कष्ट, विपति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व् निवारण
कष्ट, विपति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व् निवारण

कष्ट, विपति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व् निवारण  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 7167 | सितम्बर 2006

कष्ट, विपत्ति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व शास्त्री सुधीर कुमार मोहे भा रतीय विचारधारा के अनुसार मनुष्य के वर्तम¬ान को उसका पूर्व कर्मफल प्रभ¬ावित करता है। उसके कष्टों के निम्नलिखित कारण बताए गए हैं: देव कोप, धर्मदेव, रोष, सर्पक्रोध, प्रेत कोप, गुरु- माता-पिता-ब्राह्मण श्राप, शब्द, भंगिमा, विष और अभिचार। यहां कष्टों और बाधाओं के कुछ प्रमुख ज्योतिषीय कारणों और उनके निवारण के उपायों का वर्णन प्रस्तुत है।

बाधा एवं कर्मदोष निर्णय: जन्मकुंडली के नौवें भाव से पूर्वजन्म का तथा पां¬चवें भाव से पुनर्जन्म व जन्मकुंडली के सर्वाधिक दुष्प्रभावित भावों व ग्रहों से पूर्वकर्मों का पता चलने पर उपयुक्त प्रायश्चित्त, पूजा, उपासना, व्रतोपवास आदि बताए जाते हैं। अनुष्ठान पद्धति के अनुसार अति दुष्ट ग्रह या भावेष के देवता के कोप से रोग होता है। अति दुष्ट ग्रहाधिष्ठित राषि में चन्द्र, सूर्य या गुरु के संचरण से रोग या कष्ट का आरंभ होता है और अति सुस्थ ग्रहाधिष्ठित राषि में प्रवेष से व सुस्थ ग्रह के देवता की उपासना से रोग या कष्ट से मुक्ति मिलती है।

रोग, कष्ट, विक्षिप्तता, अभिचार का मूल कारण: षारीरिक रोग, कष्ट, मानसिक विक्षिप्तता, अभिचार आदि का मूल कारण ग्रह है या मानव, इस प्रष्न का उत्तर जन्म या प्रश्नकालीन लग्नेश व षष्ठेश के राशि-अंश के योगफल पर निर्भर करता है। परमपुरुष के प्रतिनिधि देवगुरु बृहस्पति हैं। कंुडली में गुरु के षुभ होने से देवता अनुकूल अन्यथा प्रतिकूल फल देंगे। देवता के स्वभाव का निर्णय उनके ग्रहों से संबंधानुसार इस प्रकार करें।

दुःस्थान, बाधाराशि व बाधक: कुं¬डली के छठे, आठवें व 12वें भावों को दुःस्थान कहते हैं। इनमें बैठे ग्रह व भावेश के देवता के कोप से रोग या शोक होता है। मुक्ति हेतु ग्रह से संबंधित देवता की पूजा-अर्चना करें। नौ ग्रहों के देवता इस प्रकार हैंः

सूर्य-षिव,

चन्द्र-दुर्गा,

कुज- कार्तिक,

बुध-विष्णु,

गुरु-महाविष्ण् ाु,

शुक्र-लक्ष्मी,

षनि-आंजनेय या हनुमान,

राहु-चंडी,

केतु-गणेष।

विविध भावों में ग्रहस्थिति से देवकोप के कारण व षमन विधि की जानकारी मिलती है। बाधक ग्रह दुःस्थान छठे, आठवें, 12वें या तीसरे भाव में हों, तो इष्टदेव के कोप का संकेत देते हैं। व्ययभाव में सूर्य हो या सूर्य से 12वें भाव में पापग्रह हो, तो खंडित देवप्रतिमा के कोप से कष्ट होता है। कुजयुत हो तो प्रबंधकों में मतविरोध के कारण प्रतिमा या मंदिर की देखभाल में कमी के फलस्वरूप दैवकोप होता है। षनियुत हो, तो प्रतिमा, मंदिर या दोनों के दूषित होने से दैवकोप होता है।

राहु या गुलिकयुत हो, तो मेढकादि द्वारा प्रतिमा दूषित होने से दैवकोप होता है। लग्न में पापयुत हो तो उचित स्थिति में प्रतिमा नहीं होने से दैवकोप होता है। षनि राहु या केतु युत या छठे, आठवें अथवा 12वें भाव में हो तो गंदगी से मंदिर दूषित होता है। गुलिकयुत हो तो मूर्ति खण्डित होती है। चैथे भाव में पापयुत हो, तो मंदिर के जीर्णाेद्धार की आवष्यकता होती है।

