देवशयनी एकादशी व्रत
देवशयनी एकादशी व्रत

देवशयनी एकादशी व्रत  

महेश चंद्र भट्ट
व्यूस : 6206 | जुलाई 2010

आ षाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी को विष्णु लक्ष्मी के साथ विश्राम के लिये शेषनाग की शैया में आरूढ़ होते हैं, लेकिन उनके आशीर्वाद से हरियाली और सुख शांति बनी रहती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। विष्णु मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को वे फिर धरती पर प्रत्यागमन करते हैं। देवशयनी एकादशी को सभी श्रद्धालुजन बड़े उत्साह से व्रत उपवास रखते हैं। चातुर्मास में कृषि कार्य पर ही अधिक जोर दिया जाता है। भगवान विष्णु पृथ्वी पर जल वर्षा करके किसानों और सद्गृहस्थांे को अन्न, फल, फूल, दलहन, तिलहन आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराकर समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। त्रिदेवों में विष्णु को सृष्टि का पालनकत्र्ता माना जाता है। क्षीर दुग्ध और सत्वगुण का प्रतीक है। मनुष्य के जीवन में दूध का महत्व है। यज्ञ के लिये भी घी, दही, इत्यादि दूध से ही बनता है। यह एक प्रतीक है कि जगत के पालनकत्र्ता दूध के महासागर में रहते हैं।

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है परंतु कहीं कहीं इस तिथि को ‘पद्मनाभा’ भी कहते हैं। इसी दिन से चैमासे का आरंभ माना जाता है। इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर-सागर में शमन करते हैं। इस दिन उपवास करके श्री हरि विष्णु की सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करके पीतांबर आदि से विभूषित कर सफेद चादर से ढके गद्दे-तकिये वाले पलंग पर उन्हें शयन कराना चाहिये। पुराणों का ऐसा मत है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मास पर्यन्त पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को ‘देवशयनी’ तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को ‘प्रबोधिनी’ एकादशी कहते हैं। इन चार माह पर्यन्त सभी मांगलिक कार्य बंद रहते हैं। व्यक्ति को चाहिये कि इन चारों महीनों के लिये अपनी रूचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।

त्याग करें: मधुर स्वर के लिये गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिये तेल का, शत्रुनाशादि के लिये कडुवे तेल का, सौभाग्य के लिये मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिये पुष्पादि भोगों का त्याग करें।

ग्रहण करें: देह- शुद्धि या सुंदरता के लिये परिमित प्रभाव के पचंगत्य का, वंश वृद्धि के लिये नियमित दूध का कुरुक्षेत्रादि के समान फल प्राप्ति के लिये पात्र में भोजन करने के बजाय ‘पत्र’ का तथा सर्वपापक्षयपूर्वक सफल पुण्य फल प्राप्त होने के लिये एकभुक्त, नक्तव्रत, अल्प भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।

चतुर्मामासीय व्रतों में भी कुछ वर्जनाएं हैं: जैसे पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली एवं बैगन आदि शाक पत्र खाना त्याग देना चाहिये। इन दिनों अर्थात इन चार माह में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तप कार्य करते हैं। इन दिनों केवल व्रज की यात्रा की जा सकती है क्योंकि इन चार महीनों में पृथ्वी के सभी तीर्थ व्रज में आकर निवास करते हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं।

व्रत कथा: एक बार देवऋषि नारद जी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी, किंतु भविष्य में क्या हो जाये, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि सब में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रूचि कहां रह जाती है। प्रजा के राजा के पास आकर अपनी वेदना की दुहाई दी। राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप मंे मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिये। वहां विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरान्त कुशल क्षेम पूछा, फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन भी जानना चाहा।

तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- ‘महात्मन् ! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें। ऐसा सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा - ‘‘हे राजन ! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है। किंतु राजा का हृदय एक निरपराध शुद्र तपस्वी का अंत करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- ‘‘हे देव ! मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपया करके आप कोई और उपाय बतायें।’’ महर्षि अंगिरा ने बताया - ‘‘आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आये और चारों वर्णांे सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।



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