प्रश्न: कालपुरूष की कुंडली का मेडिकल साइंस में कैसे प्रयोग करेंगे? क्या इसकी सहायता से जाना जा सकता है कि जातक को कौन सा रोग होने की संभावना है, यदि हां तो कैसे? विवरण सहित उत्तर दें।
काल पुरूष की कुंडली का मेडिकल साइंस (चिकित्सा विज्ञान) में प्रयोग: काल पुरूष की कुंडली में मनुष्य शरीर के सभी अंगों को 12 भावों में बांटा गया है। इन 12 भावों में कालपुरूष की 12 राशियां ही आती हैं जिनके स्वामी ग्रह 7 ग्रह ही हैं तथा छाया ग्रहों राहु-केतु के प्रभाव भी अति महत्वपूर्ण हैं तथा साथ ही 27 नक्षत्रों का प्रभाव भी मनुष्य शरीर के सभी अंगों पर बराबर बना रहता है। इनके स्वामी ग्रह भी ये ही 7 ग्रह हैं अर्थात् सारांश रूप से यह कह सकते हैं
कि शरीर के सभी अंगों को 12 भाव/राशियां, 9 ग्रह व 27 नक्षत्र संचालित करते हैं। यदि मेडिकल साइंस की दृष्टि से देखें तो इसमें भी शरीर के सारे अंग आ जाते हैं जिनका मेडिकल की दृष्टि से दवाई द्वारा इलाज करना है जबकि कुंडली में अंगों का ईलाज औषधि की बजाय ज्योतिष से होता है। इन दोनों में सामंजस्य बैठाना ही काल पुरूष की कुंडली का मेडिकल साइंस में प्रयोग करना कहते हैं।
काल पुरूष की बारह राशियां और होने वाले संबंधित रोग
1. मेष: सिर दर्द, मानसिक तनाव, मतिभ्रम, पागलपन, उन्माद, अनिद्रा, मुख रोग, मेरूदंड के रोग, अग्नि जनित रोग।
2. वृष: कान, नाक और दांत के रोग, खांसी, टांसिल्स, थायराइड, सायनस।
3. मिथुन: श्वांस व गले के रोग, हाथ व कंधे में फ्रैक्चर, लकवा, तंत्रिका तंत्र रोग, पक्षाघात, मिर्गी, टीबी., फेफड़ों में संक्रमण, मज्जा के रोग, अस्थमा।
4. कर्क: हृदय रोग, रक्त विकार, स्तन कैंसर (गांठ), फेफड़ों व पसलियों के रोग, खांसी, जुकाम, छाती में दर्द, ज्वर, मानसिक रोग व तनाव।
5. सिंह: रक्त, उदर, वायु विकार, मेद वृद्धि, ल्यूकेमिया, एनीमिया, रक्तचाप (बी. पी.), अस्थि रोग (पीठ, कमर, जोड़ों व घुटनों के दर्द आदि) पेट दर्द, तिल्ली रोग, बुखार, हृदय रोग।
6. कन्या: किडनी रोग, कमर दर्द, अपच, मंदाग्नि, जिगर रोग, आंतों के रोग, अमाशय के रोग, उदय रोग, अनिद्रा, रक्तचाप।
7. तुला: मूत्राशय रोग, मधुमेह, मूत्रकृच्छ, बहुमूत्र, प्रदर, मूत्रवाहिनी एवं मूत्र उत्सर्जन संबंधी रोग।
8. वृश्चिक: मलाशय व गुदा रोग, गुप्त रोग, जननेन्द्रिय रोग, अंडकोश व संसर्ग रोग, गर्भाशय रोग।
9. धनु: कूल्हे, जांघ के रोग, हड्डियां टूटना, मांसपेशियां खींचना, चर्मरोग, जुकाम, यकृत दोष, ऋतु विकार
10. मकर: घुटनों के रोग, पिंडली रोग, चर्म रोग, वात व शीत रोग, रक्तचाप रोग।
11. कुंभ: मानसिक व जलोदर रोग, ऐंठन, गर्मी रोग, टखना हड्डी रोग, संक्रामक रोग
