व्यक्ति को यदि रोग लग जाए तो पूरी दुनिया उसे बेगानी लगने लगती है। यदि रोगों का पूर्वाभास हो जाए तो उनसे बचने के उपाय कर उनके प्रभाव को कम किया जा सकता है। जन्मकुंडली में स्थित नौ ग्रहों का संबंध भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष किसी न किसी रोग एवं व्याधि से जुड़ा होता है। कैसे आइए जानें...
रोग दो तरह के होते हैं-दोषज एवं कर्मज। जिन रोगों का उपचार दवाओं से हो जाता हो, उन्हें दोषज तथा जिनका उपचार दवाओं से नहीं हो उन्हें कर्मज कहते हैं। कर्मज रोग मनुष्य को पूर्व जन्म के बुरे कार्यों और पापी ग्रहों से पीड़ित होने के कारण होते हैं। इनका उपचार दान, जप, हवन, देवपूजन आदि से होता है। ज्योतिषीय आधार पर रोगों का ज्ञान: ज्योतिष शास्त्र में जन्मकुंडली के छठे भाव से रोग का विचार किया जाता है। छठे भाव के दूषित होने पर रोग होते हैं। रोग की पहचान के लिए छठे भाव में स्थित और छठे भाव को देखने वाले ग्रहों का विचार किया जाता है। छठे भाव के कारक मंगल का प्रभाव भी देखा जाता है। इनमें दोष की अधिकता से रोग की संभावना भी अधिक हो जाती है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा से छठे स्थान के स्वामी पर भी ध्यान देना चाहिए।
मानव शरीर 12 राशियों में विभाजित है तथा उन पर नौ ग्रहों का अधिकार है। अतः प्रत्येक राशि एवं ग्रह मानव के अंगों को प्रभावित करते हैं। ग्रहों की स्थिति, पापी ग्रहों के प्रभाव एवं दृष्टि के अनुसार रोग एवं उनके कारक होते हैं। देखें सारणी -1।
द्वादश राशियां, मानव अंग एवं संबंधित रोग:
ज्योतिष शास्त्रानुसार अनिष्ट स्थानांे में स्थित ग्रह रोग कारक होते हंै। पापी ग्रहों के लिए तीसरे एवं ग्यारहवें को छोड़ शेष स्थान अनिष्ट हैं जबकि शुभ ग्रहों के लिए तीसरा, छठा, आठवां और 12वां स्थान अनिष्टकर हैं। रोग का ज्ञान छठे, आठवें और 12 वंे भावों में स्थित ग्रहों से, लग्नेश से युत ग्रहों से या लग्न को देखने वाले अथवा लग्न में स्थित ग्रह से होता है। बारह भाव मानव शरीर के अंगों (सिर से पैर तक) को दर्शाते हैं। अतः जो भाव या ग्रह दूषित होता है, उससे संबद्ध अंग में रोग होता है। सारणी देखें।
ग्रहों का बल एवं जन्मकुंडली का विश्लेषण:
चंद्र एवं शुक्र सजल हैं। सूर्य, मंगल एवं शनि शुष्क या निर्जल हैं। बुध एवं बृहस्पति सजल राशि में स्थित हों, तो सजल एवं निर्जल राशि में हों, तो निर्जल होते हैं। जन्मपत्री में इनकी स्थिति को देखते हुए रोगों का विचार किया जाता है।
जन्मकुंडली से रोग और उसके क्षेत्र की पहचान:
कुंडली के प्रथम भाव लग्न से जातक के शरीर, रंग-रूप, दुख-सुख का, द्वितीय भाव से आंख, नाक, कान, स्वर, वाणी, सौंदर्य का, तृतीय भाव से दमा-खांसी, फेफड़े और श्वसन संबंधी रोगों का, चतुर्थ भाव से उदर रोग, छाती व वक्षस्थल का, पचं म भाव स े पाचन तत्रं , गर्भाशय, मूत्र पिंड एवं वस्ति का, षष्ठ भाव से रोगों के भय, घाव, अल्सर, गुदा स्थान आदि का, सप्तम भाव से जननेंद्रिय, गुदा रोग आदि का, अष्टम भाव से गुप्त रोग, पीड़ा, दुर्घटना आदि का, नवम भाव से मानसिक वृि त्त का, दशम भाव से आत्मविश्वास में कमी व रोगों से कर्म में बाधा का, एकादश भाव से पिंडलियांे और स्नायु नाड़ियों का और द्वादश भाव से नेत्र पीड़ा, शयन सुख, अनिद्रा रोग, पैरों के रोग आदि का विचार किया जाता है।
