तंत्र विद्या एक ऐसी विद्या है, जिसे बिना समझे हम इसका उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि तंत्र शरीर की वह क्रिया है, जिसके द्वारा हम ऐसे कार्य करने में सक्षम हो सकते हैं जो अन्य साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता। तंत्र का इतिहास वर्षों पुराना है। तंत्र जागृति के द्वारा हमारे पूर्वजों ने ब्रह्मांड के बारे में जानकारी ली। तंत्र तत्वज्ञान है, जिसके द्वारा हम अपने ऊर्जा स्रोतों को जाग्रत करते हैं। इस ऊर्जा से मानव अपने अंदर एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न कर लेता है, जिसके द्वारा वह ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्य को भेदकर कई चमत्कारिक प्रयोग सफलतापूर्वक कर सकता है। इस क्रिया को करने में पूर्ण शारीरिक गतिविधियों को केंद्रित करना पड़ता है। जिस प्रकार ऊर्जा एक सर्किट के द्वारा बनती है और यदि ऊर्जा तरंगंे रुक जाएं तो सर्किट पूर्ण नहीं होता उसी प्रकार हम अपनी शारीरिक क्रियाओं द्वारा अपने ऊर्जा क्षेत्र को जगाकर तरंगों द्वारा एक आज्ञा चक्र का निर्माण करते हैं और यदि यह आज्ञातंत्र नहीं जग पाता तो मनुष्य पागल जैसा हो जाता है। सिद्ध योगी, अघोरी, पूर्ण महात्मा इस बात को अच्छी तरह समझते हैं, तभी तो इस प्रणाली को गुप्त रूप से करते हैं तथा इसे आम या जनसाधारण को नहीं बताते। नहीं तो हर कोई इस क्रिया के द्वारा अपने शरीर की व्यवस्था को अनियंत्रित कर सकता है।
तंत्र का अपना एक अलग क्षेत्र है, इसकी विधि अलग है या कहें कि अपना उपास्य है। योग, भक्ति, सिद्धि सारे आत्मदर्शन के विषय तंत्र से संपादित हो जाते हैं। तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कूर्म चक्र को विशेष स्थान दिया गया है। कुछ लोग कूर्म चक्र के संस्कृत श्लोकों के विभिन्न अर्थ लगाकर अपने तंत्र ज्ञान की महत्ता स्थापित करन के लिए प्रत्नशील रहते हंै पर उनमें से आधे भी नहीं जान पाते कि कूर्म चक्र क्या है। कूर्म चक्र प्राकृतिक रूप से किसी इकाई में बनने वाला एक प्रकार का ऊर्जा चक्र है। इस कार्य को करने के लिए एक विशेष आसन क्षेत्र का निर्धारण किया जाता है, निर्धारण होने पर इष्ट देवता एवं गुरु का संकल्प लेकर अभिमंत्रित जल से शुद्ध करके मंत्र द्वारा सुरक्षित किया जाता है। तंत्र विद्या की उत्पत्ति पृथ्वी के उत्पन्न होते ही हो गई थी। यह सब जीवों में एक समान होती है। मानव सभी जीवों में ज्यादा समझदार एवं विवेकशील है, इसलिए वह इस क्रिया को करने में सक्षम है। जब तक कोई इसे पूर्ण रूप से समझ नहीं पाता तब तक उसका पूर्ण विश्वास एवं एकाग्रता जाग्रत नहीं हो सकती। बिना विश्वास एवं एकाग्रता से कोई कार्य सफल नहीं हो सकता क्योंकि इस एकाग्रता और विश्वास को जगाने के लिए मनुष्य को अथक प्रयास करने पड़ते हैं।
