जीवत्पुत्रिका व्रत पं. ब्रज किशोर ब्रजवासी आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को पुत्र के आयुष्य, आरोग्य लाभ तथा सर्वविध कल्याणार्थ जीवत्पुत्रिका (जितिया) या जीमूतवाहन व्रत का विधान है।
प्रायः स्त्रियां इस व्रत को करती हैं। यह व्रत प्रदोष व्यापिनी अष्टमी तिथि को किया जाता है। विद्वत् जनों ने जीमूतवाहन के पूजन का विधान प्रदोष काल में निर्धारित किया है। प्रदोष समये स्त्रीभिः पूज्यो जीमूत वाहनः। प्रातः काल स्नानादि कृत्यों से निवृत्त होकर व्रती जीवत्पुत्रिका व्रत का संकल्प ले और निराहार रहते हुए प्रदोषकाल में करे। एक छोटा सा तालाब भी जमीन खोदकर बना ले। और उसके निकट एक पाकड़ की डाल लाकर खड़ी कर दे।
शालिवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की कुशनिर्मित मूर्ति जल या मिट्टी के पात्र में स्थापित कर पीली और लाल रुई से उसे अलंकृत करे तथा षोडशोपचार (धूप-दीप अक्षत-फूल माला एवं विविध प्रकार के नैवेद्यों) से पूजन करे। मिट्टी तथा गाय के गोबर से चिल्ली या चिल्होड़िन (मादा चील) और सियारिन की मूर्ति बनाकर उनके मस्तकों को लाल सिंदूर से भूषित करे। अपने वंश की वृद्धि और प्रगति के लिए बांस के पत्रों से पूजन करना चाहिए। तदनंतर व्रत माहात्म्य की कथा का श्रवण करना चाहिए। अपने पुत्र-पौत्रों की दीर्घायु एवं सुंदर स्वास्थ्य की कामना से महिलाओं को, विशेषकर सधवा को, इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिए।
व्रत माहात्म्य कथा: प्रस्तुत कथा के वक्ता वैशम्पायन ऋषि हैं। बहुत पहले रमणीय कैलाश पर्वत के मनोरम शिखर पर भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती प्रसन्न मुद्रा में सिंहासनारूढ़ थे। दिव्य सुखासन पर विराजमान परम दयालु जगत् जननी माता पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा ‘प्रभो ! किस व्रत एवं पूजन से सौभाग्यशालिनी नारियों के पुत्र जीवित एवं चिरंजीवी बने रहते हैं? कृपया उसके बारे में और उसकी कथा के विषय में बताने का कष्ट करें।’ आनंद निधान पूर्णेश्वर जगत नियंता त्रिकालज्ञ भगवान शंकर ने जीवत्म्यपुत्रिका व्रत के विधान, महत्व तथा माहात्म्य की कथा बताते हुए कहा- दक्षिणापथ में समुद्र के निकट नर्मदा के पावन तट पर कांचनावती नाम की एक सुंदर नगरी थी। वहां के राजा मलयकेतु थे। उनके पास चतुरंगिनी सेना थी।
उनकी नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। नर्मदा के पश्चिमी तट पर बाहूट्टा नामक एक मरुस्थल था। वहां घाघू नाम वाला पाकड़ का एक पेड़ था। उसकी जड़ में एक बड़ा सा कोटर था। उसमें छिपकर एक सियारिन रहती थी। उस पेड़ की डाल पर घोंसला बनाकर एक चिल्होरिन भी रहती थी। रहते-रहते दोनों में मैत्री हो गई। संयोगवश उसी नदी के किनारे उस नगर की सधवा स्त्रियां अपने पुत्रों के आयुष्य और कल्याण की कामना से जीमूतवाहन का व्रत एवं पूजन कर रही थीं। उनसे सब कुछ जानकर चिल्होरिन और सियारिन ने भी व्रत करने का संकल्प कर लिया।
व्रत करने के कारण भूख लगनी स्वाभाविक थी। चिल्होरिन ने भूख सहनकर रात बिता ली परंतु सियारिन भूख से छटपटाने लगी। वह नदी के किनारे जाकर एक अधजले मुर्दे का मांस भरपेट खाकर और पारणा के लिए मांस के कुछ टुकड़े लेकर फिर कोटर में आ गई। डाल के ऊपर से चिल्होरिन सब कुछ देख रही थी। चिल्होरिन ने नगर की सधवा औरतों से अंकुरित केलाय (मटर) लेकर पारण् ाा ठीक से कर ली। सियारिन बहुत धूर्त थी और चिल्होरिन अधिक सा¬त्विक विचार वाली थी। कुछ समय के बाद दोनों ने प्रयाग आकर तीर्थसेवन शुरू किया। वहीं पर चिल्होरिन ने ‘मैं महाराज के महामंत्री बुद्धिसेन की पत्नी बनूंगी’ इस संकल्प एवं मनोरथ के साथ अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
