ज्योतिष शास्त्र में खगोल शास्त्र के सिद्धांतों का उपयोग करके बनाई हुई कुंडली से फलकथन किया जाता है। जन्मकुंडली से सही फलकथन करने के लिए जन्मसमय सही होना जरूरी है। आधुनिक समय में भारतीय विद्वान श्री. के. एस. कृष्णमूर्ति ने विंशोत्तरी अंतर्दशा के वर्षांक माप के प्रमाण में और क्रम में राशि चक्र का 249 उप विभाग करके और उसका उपयोग निरयन, कुंडली में करके फलादेश करने की एक बहुत अच्छी पद्धति का निर्माण किया है। उसका नियम इतना स्पष्ट और सरल है कि ज्योतिष शास्त्र के सामान्य जानकार भी उसका उपयोग कर सकते हैं।
कृष्णमूर्ति पद्धति की प्रमुख विशेषतायें:
-कृष्णमूर्ति पद्धति में हर ग्रह जिन स्थानों का निर्देशक बनता है उसी का फल देता है।
-हर ग्रह अपनी महादशा में अपना नक्षत्रपति जिस स्थान में हो और जिस स्थान का मालिक हो उसका फल देते हैं।
- हर ग्रह अपनी अंतर्दशा में जिसका वह अधिपति है और जिस स्थान में स्थित है उसका फल देता हैं।
-हर ग्रह अपने उपपति जिस स्थान में स्थित हों उसका निर्देशक बनते हैं।
- हर ग्रह अपने उपपति के मालिकों के स्थानों का निर्देशक बनते हैं।
- फलादेश के वक्त स्थान के उपपति का ध्यान रखना चाहिए। वह यदि अनुकूल स्थान के निर्देशक बनते हांे तो अपने स्थान के शुभ फल देते हैं और यदि वे प्रतिकूल स्थान के निर्देशक बनते हों तो अपने स्थान का अशुभ फल देते हैं।
-किसी भी स्थान के लिए उस स्थान से बारहवां स्थान प्रतिकूल गिनते हैं।
-तंदुरूस्ती और आयुष्य के बारे में बाधक स्थान भी प्रतिकूल माना जाता है।
मेष, कर्क, तुला और मकर लग्न के लिए 11वां वृषभ सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए 9 वां तथा मिथुन, कन्या, धनु और मीन लग्न के लिए 7वां स्थान बाधक माना जाता है। प्रश्नकुंडली मंे पूछा हुआ प्रश्न हां या न के जबाव के साथ सुसंगत हो और सुस्पष्ट ग्रहस्थिति होनी चाहिए। अब हम नीचे बनाई गई सायन प्रश्नकुंडली को कृष्णमूर्ति पद्धति से देखते हैं। ज्योतिष शास्त्र में खगोल शास्त्र के सिद्धांतों का उपयोग करके बनाई हुई कुंडली से फलकथन किया जाता है।
जन्मकुंडली से सही फलकथन करने के लिए जन्मसमय सही होना जरूरी है। आधुनिक समय में भारतीय विद्वान श्री. के. एस. कृष्णमूर्ति ने विंशोत्तरी अंतर्दशा के वर्षांक माप के प्रमाण में और क्रम में राशि चक्र का 249 उप विभाग करके और उसका उपयोग निरयन, कुंडली में करके फलादेश करने की एक बहुत अच्छी पद्धति का निर्माण किया है। उसका नियम इतना स्पष्ट और सरल है कि ज्योतिष शास्त्र के सामान्य जानकार भी उसका उपयोग कर सकते हैं।
कृष्णमूर्ति पद्धति की प्रमुख विशेषतायें:
कृष्णमूर्ति पद्धति में हर ग्रह जिन स्थानों का निर्देशक बनता है उसी का फल देता है। हर ग्रह अपनी महादशा में अपना नक्षत्रपति जिस स्थान में हो और जिस स्थान का मालिक हो उसका फल देते हैं। हर ग्रह अपनी अंतर्दशा में जिसका वह अधिपति है और जिस स्थान में स्थित है उसका फल देता हैं। हर ग्रह अपने उपपति जिस स्थान में स्थित हों उसका निर्देशक बनते हैं। हर ग्रह अपने उपपति के मालिकों के स्थानों का निर्देशक बनते हैं।