इसलिए ऐसी जानकारी कोई किसी को नहीं देता। अधूरे ज्ञान से अज्ञानी अपने प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ सकता है। इसलिए असफल लोग इस विज्ञान को एक अप्राकृतिक क्रिया का पाखंड भी कहते हैं। ब्रह्मांड रहस्य में इस विषय पर काफी जानकारी है। तंत्र क्रिया द्वारा जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसमें से एक तरंग एवं सूक्ष्म कण निकलते हैं जिनके द्वारा साधक एक अजीब अवस्था में आता है। ये तरंगंे व्यक्ति को सूर्य, चंद्र, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से अलग करती हंै। जब साधक गुरुत्वाकर्षण के बाहर होता है तो वह मनचाहा कार्य करने में सक्षम हो जाता है। इसके लिए हवन एवं मंत्र की भी आवश्यकता होती है। आज विज्ञान ने भी काफी तरक्की कर ली है। जिसमें इन तरंगों की भूमिका अहम है। तरंगों द्वारा संचालित संचार व दूरदर्शन माध्यमों से विश्व भर की जानकारी हम घर बैठे प्राप्त कर लेते हंै। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनि या सिद्ध पुरुष तंत्र विद्या के गहन अध्ययन से हर बात की जानकारी प्राप्त कर लेते थे। लेकिन आज जो तंत्र क्रिया के रहस्य को जान लेते हैं। वे कई जानकारियां सरलता से पा लेते हैं। हवन एवं मंत्र द्वारा इसी तरह हम हवा में तरंग उत्पन्न करते हैं। और हवन व जप द्वारा जिस कार्य को चाहंे उसे सिद्ध कर लेते हैं।
इसलिए हवन की रात, उसके धुएं व चरणामृत को भी चमत्कारिक माना गया है। अनुष्ठान में उपयोग सामग्री एक विशेष प्रकार की तरंगें उत्पन्न करने में सहायक होती है। हमारे ग्रंथों में लिखा है कि बकरे, खरगोश और भैंसे में दुर्गा, सरस्वती और काली की तरंगें अधिक होती हैं। इसी प्रकार जडी़-बूटियों एवं समिधा का भी अलग महत्व है। इन सबसे उत्पन्न तरंगों को प्राप्त कर मानसिक ऊर्जा द्वारा किसी भी लक्ष्य को पाने से ही तंत्र के चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। इसलिए जो लोग इसे जानना चाहते हैं उन्हें स्वयं जानने के लिए प्रयत्न करना करना चाहिए। पेड़ पौधे तरंगंे छोड़ते हैं। उनके पास जाने से मनुष्य की तरंगें भी उनकी तरंगों से जुड़ जाती हैं। दोनों तरंगों को साधारण मनुष्य भी जान सकता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति नीम एवं इमली के पेड़ के पास जाकर अनुभव कर सकता है। रुद्राक्ष के बारे में तो हर व्यक्ति जानकारी रखता है। तंत्र शास्त्र में रुद्राक्ष का महत्व भी है। रुद्राक्ष के मुखों के अनुसार उसकी ऊर्जा होती है। तंत्र भी एक प्रकार की चमत्कारिक ऊर्जा उत्पन्न करने की क्रिया है। रुद्राक्ष धारण करने से हमारे शरीर की ऊर्जा एवं रुद्राक्ष की ऊर्जा मिलकर हमारे दिल, दिमाग और शारीरिक क्रियाओं को अधिक गतिवान एवं ऊर्जावान बना देती है।
इसी प्रकार एक बांदा तंत्र है। बांदा एक प्रकार की वनस्पति है जो भूमि पर न उगकर किसी वृक्ष पर उगती है। यह परजीवी है अर्थात यह दूसरे पौधे पर उत्पन्न होकर उसके गुण, धर्म व ऊर्जा ग्रहण करती है। बांदा आम, जामुन, महुआ आदि पेड़ों पर आसानी से देखा जा सकता है। तंत्र शास्त्र में वृक्ष भेद के अनुसार उस पर उगे बांदा के प्रयोग व प्रभावों का विस्तार से वर्णन है। बांदा में दो वनस्पति समूहों का मिश्रण होने से एक अलग शक्ति बनती है जो 1$1 दो न होकर 11 की शक्ति के बराबर होती है। बच के बांदे से व्यक्ति अपनी वाक् शक्ति बढ़ा सकता है तो साखोट का बांदा सिद्ध करने के पश्चात् एक अदृश्य शक्ति प्रदान