बाधक ग्रह की राषि तथा भाव स्थिति व प्रायष्चित्त विधान: यदि बाधक सा¬तवें भाव में हो तो देवता के सम्मुख नृत्य से प्रायष्चित्त होगा। यदि मेष, सिंह या वृष्चिक राषि में हो, तो देवमंदिर को आलोकित करने से प्रायष्चित्त होगा। कर्क, वृष या तुला राषि में हो, तो देवता को दूध, घी, चावल की खीर का भोग लगाने से प्रायष्चित्त होगा। मिथुन या कन्या राषि में हो, तो देवप्रतिमा पर चंदनलेप से षांति होगी। धनु या मीन राषि में हो, तो देवता के फूलों के हार से शंृगार व पवित्र फूलों से पूजा द्वारा प्रायष्चित्त होगा। मकर या कुंभ राषि में हो, तो देवप्रतिमा को वस्त्राभूषण अर्पित करने से प्रायष्चित्त होगा। यदि आठवें या 10वें भाव में हो, तो पूजा या बलिकर्म विधेय है।

12वें भाव में हो तो ढोल, तबला वादन व संगीत के आयोजन से षांति होगी। बाधक के देवता की प्रातः व सायं विधिवत् पूजा-अर्चन करें। यदि बाधक लग्न में हो, तो छाया पात्र दान करें।

दूसरे भाव में हो, तो देवता का मंत्रजप करे।

तीसरे भाव में हो, तो विधिवत् देवता की पूजा-अर्चना करें।

चैथे भाव में हो, तो देवमंदिर का निर्माण कराएं।

पांचवें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण और ब्राह्मणों या दीनों को अन्नदान करें।

छठे में हो, तो प्रतिकार बलि करें।

सातवें में हो, तो प्रतिमा के निकट नृत्य का आयोजन करें।

आठवें में हो, तो बलि या विधिपूर्वक व्रतोपवास करें।

नौवें में हो, तो देवता के उपासना या आवाहन मंत्र का जप करें।

10वें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण-मार्जन करें।

11वें में हो, तो तर्पण करें।

12वें में हो, तो बाधक के अथवा 12वें भाव में हो तो गंदगी से मंदिर दूषित होता है। गुलिकयुत हो तो मूर्ति खण्डित होती है। चैथे भाव में पापयुत हो, तो मंदिर के जीर्णाेद्धार की आवष्यकता होती है।

बाधक ग्रह की राषि तथा भाव स्थिति व प्रायष्चित्त विधान: यदि बाधक सा¬तवें भाव में हो तो देवता के सम्मुख नृत्य से प्रायष्चित्त होगा।

यदि मेष, सिंह या वृष्चिक राषि में हो, तो देवमंदिर को आलोकित करने से प्रायष्चित्त होगा।

कर्क, वृष या तुला राषि में हो, तो देवता को दूध, घी, चावल की खीर का भोग लगाने से प्रायष्चित्त होगा।

मिथुन या कन्या राषि में हो, तो देवप्रतिमा पर चंदनलेप से षांति होगी।

धनु या मीन राषि में हो, तो देवता के फूलों के हार से शंृगार व पवित्र फूलों से पूजा द्वारा प्रायष्चित्त होगा।

मकर या कुंभ राषि में हो, तो देवप्रतिमा को वस्त्राभूषण अर्पित करने से प्रायष्चित्त होगा। यदि आठवें या 10वें भाव में हो, तो पूजा या बलिकर्म विधेय है।

12वें भाव में हो तो ढोल, तबला वादन व संगीत के आयोजन से षांति होगी। बाधक के देवता की प्रातः व सायं विधिवत् पूजा-अर्चन करें। यदि बाधक लग्न में हो, तो छाया पात्र दान करें।

दूसरे भाव में हो, तो देवता का मंत्रजप करे।

तीसरे भाव में हो, तो विधिवत् देवता की पूजा-अर्चना करें।

चैथे भाव में हो, तो देवमंदिर का निर्माण कराएं।

पांचवें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण और ब्राह्मणों या दीनों को अन्नदान करें।

छठे में हो, तो प्रतिकार बलि करें।

सातवें में हो, तो प्रतिमा के निकट नृत्य का आयोजन करें।

आठवें में हो, तो बलि या विधिपूर्वक व्रतोपवास करें।

नौवें में हो, तो देवता के उपासना या आवाहन मंत्र का जप करें।

10वें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण-मार्जन करें।

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