विवाहेतर संबंधों पर ज्योतिषशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित ग्रहयोग प्रभावी होते हैं- विŸाास्तारिपभार्गवास्तनुगताः पापान्विताः कामुकः। पापत्यौमचरान्वितौ तनुरिपुस्थानाधिपौ चेतथा।। (जा.पा.) द्वितीयेश, सप्तमेश, षष्ठेश और शुक्र पापग्रह से युक्त होकर लग्न में हो, तो जातक कामी होता है, लग्नेश और षष्ठेश पापग्रह से युक्त हो, तो भी व्यक्ति कामी होता है। कामस्थे रिपुविŸालग्नपयुते पापे परस्त्रीरतः। पापारतिकलŸापा नवमगाः कामातुरौ जायते।। (जा.पा.) कोई पाप ग्रह षष्ठेश, धनेश और लग्नेश से युक्त होकर सप्तम भाव में हो, तो व्यक्ति पर स्त्रीगामी होता है।
पापग्रहों के साथ, षष्ठेश और सप्तमेश अगर नवम भाव में हों, तो व्यक्ति कामातुर होता है। जीवज्ञौ यदि वा निशाकर सितो कामे वहुस्त्रीरतः। शुक्रे मन्मथराशिगौ वलवति स्त्रीणां बहुनांपतिः।। यदि गुरु, बुध व चंद्र सप्तम में हो, तो बहुत स्त्रीयों से भोग करें। बलवान शुक्र सप्तम में हो, तो बहुत स्त्रीयों का पति हो। नवम, द्वितीय और सप्तम भाव के स्वामी यदि दशम भाव में स्थित हों, तो जातक परस्त्री रत होता है। बृहस्पति और बुध अथवा चंद्र, शुक्र यदि सप्तम भाव में संयुक्त हों, तो जातक एकाधिक स्त्रीयों में रत होता है। यदि शुक्र शत्रु भाव में शनि राहु, मंगल से पीड़ित हो और शुभ ग्रहों की युति या दृष्टि न हो तब जातक का पत्नी के अलावा भी शारीरिक संबंध होते हैं। जब पीड़ित शुक्र सप्तम भाव में या सप्तमेश राहु से दृष्टि या युति का संबंध रखता हो तब व्यक्ति के एकाधिक संबंध होते हैं।
जब द्वितीयेश व सप्तमेश शुक्र के साथ लग्न भाव में और शुभ दृष्टि रहित हो तो स्त्री या पुरुष का संबंध संदिग्ध रहता है। जब शुक्र, शनि या मंगल की राशि में या दृष्ट हो, शुभ दृष्टि न हो तो व्यक्ति चरित्रहीन हो सकता है। सप्तम भाव में शुक्र के ऊपर शनि, राहु, केतु का प्रभाव हो तो जातक चरित्रहीन होता है। नवमेश, शुक्र या चंद्र से युति रखता व बुरे प्रभाव में हो, तब जातक के अनैतिक संबंध हो सकते हैं। सप्तमेशे तनौ चास्ते परजायासु लम्पटः। (पाराशर) सप्तमेश लग्न या सप्तम में हो जातक परस्त्री में आसक्त रहता है। द्यूनेशे नवमे विŸो नानास्त्रिभिः समागत। (पाराशर) सप्तमेश, नवम या दूसरे भाव में हो, तो जातक के अनेक स्त्रीयों से संबंध रहते हैं। यदि स्त्री की कुंडली में मंगल व शुक्र में राशि परिवर्तन या नवांश परिवर्तन हो तब स्त्री परपुरुषगामिनी होती है।
यदि स्त्री की कुंडली में सप्तम भाव में चंद्र, शुक्र व मंगल की युति हो, तब जातिका परपुरुषगामिनी होती है। यदि सप्तम भाव में चंद्र स्थित हो तथा वह मंगल या शनि के नवांश में हो, तो स्त्री पति की सहमति से परपुरुष से संबंध रखती है। सप्तम भाव में सूर्य व मंगल कर्क राशि में हो, तो स्त्री पति की आज्ञा से परपुरुषगागिनी होती है। लग्न, चंद्र व लग्नेश तीनों ही चर राशि में हो तथा पाप पीड़ित हो, तो ऐसी स्त्री विवाह के पूर्व ही कई पुरुषों से शारीरिक संबंध बना चुकी होती है। परमोच्चगते सप्ताधिनाथे मन्दरासौ शुभ खेचरेण दृष्टे। वा भृगुसदने तुंडे बहुभार्यः प्रवदन्ति बुद्धिमन्तः।। (वृ.,पारा.हो.) सप्तमेश परमोच्च में होकर शनि की राशि में शुभ ग्रहों से देखा जाता हो या शुक्र की राशि में उच्च का हो, तो अनेक स्त्रियां होती है।
