महाशिव रात्रि व्रत
महाशिव रात्रि व्रत

महाशिव रात्रि व्रत  

महेश चंद्र भट्ट
व्यूस : 8179 | मार्च 2011

महाशिव रात्रि पं. एम. सी. भट्ट महाशिवरात्रि का व्रत फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को होता है। कुछ लोग चतुर्दशी के दिन भी इस व्रत को करते हैं। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरा को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत तारिणी पावन गंगा तथा माथे पर प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं, और श्री -संपत्ति प्रदान करते हैं।

काल के काल और देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, नर-नारी, बालक-वृद्ध हर कोई कर सकता है। व्रत विधि : इस दिन प्रातः काल स्नान ध्यान से निवृत्त होकर अनशन व्रत रखना चाहिये। पत्र-पुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके सर्वतोभद्र की वेदी पर कलश की स्थापना के साथ-साथ गौरी शंकर की स्वर्ण मूर्ति और नंदी की चांदी की मूर्ति रखनी चाहिये। यदि इस मूर्ति का नियोजन न हो सके तो शुद्ध मिट्टी से शिवलिंग बना लेना चाहिये। दूध, दही, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद शिव जी को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए।

रात को जागरण करके ब्राह्मणों से शिव स्तुति का पाठ कराना चाहिये। इस जागरण में शिवजी की चार आरती का विधान जरूरी है। इस अवसर पर शिव पुराण का पाठ मंगलकारी है। दूसरे दिन प्रातः, जौ, तिल-खीर तथा बेलपत्रों का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करना चाहिये। इस विधि-विधान तथा स्वच्छ भाव से जो भी यह व्रत रखता है, भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे अपार सुख संपदा प्रदान करते हैं। भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खा लेता है, वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिये शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति का रहना अनिवार्य है।

यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम हो तो नैवेद्य रखने का कोई दोष नहीं होता। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि में भगवान शंकर का ब्रह्म से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में भी इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसलिये इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया है। रखने का कोई दोष नहीं होता। व्रत कथा : किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। ब्राह्मण का लड़का चंद्रसेन दुष्ट प्रवृत्ति का था। बड़े होने पर भी उसकी इस नीच प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं आया बल्कि उसमें दिनो-दिन बढ़ोत्तरी होती गई।

यह बुरी संगत में पड़कर चोरी-चकारी तथा जुए इत्यादि में उलझ गया। चंद्रसेन की मां बेटे की हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति को कुछ नहीं बताती थी। वह उसके हर दोष को छिपा लिया करती थी। इसका प्रभाव यह पड़ा कि चंद्रसेन कुसंगति के गर्त में डूबता चला गया। एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहां पूजा कराके लौट रहा था तो उसने मार्ग में दो लड़कों को सोने की अंगूठी के लिये लड़ते देखा। एक कह रहा था कि यह अंगूठी चंद्र सेन से मैंने जीती है। दूसरे का तर्क था कि अंगूठी मैंने जीती है। यह सब देख-सुनकर ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ। उसने दोनों लड़कों को समझा-बुझाकर अंगूठी ले ली। घर आकर ब्राह्मण ने पत्नी से चंद्रसेन के बारे में पूछा।

उत्तर में उसने कहा - ''यहीं तो खेल रहा था अभी? ''जबकि हकीकत यह थी कि चंद्रसेन पिछले पांच दिनों से घर नहीं आया था। ब्राह्मण ऐसे घर में क्षणभर भी नहीं रहना चाहता था, जहां जुआरी चोर बेटा रह रहा हो तथा उसकी मां उसके अवगुणों पर हमेशा पर्दा डालती रही हो। अपने घर से कुछ चुराने के लिये चंद्रसेन जा ही रहा था कि दोस्तों ने उसके पिता की नाराजगी उस पर जाहिर कर दी। वह उल्टे पांव भाग निकला। रास्तें में एक मंदिर के पास कीर्तन हो रहा था। भूखा चंद्रसेन कीर्तन मंडली में बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि थी। भक्तों ने शंकर पर तरह-तरह का भोग चढ़ा रखा था। चंद्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया।

कीर्तन करते-करते भक्तगण धीरे-धीरे सो गये। तब चंद्रसेन ने मौके का लाभ उठाकर भोग की चोरी की और भाग निकला। मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आंख खुल गई। उसने चंद्रसेन को भागते देख चोर-चोर कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने उसका पीछा किया। भूखा चंद्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही उसकी मृत्यु हो गई। अब मृतक चंद्रसेन को लेने शंकर जी के गण तथा यमदूत एक साथ वहां आ पहुंचे। यमदूतों के अनुसार चंद्रसेन नरक का अधिकारी था क्योंकि उसने पाप ही पाप किये थे, लेकिन शिव के गणों के अनुसार चंद्र सेन स्वर्ग का अधिकारी था क्योंकि वह शिवभक्त था।

चंद्रसेन ने पिछले पांच दिनों से भूखे रहकर व्रत तथा शिवरात्रि का जागरण किया था। चंद्रसेन ने शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था। वह तो नैवेद्य खाने से पूर्व ही प्राण त्याग चुका था इसलिये भी शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकर के अनुग्रह से ही हुआ था। अतः यमदूतों को खाली हाथ लौटना पड़ा। इस प्रकार चंद्रसेन को भगवान शिव के सत्संग मात्र से ही मोक्ष मिल गया।



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