1- ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक के रूप में अठारह आचार्यों का नामतः उल्लेख प्राप्त होता है; वे हैं- सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पुलिश, च्यवन, यवन, भृगु एवं शौनक। इस संदर्भ में कश्यप का निम्न वचन उल्लेखनीय है- सूर्यः पितामहो व्यामो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्रिाः।। लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैतेज्योतिषःशास्त्रप्रवत्र्तक।।
2- नारद और वशिष्ठ के पश्चात फलित ज्योतिष के क्षेत्र में ‘महर्षि’ का पद प्राप्त करने वाले पराशर ही हुए हैं। इस प्रकार भारतीय ज्योतिष के प्रवर्तकों में महर्षि पराशर अग्रगण्य हैं- यह निःसन्दिग्ध है। इसीलिए कहा भी गया है- कलौ पाराशरः स्मृतः। स्पष्ट है कि वर्तमान कलियुग में पराशरकृत होराशास्त्र ही सर्वोपकारक शास्त्र है।
3- बृहदाकृति वाला ग्रंथ ‘वृहद पाराशरहोरा शास्त्र’ 11 अध्यायों में निबद्ध है। यह एक श्रुतपरंपरा से प्राप्त ग्रंथ है। तत्कालीन समाज में मुद्रण एवं लेखन व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं था और पठन-पाठन की व्यवस्था केवल स्मरण शक्ति पर आधारित थी। किसी भी ग्रंथ का अस्तित्व गुरु-शिष्य परंपरा पर ही निर्भर था।
4- मानव शरीर का संचालन काॅस्मिक रेडिएशन से होता है। जब यह रेडिएशन मानव शरीर में असंतुलित हो जाती है तो हमें शारीरिक कष्ट होने लगता है। रेडिएशन को संतुलित करने के लिए रत्नों का उपयोग किया जाता है क्योंकि इनके अंदर ग्रह नक्षत्रों की रश्मियों, चुम्बकीय शक्ति तथा वाइब्रेशन को सोखने की शक्तियां छिपी रहती हैं।
5- आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान ने यह सिद्ध कर दिया है कि रूद्राक्ष में निहित इलैक्ट्रोमैग्नैटिक प्रोपर्टीज मानव शरीर को प्रभावित करती हैं। यह रक्तचाप, वीर्य दोष, बौद्धिक विकास, मानसिक शान्ति, पारिवारिक एकता, व्यापार में सफलता एवं गुस्से को शान्त करता है।
6- हमारे ऋषि मुनियों ने शिल्प कला और ज्यामितीय रेखांकन के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, चाप, अर्द्धवृत्त, चतुष्कोण तथा षट्कोण को आधार मानकर बीज मंत्रों द्वारा इष्ट शक्ति को रेखांकित करके अति विशिष्ट दैवीय यंत्रों का आविष्कार किया, यंत्र इष्ट शक्ति को आबद्ध करने की सर्वोच्च विधि है।