भभगवत्पाद आद्य शंकराचार्य का घोष है कि ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान के ही द्वारा अज्ञान की निवृत्ति होती है। अब प्रश्न उठता है कि उस ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है? महावाक्य में तत् शब्द के द्वारा ब्रह्मात्मैक्य-विज्ञान का ही परामर्श किया गया है। उस ज्ञान के साधन का इच्छा-साहित्यरूप है। जिस तरह से वान्ताशन तथा मूत्र, पुरीष (मल) इत्यादि को प्राप्त करने की किसी की इच्छा नहीं होती, उसी तरह से इन अलौकिक भोगों को प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती, उसी तरह से इन लौकिक भोगों को प्राप्त करने की इच्छा के न होने को इहविराग कहा जाता है।
स्वर्ग लोक से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत जो प्राप्त होने वाले रंभा, उर्वशी इत्यादि का भोग है, उस भोग के प्रति होने वाले विराग को अमुत्रविराग कहते हैं। छान्दोग्य श्रुति भी कहती है-तद्यथेह कर्मजितो लोकः श्रीयते, एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षयते। अर्थात् जिस तरह से लोक में कर्माजित लोक पुत्र-वित्रादि का क्षय होता है, उसी तरह से पुण्यजित लोक स्वर्गादि का क्षय हो जाता है। यह श्रुति भी लौकिक एवं पारलौकिक विषयों की अनित्यता एवं क्षयिष्णुता का प्रतिपादन करके उन विषयों में वैराग्य को उत्पन्न करती है। आत्मानात्मविवेक का तृतीय साधन शमादिष्ट्सम्पत्ति है।
शम्, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान एवं श्रद्धा-इन छहों का समुदित नाम शमादिष्ट्सम्पत्ति है। मूल में शमादिष्ट्सम्पत्ति की गणना में पहले शम का नाम गिनाया गया है और उसके पश्चात् दम का नाम गिनाया गया है, किंतु पहले दम नाम गिनाया जाना चाहिए और उसके पश्चात् शम का नाम, क्योंकि शम आभ्यन्तरेन्द्रिय के निरोध को कहते हैं और दम बाह्म इन्द्रियों के निरोध को कहा जाता है। बाह्य इन्द्रियों के ही माध्यम से आभ्यन्तरेन्द्रिय निकल कर बाह्य विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त होती हैं।
अतएव बाह्य इन्द्रियों का निरोध हुए बिना आभ्यन्तरेन्द्रिय का निरोध नहीं हो सकता है। उपर्युक्त शमादि के छह साधनों में शम को लक्षित करते हुए आचार्य शंकर कहते हैं, शमोनाम इत्यादि। निरूपण करते हुए भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि विचार के द्वारा ही ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। वेदान्तों के अनेक वाक्य हैं, जो ब्रह्म तथा जीव के अभेद का प्रतिपादन करते हैं। ‘जीवोब्रह्मैवनापरः’, ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ यह श्रुति बतलाती है कि सत् स्वरूप ब्रह्म एक है, किंतु वेदज्ञ पुरुष उसको अनेक प्रकार का बतलाते हैं। ‘अयमात्मा ब्रह्म’ श्रुति बतलाती है कि यह आत्मा ब्रह्म है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ श्रुति बतलाती है कि ब्रह्मज्ञानी पुरुष इस बात का अपरोक्ष करता है कि मैं ब्रह्म हूं अर्थात् मुझ में तथा ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।
‘एकमेवा द्वितीयम्’ श्रुति बतलाती है कि सत् शब्द वाच्यब्रह्म एक तथा अद्वितीय है। ‘तत्वमसि’ श्रुति बतलाती है कि ‘त्वम’ पद वाच्य जीवात्मा तथा तत् पद वाच्य ब्रह्म में अभेद है। ये सभी वाक्य जीवात्मा तथा ब्रह्म में अभेद का प्रतिपादन करते हैं। किंतु आत्मा का स्वरूप क्या है? अनात्माओं का स्वरूप क्या है? इस विचार के द्वारा भी ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान होता है। यहां पर यह भी विचार उत्पन्न होता है कि इस प्रकार के आत्मा तथा अनात्मा के विचार का अधिकारी कौन है? तो इस शंका का समाधान करते हुए भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि साधनचतुष्टय संपन्न प्रमाता ही अधिकारी है।