करता है जिसके द्वारा हम भूगर्भ की जानकारी ले सकते हैं। कैथ के पेड़ का बांदा धारण करने से व्यक्ति शस्त्र-घात होने पर भी नहीं मरता। अशोक का बांदा व्यक्ति में शक्ति का संचार करता है। अनार का बांदा घर में होने से दुष्ट ग्रहों का प्रकोप, नजर टोना आदि प्रभावी नहीं होते। इस प्रकार हम तंत्र द्वारा उत्पादित ऊर्जा अलग-अलग क्षेत्र में प्राप्त कर सकते हैं। वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में से एक लाख श्लोक ही भारत में हंै। तंत्र विद्या भारत में ही नहीं अपितु नेपाल, जापान, चीन, भूटान में भी विभिन्न रूपों में देखने को मिलती है।
तंत्र को तिब्बती भाषा में शृंगयुद कहा जाता है। यह ग्रंथ 98 भागों में है। इनमें कई ग्रंथों का भारतीय ग्रंथों में अनुवाद है। योग भी एक प्रकार की तांत्रिक क्रिया है, जिसके द्वारा हम अपने अंगों में ऊर्जा जाग्रत करते हैं तथा उससे लाभान्वित होते हैं। योग द्वारा सूक्ष्म कणों को जोड़कर जो ऊर्जा हम एकत्रित करते हैं वह हमारे मानसिक तनाव एवं शारीरिक पीड़ा को तो कम करती ही है, साथ ही हमें एक अलग ऊर्जा भी देती है जो आज के युग की व्यस्तता में हमारी सहायता करती है। यौगिक क्रिया भी तंत्र में समाहित है। तांत्रिक प्रयोगों को ज्यादा शक्तिशाली या ऊर्जावान बनाने के लिए कई प्रकार का एवं कई जगहों का जल, पत्ते, बांदे, फूल, जड़ आदि काम में लिए जाते हैं। तांत्रिक प्रयोग के लिए फल, फूल, जल, औषधि आदि नियत समय पर विधिपूर्वक ही लाने चाहिए। जिस दिन जो वस्तु लानी हो उसे एक दिन पहले शुद्ध एवं पवित्र होकर भक्तिभाव से निमंत्रण दे लेना चाहिए। कुएं में, बिल में, मंदिर एवं श्मशान में स्थित वृक्ष अच्छे नहीं होते। आवश्यकता से अधिक या कम, बिना ऋतु के उत्पन्न और कीड़ों द्वारा खाई गई जड़ी-बूटी, फल, पत्ते आदि नहीं लेने चाहिए। एकांत स्थान और स्वच्छ वातावरण की लाई, हुई वस्तु ही श्रेयस्कर होती है। शरद व हेमन्त में छाल व जड़, शिशिर में फूल व मूल, बसंत में फूल व पत्ते और ग्रीष्म में फल एवं बीज ग्रहण करने चाहिए। तंत्र के द्वारा काम उपासना करने वाले को चाहिए कि वह मन और कर्म से शुद्ध, सात्विक, परोपकारी व निराहार रहे।
प्रयोग के समय जो अनुभव करे वह अपने गुरु से ही कहे, दूसरे व्यक्ति को कहने से उसे कार्य पूर्ण करने में बाधा भी आ सकती है। वशीकरण के प्रयोगों में साध्य की कामना अवश्य करनी चाहिए। किसी भी प्रयोग के लिए विश्वास जरूरी है। श्रद्धा, गुरु पूजन, सबके प्रति सम्मान भाव, परोपकार, इंद्रियों पर नियंत्रण और अल्प भोजन भी आवश्यक है। तंत्र में विभिन्न जड़ी बूटियों का भी प्रयोग होता है। उनके देवता अलग-अलग हैं। इसलिए देवों के देव योगीराज शंकर को नमस्कार कर लेना चाहिए। तांत्रिक प्रयोगों में इष्ट देवता और यंत्र का पूजन आवश्यक है। षोडशोपचार में अघ्र्य, आचमन, तर्पण, गंध, पुष्प, नैवेद्य, तांबूल, दक्षिणा, स्तोत्र, नमस्कार आदि आवश्यक हैं। पंचमी व पूर्णिमा को अभिचार, द्वितीय व षष्ठी को उच्चाटन, तृतीय व त्रयोदशी को आकर्षण, चतुर्थी व चैदस को स्तंभन और एकादशी व द्वादशी को मारण कर्म का विधान है। तंत्र के लिए अमावस्या, ग्रहण योग, एकांत आदि का भी विशेष महत्व है। ग्रहण काल व अमावस्या को आसन पर बैठकर साधक जो क्रियाएं करता है उनका फल शीघ्र मिलता है क्योंकि उस समय सूर्य या चंद्रमा का बल कमजोर होता है। आसन पर बैठकर वह अपनी ऊर्जा को पृथ्वी के भीतर नहीं जाने देता।
