्रकार अशुभ ग्रह वक्री हों, तो अपने स्वभाव के विपरीत शुभफल देते हैं।
8. तात्पर्य यह कि सब कुछ यदि ठीक है, तो भी दाम्पत्य सुख में कमी रहती है। इसका सब से बड़ा कारण है, मुहूर्त का ध्यान न रखना या बिना मुहूर्त के जब मरजी शादी कर लेना। मुहूर्त शादी के बंधन को मजबूत करता है और अशुभता में कमी लाता है। किंतु मुहूर्त का पालन करने पर भी सुख में कमी देखी गई है। इसका प्रमुख कारण विवाह स्थल पर पवित्रता का न होना है। बराती मदिरापान किए होते हैं, जूते पहने रहते हैं, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का सब चलते रहते हैं तथा लड़के-लड़की आपस में छेड़खानी व मजाक करते रहते हैं और पंडित जी को तंग करते रहते है
इससे मंत्र उच्चारण में बाधा आती है। यदि सब कुछ ठीक हो जाए तो घर आकर नव दंपति अपने देवी देवता पितरों को ठीक ढंग से विदा किए बिना ही अपने कमरे में या होटल में बंद हो जाते हैं। बड़े आदर से शादी से पहले रस्म अदा की जाती है और देवता पितरों को आमंत्रित किया जाता है, परंतु उन्हें विदा करना भूल जाते हैं।
फलतः वे शाप देते हैं और दाम्पत्य सुख को प्रभावित करते हैं। हम सरदारों, ईसाइयों व मुसलमानों का उदाहरण देते है कि वे तो कोई मुहूर्त नहीं देखते, न करते। सरदार गुरुद्वारे में ग्रंथ साहिब के फेरे लेते हैं और पूर्ण पवित्रता का ध्यान रखते हैं। गं्रथ साहिब विष्णु भगवान हैं वे शुभ कार्य दोपहर 12 बजे करते हैं, 12 बजे सूर्य बली होता है और दशम भाव में होता है। इसी प्रकार चर्च में जिस समय प्रार्थना हो रही होती है
उस समय ऐसा लगता है मानो स्वयं भगवान आने वाले हों। किसी का उदाहरण देने से पहले हमें अपने आप को जरूर देखना चाहिए। हमारे यहां तो शादी में लाखों रुपये खर्च करते हैं। ढोल बाजे वालों पर खूब पैसे उड़ाते हैं, परंतु पंडित जो आप को आशीर्वाद देगा, उस की दक्षिणा पर झगड़ा होता है। तो मुहूर्त का पूरा फल कैसे मिलेगा। इसलिए कितने ही अशुभ ग्रह सप्तम में पड़े हों या अशुभ योग बना रहे हांे विवाह में मुहूर्त व परंपरा का ध्यान रखें व विधिपूर्वक इस कार्य का संपादन करें, भगवान जरूर सुख देगा।