आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ मानव शरीर में ‘वात’ (वायु), ‘पित्त’ (अग्नि) और ‘कफ’ (जल) तत्व समान अनुपात में विद्यमान रहते हैं। इनका संतुलन बिगड़ने से रोगों की उत्पत्ति होती है। सर्वप्रथम वायु तत्व का संतुलन बिगड़ता है और उसके बाद पित्त व कफ तत्व भी असंतुलित हो जाते हैं। हमारे शरीर में ये तीनों तत्व अलग-अलग समय प्रभावी होते हैं कफ (जल) तत्व सुबह के समय पित्त (अग्नि) तत्व दोपहर के समय तथा वात (वायु) तत्व अपराह्न या संध्या में प्रभावी रहते हैं। कफ तत्व रात्रि में किए गए भोजन की अशुद्धियों को सुबह दूर करता है।
कफ तत्व की क्रिया सुबह 6 बजे से आरंभ होकर 8 बजे अपनी चरम सीमा पर पहुंचती है और 10 बजे तक समाप्त हो जाती है। अतः आयुर्वेद में सूर्योदय से तीन घंटे तक ठोस आहार करना निषेध है। उषा पान (सुबह उठकर जल पीना) और बाद में दूध, मट्ठे और फलों के रस का सेवन लाभदायक माना गया है।
10 बजे से दोपहर 2 बजे तक ‘पित्त’ (अग्नि) तत्व प्रधान होने के कारण इस बीच किया गया भोजन आसानी से पच जाता है और शरीर को शक्ति प्रदान करता है। 2 बजे बाद किया गया भोजन वायु तत्व बढ़ाता है और बढ़ती उम्र में उच्च रक्तचाप और अन्य विकारों का कारण बनता है। दूसरी बार भोजन रात्रि में 8 बजे तक कर लेना चाहिए जिससे वह धीरे-धीरे सुबह तक पच जाए। रात्रि में हल्का भोजन ही करना चाहिए। जब तक आवश्यक न हो, खाना खाने के दो घंटे बाद तक पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे जठराग्नि ठंडी होती है और वायु तत्व असंतुलित होता है
जिससे रोग उत्पन्न होते हैं। ज्योतिष शास्त्र में पित्त (अग्नि) तत्व के कारक सूर्य व मंगल हैं। कफ (जल) तत्व के कारक चंद्र, बुध व शुक्र हैं। वात (वायु) तत्व के कारक शनि और गुरु हैं। ग्रह अपने समय पर इन तत्वों को प्रभावित करते हैं। मतभेदानुसार बुध ग्रह त्रिधातु वात, पित्त, कफ तीनों का कारक है और गुरु पित्त और कफ का कारक है। राहु और केतु उदरवायु को असंतुलित करके रोग देते हैं। सुबह 6 बजे से 10 बजे तक चंद्रमा, शुक्र या बुध की शक्ति, जिसका कफ तत्व पर आधिपत्य होता है, सक्रिय होती है।
सोमवार, शुक्रवार व बुधवार को यह शक्ति सुबह के समय शतप्रतिशत कार्य करती है, क्योंकि दिन का प्रथम होरा वार अधिपति ग्रह का होता है। 10 बजे से 2 बजे तक का समय सूर्य और मंगल की अग्नि शक्ति के अधीन होता है, जो भोजन की पाचन क्रिया में सहायक होता है। अतः 10 से 12 बजे तक भोजन करना लाभदायक होता है। उसके बाद अग्नि तत्व में कमी आने लगती है और 2 बजे समाप्त हो जाती है।
इस कारण भोजन करने का समय मध्य दिवस तक उचित होता है। दो बजे से आरंभ होकर 4 बजे सायंकाल तक वायु तत्व की शक्ति उच्च रहती है और 6 बजे तक समाप्त हो जाती है। अतः संध्याकाल भोजन करने से वात (वायु) तत्व में असंतुलन पैदा होता है तथा बृहस्पति (चर्बी, गैस, डायबीटीज, आदि) और शनि (स्नायु, कब्ज, आदि) संबंधी रोगों की संभावना बढ़ती है। अतः शास्त्रानुसार मनुष्यों को भोजन स्वच्छ, शांत और प्रसन्नचित्त होकर करना चाहिए तथा अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। दिन में केवल दो बार ही भोजन करना चाहिए।