नवग्रहों का विश्लेषण (षट् रस के आधार पर):
चंद्र नमकीन, सूर्य कटु, शनि कषाय, गुरु मधुर, मंगल तिक्त, शुक्र खट्टा और बुध मिश्रित रसों का स्वामी है।
सूर्य पित्त प्रधान, चंद्र शीत प्रधान, मंगल पित्त प्रधान, बुध वात-पित्त-कफ प्रध.ान, शनि वात प्रधान, शुक्र वात-कफ प्रधान और गुरु कफ प्रधान ग्रह है। शत्रु राशि में ग्रहों के स्थित होने पर ग्रह को ‘वृद्ध’ माना गया है और यदि ग्रह वृद्धावस्था में हो तो रोग प्रदान करता है। किसी भी जातक के प्रधान रोगों की पहचान हेतु राशि और स्वामी की स्थिति, सजल-निर्जल ग्रहों की अवस्था, ग्रह किस रस का स्वामी है, स्नायु, अस्थि आदि में से किसका कारक है, किस भाव में स्थित है, किस ग्रह से संबंध बना रहा है और कौन सा तत्व महत्वपूर्ण है इन सभी का गहन विश्लेषण किया जाता है। जन्म के समय जातक का जो ग्रह निर्बल होगा, उस ग्रह की धातु निर्बल होगी और उसी से संबंधित अंग भी पीड़ित होगा। प्रश्न काल, गोचर अथवा जन्म समय में जब कोई ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है वह शरीर के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण रोग एवं पीड़ा पहुंचाता है।
रोगों का प्रकोप:
प्रत्येक ग्रह अपना फल अपनी दशा, अंतर्दशा और प्रत्यंतर्दशा में ही देता है। जन्मकुंडली के छठे, आठवें या बारहवें स्थान में स्थित ग्रह अशुभ फल देता है। अंतर्दशा स्वामी दशा स्वामी से छठे, आठवें या 12वें स्थान में होने पर रोग प्रदाता भी होता है। मारकेश की दशा में स्थित अंतर्दशेश अधिक अनिष्टकारी होता है। पराशर ऋषि ने अपने ग्रंथ में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है:
दुष्ट स्थान स्थितं खेटं जप होमादि पूजनैः।
विप्राणां भोजनैर्दानैर्यत्नतः शान्तयेद् बुधः ।।
ग्रहेअनुकूले मनुजाः सुखिनोऽभ्युन्त्ताः सदा।
प्रतिकूले दुःखभाजस्तस्मातान् परिपूजयेत्।।
अर्थात दुःस्थान (छठे, आठवें या 12वें) स्थित ग्रहों की शांति के लिए जप, होम पूजन, दान, पुण्य आदि करने चाहिए। ग्रहों की अनुकूलता से लोग सुखी और ग्रहों की प्रतिकूलता से दुखी रहते हैं। अतः उन्हें मंत्रों, के जप पूजन आदि से शांत करना चाहिए।
कैंसर एवं हृदय रोग के ज्योतिषीय योग:
वर्तमान समय में भयानक रोगों में, जिनका शरीर में होना ही मृत्यु का पर्याय माना जाता है, कैंसर, हृदय रोग, राजयक्षमा व एड्स प्रमुख हैं। इन रोगों का ज्योतिषीय अध्ययन कर ग्रहों की स्थिति के अनुसार उपाय किया जाए, तो इनसे मुक्ति संभव है। संस्कृत में कैंसर राशि को कर्क और कैंसर रोग को ‘कर्कार्बुद’ कहते हैं। उपर्युक्त लक्षणों में कर्क राशि, कर्क के स्वामी चंद्र और उसकी विभिन्न स्थितियों के कैंसर रोग में योगदान का विशेष महत्व है।