कलत्रस्थानगे भौमे शुक्रे जामित्रगे शनौ। लग्नेशे रन्ध्रराशिस्थे कलत्र त्रयवान भवेत।। (पा.हो.शा.) सातवे भाव में भौम, शुक्र हों और लग्नेश आठवे भाव में हो, तो तीन स्त्रियां होती है। शुक्र द्विस्वभाव राशि में हो, द्विस्वभाव राशि का स्वामी अपने उच्च में हो और सप्तमेश बली हो, तो अनेक स्त्रियां या संबंध होते हैं। विŸो पापबहुत्वे तु कलत्रे वा तथाविधे। तदीशे पाप सन्दृष्टे कलत्रत्रय भाग्भवेत।। (जा.पा.) द्वितीय स्थान में पाप ग्रह या उनकी दृष्टि, सप्तमेश पाप युक्त और शत्रु स्थान में केतु हो तो जातक या जातिका की तीन शादियां होती हैं। द्वितीय भाव पर केतु, षष्ठेश चंद्र का प्रभाव द्वितीयेश की केतु से युति व राहु की दृष्टि। सप्तम भाव में मंगल (मंगली कुंडली) सप्तमेश अष्ठम में षष्ठेश से युक्त। षष्ठ भाव में केतु स्थित हो। केन्द्रत्रिकोणे दारेशे स्वोच्चमित्र स्ववर्गगे। कर्माधिपेन वा दृष्टे बहुस्त्रिसहितो भवेत्।। (जा.पा.) सप्तमेश अपनी उच्च राशि, मित्रगृह, स्व वर्ग में होकर केंद्र त्रिकोण में हो व कर्माधिपति उसे देखता हो, तो जातक बहुत सी स्त्रियों से युक्त हो। शुक्र और सप्तम भाव के स्वामी से युक्त ग्रहों की संख्या तुल्य जातक की पत्नियां होती हंै। सप्तमेश सूर्य व शुक्र के साथ दो ग्रहों की युति। शुक्र व सप्तमेश द्विस्वभाव राशि में। सप्तम भाव में राहु। उक्त योग का समर्थन फलदीपिका भी करती है- यदि सप्तमेश और शुक्र द्विस्वभाव राशि में या नवांश में स्थित हो, तो जातक की दो शादी के योग बनते हैं। सप्तमेश व शुक्र से जितने ग्रहों का योग होता ततुल्य पत्नियां होती हैं।
सप्तम भाव, सप्तमेश व शुक्र लग्न व चंद्र कुंडली में कमजोर या दृष्टि या युति से दूषित हो बहु विवाह योग बनता है। सप्तमेश वक्री शनि द्वादश भाव में हो तथा शनि के ऊपर षष्ठेश गुरु की दृष्टि हो। बहु संबंध योग, एक जटिल एवं पेचीदा विषय है जिसके बारे में न ही जातक या जातिका से एक ज्योतिषी खुल कर बात कर सकता है, न ही संगोष्ठी में विचार हो सकता है।
हमारे प्राचीन ज्योतिष में सेक्स संबंध, अभिरुचि के बारे में बहुत से योग मिलते उन योगों का प्रैक्टिकल अनुभव कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है। महादशा एवं गोचर: जीवन के किसी भी क्षेत्र के बारे में निर्णय मात्र जन्म कुंडली के ग्रह योग के आधार पर करना भी अविवेक पूर्ण कार्य है। यदि 16 से 25-30 वर्ष की आयु तक ऐसी महादशा, अंतर्दशा या गोचरीय प्रभाव आता है तब ही एकाधिक संबंधों की संभावना अधिक रहती है। जलवायु (स्थान): बहुसंबंध के बारे में यदि विश्व स्तर पर विचार किया जाए सबसे अधिक पश्चिमी देशों में बहुसंबंध व वहु विवाह का प्रचलन है
कारण पश्चिम की वजह से तुला राशि (शुक्र) एवं शीत (चंद्र) का प्रभाव। ठीक उसी प्रकार मुंबई महानगर पर पश्चिम (तुला) एवं समुद्र शुक्र चंद्र का प्रभाव सर्वविदित है। लग्न: लग्न चूंकि शरीर है अतः स्वस्थ, शरीर एवं मस्तिष्क तथा पिट्यूटरी गं्रंथि, स्वभाव, चरित्र की कुंजी है अतः लग्न एवं लग्नेश के ऊपर बुरे ग्रहों की युति या दृष्टि से अशुभ प्रभाव होना आवश्यक है। द्वितीय भाव: चूंकि यह भाव वाणी, चेहरा, कुटुंब, आंखों से संबंध रखता है अतः शुभ प्रभाव आवश्यक है। बहु संबंध की शुरुआत यही से होती है। तृतीय भाव: यह भाव साहस, पराक्रम से संबंध रखता है।