उधर सियारिन ने भी ‘मैं महाराज मलय केतु की रानी बनूंगी’ इस मनोरथ और सं¬कल्प के साथ अपने प्राणों का त्याग किया। दोनों का जन्म भास्कर नामक वेदज्ञ ब्राह्मण के घर में हुआ। दोनों कन्याओं में नागकन्या और देवकन्या के असाधारण गुण लक्षित हो रहे थे। चिल्होरिन का नाम जहां शीलवती रखा गया वहीं सियारिन का नाम कर्पूरावती। शीलवती का विवाह मंत्री (बुद्धिसेन) से हुआ और कर्पूरावती का विवाह राजा मलयकेतु के साथ। राजा और मंत्री दोनों धर्मात्मा एवं न्यायवादी थे। प्रजा को राजा अपने पुत्र के समान मानता था और प्रजा भी उन्हें खूब चाहती थी।
समय के अनुसार शीलवती और कर्पूरावती को सात-सात पुत्र हुए। शीलवती के सातों पुत्र जीवित थे पर कर्पूरावती के सातों पुत्र एक-एक करके काल के गाल में समाते गए। कर्पूरावती बहुत दुखी रहती थी। उधर शीलवती के सभी पुत्र हमेशा राजा की सेवा में हाजिर रहते थे। वे सब बड़े विनयी और राजा के आ¬ज्ञाकारी थे। रानी उन्हें देखकर जलती रहती थी। उसे ईष्र्या होती थी कि शीलवती के सभी पुत्र जीवित हैं।
एक दिन रानी रूठकर खाना-पीना और बोलना भी बंद कर राजा से दूर किसी एकांत कोठरी में चली गई। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह उसे मनाने गए। पर उसने उनकी एक भी नहीं सुनी। आखिर परेशान राजा ने कहा कि ‘तुम जो भी कहोगी, मैं वही करूंगा। तुम उठो और खाना खाओ।’ यह सुनकर उसने कहा कि ‘यदि यह सत्य है तो अमुक दरवाजे के पास एक चक्र रखा हुआ है। आप शीलवती के सभी पुत्रों का सिर काटकर ला दीजिए।’ ऐसा नहीं चाहते हुए भी राजा ने आखिर वही किया जो रानी चाहती थी।
रानी ने बांस के बने सात डालों या बरतनों में एक-एक सिर रखकर और उसे कपड़े से ढककर शीलवती के पास भेजा। इधर जीमूतवाहन ने उनकी गर्दन को मिट्टी से जोड़कर एवं अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित कर दिया। सौगात के रूप में भेजे गए सभी सिर ताल के फल बन गए। यह जानकर रानी तो और आगबबूला हो गई। वह क्रोध के मारे अत्यंत कुपित हो गई और डंडा लेकर शीलवती को मारने पहुंच गई, लेकिन भगवान् की दया से शीलवती को देखते ही उसका क्रोध शांत हो गया। शीलवती उसे लेकर नर्मदा के तट पर चली गई। दोनों ने स्नान किया।
बाद में शीलवती ने पूर्वजन्म की याद दिलाते हुए उसे बताया कि तुमने सियारिन के रूप में व्रत को भंग कर मुर्दा खा लिया था। उसे सब कुछ याद आ गया। ग्लानि और संताप से उसके प्राण निकल गए। राजा को जब यह मालूम हुआ तो उसने अपना राज्य मंत्री को सौंप दिया और स्वयं तप करने चला गया। शीलवती अपने पति और पुत्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगी। जितिया व्रत के प्रभाव से उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो गए।
इस प्रकार माहात्म्य की कथा बताने के अनंतर भगवान शंकर ने कहा कि जो सौभग्यवती स्त्री जीमूतवाहन को प्रसन्न करने के लिए व्रत एवं पूजन करती है और कथा सुनकर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है, वह अपने पुत्रों के साथ सुखपूर्वक समय बिताकर अंत में विष्णुलोक प्रस्थान करती है।
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