फलादेश के वक्त स्थान के उपपति का ध्यान रखना चाहिए। वह यदि अनुकूल स्थान के निर्देशक बनते हांे तो अपने स्थान के शुभ फल देते हैं और यदि वे प्रतिकूल स्थान के निर्देशक बनते हों तो अपने स्थान का अशुभ फल देते हैं। किसी भी स्थान के लिए उस स्थान से बारहवां स्थान प्रतिकूल गिनते हैं।
तंदुरूस्ती और आयुष्य के बारे में बाधक स्थान भी प्रतिकूल माना जाता है। मेष, कर्क, तुला और मकर लग्न के लिए 11वां वृषभ सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए 9 वां तथा मिथुन, कन्या, धनु और मीन लग्न के लिए 7वां स्थान बाधक माना जाता है। प्रश्नकुंडली मंे पूछा हुआ प्रश्न हां या न के जबाव के साथ सुसंगत हो और सुस्पष्ट ग्रहस्थिति होनी चाहिए। अब हम नीचे बनाई गई सायन प्रश्नकुंडली को कृष्णमूर्ति पद्धति से देखते हैं। हैं, यही उपनक्षत्रेश फलादेश की जान हैं अर्थात् सक्रिय फलादेश इसके उपनक्षत्रेश के अनुसार ही होता है । चाहे वह जुड़वां बच्चों की जन्मपत्री हो या प्रश्नशास्त्र हो या जन्मपत्री का कोई प्रश्न हो। के. पी. की पद्धति ‘‘उपनक्षत्रेश’ पर आधारित है।
उपनक्षत्रेश इसकी ‘‘आत्मा/प्राण’’ है। के. पी. ने ‘‘लग्न स्पष्ट’’ पर जोर दिया। इनके अनुसार चंद्रमा से भी तीव्र गति से कुंडली में यदि कोई परिवर्तन घटित हो रहा है तो वह है ’’लग्न स्पष्ट’’। प्रत्येक चार मिनट में लग्न स्पष्ट में लगभग एक अंश (डिग्री) का परिवर्तन आ जाता है।
यही वह गुम कड़ी थी, जो सटीक फलादेश, जुड़वां बच्चों की भविष्यवाणियां आदि में सहायक सिद्ध हुई। नक्षत्रों के अंशात्मक विभाजन के लिये उन्होंने महर्षि पाराशर द्वारा वर्णित विंशोत्तरी पद्धति का सहारा लिया। विंशोत्तरी दशा क्रम- केतु, शुक्र सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, सूर्य, बुध-कुल 120 वर्ष। हां यह पराशर पद्धति से अधिक सटीक है क्योंकि यह नक्षत्रों पर आधारित सूक्ष्म एवं सटीक विधा है।
उदाहरण - इंग्लैंड के सम्राट ‘‘जाॅर्ज षष्ठ’’ का दशमेश चंद्रमा (तुला लग्न कुंडली) द्वितीय भाव में नीच का, ऐसे में पाराशर पद्धति एवं प्राचीन ज्योतिष के अनुसार उन्हें एक सामान्य व्यक्ति का ही जीवन बिताना चाहिए था परंतु के. पी. में उपनक्षत्रेश के अनुसार चंद्र-वृश्चिक में शनि नक्षत्र व गुरु उपनक्षत्र में स्थित था और गुरु में चंद्र उच्च संबंध का होता है। अतः जाॅर्ज का साम्राज्य इतना बड़ा था कि सूर्य कभी भी अस्त नहीं होता था, अतः यह पाराशर से अधिक सटीक है।
आगे 1 से 249 तक के के. पी. के विभाजन की 4 तालिका दी गई है जिन्हें प्रत्येक राशि को 9 उपभागों में अंशों के आधार पर बांटा गया है जिसकी सहायता से ग्रहों की डिग्री/अंश देखकर उसके उपनक्ष