अतः यह भाव एवं भावेश बली होना आवश्यक है। साथ में तृतीय भाव का कारक मंगल भी बली होना चाहिए। चतुर्थ भाव: यह भाव मन से संबंधित है। इसके अलावा दिल हृदय से संबंध रखता है। (कारक चंद्र) अतः भाव एवं भावेश पर मजबूत एवं दूषित ग्रहों का प्रभाव मानसिक रूप से अधिक संबंधों की रूपरेखा बनाते हैं। पंचम भाव: पंचम भाव प्रेम रोमांस, बुद्धि से संबंध रखता है। अतः बहु संबंध के लए यह भाव बली होना चाहिए। षष्ठ भाव: चूंकि यह भाव शत्रु वाधा से संबंधित होता है अतः भाव एवं भावेश मजबूत होना आवश्यक है। सप्तम भाव: यह भाव सेक्स विवाह, पत्नी एवं हार्मोंस ग्रंथियों से संबंध रखता है। अष्टम भाव: यह भाव गुप्त स्थानों, वस्तुओं एवं समस्याओं से संबंध रखता है। बहु संबंध दुनियां का सबसे गुप्त कार्य है
अतः भाव विशेष महत्वपूर्ण है। नवम भाव: नवम भाव ईश्वर, धर्म, लज्जा, मर्यादा, सामाजिक बंधन से संबंध रखता है। यदि नवम नवमेश एवं कारक गुरु मजबूत हो तब बहुसंबंध की संभावना कम हो जाती है। दशम भाव: यह भाव व्यक्ति के कर्म के बारे में बतलाता है। लेकिन बहुसंबंध के मामले में कम महत्व नहीं रखता है, क्योंकि अच्छे अच्छे पंडित, राजनेता, शिक्षक, डाक्टर के भी बहुसंबंध रहते हैं। एकादश भाव: चूंकि यह भाव मनोकामनाओं से संबंध रखता है यदि एकादश एवं एकादशेश पर दूषित प्रभाव, तो दूषित मनोकामनाएं जातक या जातिका की होती हैं।
क्योंकि कामना से ही कर्म होता है। द्वादश भाव: यह भाव व्यय शैयासुख, पार्टनर के शत्रु से संबंध रखता है। अतः यह भाव भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बहु संबंध के बारे में दो तीन भाव या भावेश एवं शुक्र मंगल या शनि के द्वारा ही निर्णय करना उचित नहीं होगा। बहुसंबंध अन्य योग: यदि मंगल और शुक्र की परस्पर युति हो या दृष्टि संबंध हो तथा तीसरे या चैथे भाव या नवम भाव में राहु हो तब जातक या जातिका के पड़ोस या मकान के आस पास बहुसंबंध हो जाते हैं।
यदि शुक्र और मंगल की युति या दृष्टि दशम भाव या भावेश से हो, सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि हो तो जातक या जातिका के व्यवसाय या नौकरी स्थल पर (पार्टनर के अतिरिक्त) बहुसंबंध हो जाते हैं। मंगल अथवा शनि तीसरे अथवा नवे घर में हों और चंद्र या शुक्र उनके साथ बैठे हो तब बहिन भाई (रिश्ते में) के बीच या साली (नवम) से पत्नी के अतिरिक्त संबंध हो जाते हैं। मंगल अथवा शुक्र षष्ठ भाव के स्वामी हो या स्थित हो उनका चंद्र या शुक्र से योग हो तब मामा या मामी का भानजी या भानजे से संबंध हो सकता है।
यदि चंद्र से दसवें स्थान में शुक्र हो और शुक्र से दसवे स्थान में शनि हो तब अनैतिक शारीरिक संबंध मालिक नौकरानी या नौकर के बीच होते हैं। (1) जब लग्न तृतीय, सप्तम, नवम, पंचम भाव पर राहु, केतु का प्रभाव चंद्र, गुरु, शनि मंगल का अशुभ भाव में योग हो तब बहु संबंध योग होता है। अतः एकाधिक विवाहेतर संबंधों के बारे में ज्योतिषीय दृष्टिकोण से विचार करते हुए उपरोक्त तथ्यों का ध्यान रखना समीयीन होगा। ु