श्री महामृत्युंजय यंत्र एवं मंत्र:
ऊँ तत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्रः प्रचोदयात् ।।
।। ऊँ जूं सः ।।
जप मंत्र:
ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः
ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
ऊँ स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौ। ऊँ
किसी भी जन्मकुंडली में चंद्र, गुरु, राहु, केतु, शनि एवं मंगल की युति या दृष्टि ही कैंसर का मूल कारण है। अतः उपर्युक्त ग्रहों की युति, स्थिति तथा दृष्टि जिस भाव पर रहेगी, कैंसर उस भाव से संबंधित अंग मंे ही होगा।
ग्रहों की स्थिति, दृष्टि एवं युति से कैंसर रोग की उत्पत्ति का विवरण देखें।
- यदि छठे भाव का स्वामी पापी ग्रह हो और लग्नेश आठवें या दसवें घर में बैठा हो तो कैंसर रोग की आशंका रहती है।
- छठे भाव में कर्क राशि में चंद्र हो तो यह कैंसर का द्योतक है।
- छठे भाव में कर्क या मकर राशि का शनि भी स्तन कैंसर का संकेत देता है।
- छठे भाव में कर्क या मकर का मंगल स्तन कैंसर का द्योतक है।
- मकर राशि का गुरु भी कैंसर होने का संकेत देता है।
- मेष का शनि मस्तिष्क के कैंसर का परिचायक है।
- छठे भाव के स्वामी का आठवें भाव में स्थित होना भी कैंसर का सूचक है।
- छठे भाव में कर्क का सूर्य अथवा वृश्चिक या मीन का चंद्रमा होना भी कैंसर का सूचक है।
- यदि शुक्र, मंगल या गुरु छठे अथवा आठवें भाव का स्वामी हो या चंद्र-राहु अथवा चंद्र-शनि की युति हो तो यह स्थिति भी कैंसर के संकेत देती है।
- शनि असाध्य, भयानक एवं लंबे समय तक चलने वाले रोगों का परिचायक है। इसकी स्थिति से अधिक इसकी दृष्टि पीड़ाकारक होती है।
- शरीर में किसी भी प्रकार की रसौली (गांठ) का संबंध जल से होता है, अतः जल राशियों (कर्क, वृश्चिक और मीन) के पापग्रस्त होने पर कैंसर होने की संभावना रहती है।
किसी योग में यदि चंद्र पर शनि की दृष्टि हो या शनि चंद्रमा से सप्तम् हो, तो कैंसर की संभावना रहती है।
विशेष: आधुनिक समय में कैंसर, एड्स आदि बीमारियां अधिकतर मनुष्य की अपनी गलतियों के कारण होती हैं। कैंसर अधिक धूम्रपान, तंबाकू, गुटखे, पान आदि के सेवन से होता है। एक बार कैंसर हो जाए, तो फिर शरीर के लिए संकट पैदा हो जाता है। कैंसर शरीर के उसी भाग या स्थान पर होता है, जो दूषित एवं पापी ग्रह से दृष्ट हो।
रोगों के ज्योतिषीय निदान: महामृत्युंजय के जप तथा होम को सर्वरोग निवारक माना गया है-
मृत्युंजय हवनं खलु सर्वरूजां शान्तये विधेयं स्यात् ।
सर्वेष्वपि होमेषु ब्राह्मण भुक्तिस्तथा तथा प्तवचः
अर्थात मृत्युंजय हवन सभी रोगों का निवारण करता है। हवन के उप¬रांत मंत्र बोलते हुए रोगी के हाथ से आहुतियां दिलवाएं एवं 6 बार श्वासोच्छ्वास प्राणायाम करें तथा दान पुण्य करके हवन से वातावरण को दोषमुक्त करें।