12. मीन: मूत्र उत्सर्जन, पेशाब में जलन, रूक-रूक कर आना, साफ न आना या बहुमूत्रता, किडनी रोग, पैर, पंजे, तलवे व एड़ी के रोग जैसे-एड़ी में पानी भर जाना। मानसिक तनाव, अनिद्रा, एलर्जी, चर्म रोग, रक्त विकार, आमवात, ग्रंथि रोग, गठिया रोग।
ग्रह एवं शरीर के अंग व होने वाले रोग
1. सूर्य: पूरा शरीर, चेहरा (दायां भाग), ज्वर, रक्तचाप, नेत्र रोग (दायां), पागलपन, हड्डी टूटना, मुंह से झाग आना, लकवा। सूर्य की महादशा, अंतर्दशा में उपरोक्त रोग की संभावना प्रबल रहती है।
2. चंद्र: हृदय, फेफड़े, चेहरा (बायां भाग), हृदय व फेफड़ों के रोग, नेत्र रोग (बायां), मानसिक रोग, पक्षाघात, मिर्गी, अनिद्रा, पागलपन, स्तन रोग, छाती रोग, हारमोन्स के रोग।
3. मंगल: जिगर, होंठ, जिगर व होंठ की बीमारियां, हैजा, पित्त व पेट की बीमारियां, रक्त चाप (उच्च व निम्न), रक्त विकार, नासूर, फोड़ा, सिरदर्द, मज्जा रोग, मंगल की दशा में रोग।
4. बुध: दांत, जीभ, दिमाग, विवेक, स्नायु तंत्र, मानसिक, स्नायु, जुकाम, दांत के रोग, विवेक में कमी, हकलाहट, मंद बुद्धि रोग, नपुंसकता। बुध की दशा में रोग।
5. गुरु: नाक, गर्दन, सांस व फेफड़े के रोग, मोटापा, चर्बी रोग, मधुमेह गुरु की दशा में रोग।
6. शुक्र: गाल, स्वर तंत्र, चर्म रोग, खुजली, गुप्त रोग, स्वर विकार, किडनी रोग।
7. शनि: भौहें, बाल, हड्डी, नस, नेत्र, पैर, नेत्र ज्योति रोग, दमा, खांसी, कफ, नसो के रोग, बाल उड़ना, रूसी, हड्डी टूटना (नाभि के नीचे भागों में दर्द), नपुंसकता।
8. राहु: मस्तिष्क के कंपन, सिर, ठुड्डी, मानसिक रोग, ऊपरी बाधा, पागलपन, लकवा, प्लेग, बुखार, मोटापा, चर्बी रोग, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत प्रकोप।
9. केतु: धड़, घुटने, टखने, पंजे, कान, रीढ़ की हड्डी, इन अंगों में रोग, यौन रोग, अंडकोष के रोग, हाथ-पांव में दर्द, गलगंड, मूत्र रोग, फोड़े फंुसी, नपुंसकता।
उपर्युक्त ग्रहों की विभिन्न दशाओं (महा, अंतर, प्रत्यंतर दशा व शनि की साढ़ेसाती, ढईया, गोचर आदि) में संबंधित रोग होंगे। हां कालपुरूष का मेडिकल साइंस के उपरोक्त आधार पर प्रयोग करने के पश्चात् यह आसानी से जाना जा सकता है कि जातक को कौन सा रोग होगा। साधारणतया रोग का विचार काल पुरूष की कुंडली के छठे भाव से किया जा सकता है।
लग्न- लग्नेश, राशि-राशीश, चंद्रमा, षष्ठ-षष्ठेश, एकादश भाव-एकादशेश के निर्बल (नीच, अस्त, वक्री आदि) होकर त्रिक भाव (6, 8, 12) में स्थित होने से जातक को ग्रहों व भावों के अनुसार ग्रहों की विभिन्न दशाओं (महा, अंतर, प्रत्यंतर दशा, गोचर, शनि की साढ़ेसाती, ढईया) में ग्रहों व भावों के अनुसार ही विभिन्न रोग प्राप्त होते हैं। साथ ही इन पर पाप प्रभाव हो तो इन पाप प्रभाव के ग्रहों की दशा में रोग और भी अधिक उग्र हो जाते हैं।