सूर्यग्रहण पर सूर्य से निकलने वाली किरणों एवं ऊर्जा का ह्रास होने से तांत्रिक अपने द्वारा उत्पन्न ऊर्जा की सक्रियता को बढ़ा लेता है। इसी तरह अमावस्या को चंद्र की शक्ति का ह्रास होता है। उसके गुरुत्वाकर्षण के अभाव में साधक अपनी ऊर्जा द्वारा जो भी तांत्रिक क्रिया करता है, उसमें शक्ति ज्यादा होती है। इसलिए तांत्रिक क्रियाएं रात में ज्यादा की जाती हैं तथा वे ज्यादा प्रभावशाली होती हैं। ध्यान रहे, तांत्रिक क्रिया कभी भी अकेले और गुरु के बिना नहीं करनी चाहिए क्योंकि तंत्र-मार्ग में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। तंत्र साधक की अपने गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा होने पर ही उसके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं में कोई गलती रह भी जाए तो उसे गुरुदेव दूर कर देते हैं। गुरु का तप प्रभाव कवच बनकर सदा शिष्य की रक्षा करता रहता है। तांत्रिक प्रयोग द्वारा अपने अंदर अलौकिक ऊर्जा का समावेश सांसारिक बंधनों से मुक्त होने में सहायक होता है। तंत्र विद्या में सात्विकता का आज के युग में अधिक ध्यान रखना चाहिए। तामसिक क्रिया द्वारा जहां जल्दी फल मिलता है वहीं हानि होने की संभावना भी रहती है। तंत्र साधना से पूर्व साधकों को अपने जन्मकालीन ग्रहों का विश्लेषण करवा लेना चाहिए, यह जानने के लिए कि वह साधना में सफल होगा या असफल। अगर सफल होगा तो किस साधना या उपासना में। बिना सोचे समझे किया गया प्रयास नुकसान पहुंचा सकता है।
Û गुरु व बुध दोनों ग्रह शुभ राशि में स्थित हांे तो व्यक्ति ब्रह्म से साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है।
Û दशमेश का शुक्र या चंद्र से संबंध हो तो दूसरों की सहायता से साधना, उपासना में सफलता मिलती है।
Û दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो, तो व्यक्ति कैसी भी तांत्रिक क्रिया करे, उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
Û दशमेश दो शुभ ग्रहों के बीच हो, तो साधक को साघना के क्षेत्र में सम्मान मिलता है।
Û गुरु श्रेष्ठ हो, तो साकार ब्रह्म उपासना में सफलता मिलती है। यदि लग्न या चंद्रमा पर शनि की दृष्टि हो, तो सफल साधक हो सकता है।
Û जन्मकालीन कुंडली में सूर्य बली हो, तो शक्ति उपासना करनी चाहिए, यदि चंद्र बली हो तो तामसी उपासना में सफलता मिलती है।
Û यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो, तो तंत्र साधना के साथ मंत्रोच्चारण की भी शक्ति मिलती है।
Û दशमेश शनि के साथ हो, तो व्यक्ति की तामसिक साधना फलदायी होती है।
Û आठवें घर का शनि साधक को मुर्दों की खोपड़ियों को साधना का माध्यम बनाने वाला तांत्रिक बनाता है।
Û यदि केंद्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हों, तो जातक प्रयत्न कर साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।