अद्वैत सिद्धांत में स्वीकार किया जाता है कि चार साधनों से आभ्यन्तरेन्द्रिय मन के निरोध को शम कहते हैं। आत्मा के श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन से भिन्न विषयों में मन की प्रवृत्ति को रोकना ही शम है, अथवा श्रवणादि में मन की स्थिति को शम कहते हैं। श्रुति भी कहती है आत्मावाऽरेद्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।’ अर्थात आत्मा का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन करना चाहिए। यह श्रुति मुमुक्षु पुरुष के लिए आत्मा के श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन का विधान करती है। इन तीनों विहित कर्मों के स्वरूप का निर्णय करने के लिए आचार्य सर्व प्रथम श्रवणं का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
श्रवण नाम इत्यादि। अद्वितीय ब्रह्म में तात्पर्य को निर्धारित करने को श्रवण कहा जाता है जिसका श्रवण कर लेने पर अश्रुत वस्तु भी श्रुत हो जाती है। मनन नहीं की गई वस्तु भी मनन की गई हो जाती है तथा अज्ञात वस्तु भी ज्ञात हो जाती है। यह श्रुति एक विज्ञान से सभी विज्ञान को बतलाकर उस अद्वितीय वस्तु के ज्ञान की प्रशंसा करती है। ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ ब्रह्म ही सत्य है, उससे भिन्न वस्तुओं के उसी में अध्यस्त होने से उस ब्रह्मतत्व के ज्ञान से ही स्वेतर समस्त वस्तुओं का मिथ्यात्वेन ज्ञान हो ही जाएगा।
उदाहरणार्थ छान्दोग्योपनिषद के षष्ठ अध्याय में कहा गया है कि ‘यथा सोम्यैकेन मृतपिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात्, वाचरम्मणं विकारो नामघरों मृतिकेत्येव सत्यम’। अर्थात्, हे सौम्य जिस तरह से मृतपिण्ड का ज्ञान हो जाने से मिट्टी के बने संपूर्ण घट-शरावादि का ज्ञान हो जाता है, उसी तरह से मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा वाले-मुमुक्षुकार उस अद्वितीय वस्तु की सत्यता का ज्ञान हो जाने पर उसके कार्य भूत तथा उसी में अध्यस्त संपूर्ण जगत का ज्ञान हो जाता है। जितने भी कार्य तथा नामधेय हैं वे वागालंबन मात्र हैं, केवल मृत्तिका ही सत्य है। इसी तरह संपूर्ण जगत का कारणभूत ब्रह्म ही सत्य है, तदव्यतिरिक्तसंपूर्ण वस्तुएं उसी में अध्यस्त होने के कारण मिथ्या हैं।
अंतएव मुमुक्षु ‘सत्यंज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ में ही प्रतिष्ठित होता है। संपन्न ही प्रमाता आत्मा तथा अनात्मा के विचार के लिए योग्य अधिकारी होता है। वे साधन नित्यानित्यवस्तुविवेक, इहामुत्रविराग, शमादिष्ट सम्पत्ति तथा मुमुक्षुत्व है। ब्रह्म ही सत्य है, ब्रह्म से भिन्न सभी वस्तुएं मिथ्या हैं। साधन चतुष्टय निरूपणम् में भगवान श्री आद्यशंकराचर्य का वेदांत घोष स्मर्तव्य है साधन चतुष्टयं नाम-
1. नित्यानित्यवस्तुविवेकः,
2. इहामुत्रफलभोगविरागः,
3. शमादिष्टसम्पत्तिः,
4. मुमुक्षुत्वचेति।
नित्यानित्यवस्तु विवेको नाम-ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येवेति निश्चयः। इस प्रकार से वेदांत वाक्यों के विचार द्वारा किए जाने वाले निश्चय को नित्यानित्यवस्तुविवेक कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि किसी काल की सीमा में न रहकर संपूर्ण कालों में रहने वाली वस्तु को नित्य कहते हैं। जो ऐसी वस्तु नहीं होती है उसे अनित्य वस्तु कहते हैं। यह वस्तु नित्य और यह वस्तु अनित्य है, इस प्रकार से होने वाले भेदपूर्वक ज्ञान को नित्यानित्य वस्तुओं का विवेक कहा जाता है। ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ अर्थात ब्रह्म सत्य अर्थात अलीकप्रत्यनीक तदमृतम्’ अर्थात, जो भूमा है वही अमृत अर्थात ब्रह्म है।
इत्यादि वाक्य ब्रह्म की सत्यता तथा नित्यता का प्रतिपादन करते हैं। ‘नेह नानास्ति किच्चन’ यह धु्रति आत्मभिन्न सभी पदार्थों का निषेध करती हुई उसके अनित्यत्व एवं मिथ्यात्व का प्रतिपादन करती है। यहां पर यह अनुमान भी किया जाता है कि अचेतन वर्ग अनित्य हैं क्योंकि वे अनेक तथा विभक्त हैं, घट-पट आदि के समान। दूसरा अनुमान इस तरह से किया जाता है कि ब्रह्म ही नित्य है क्योंकि वह नित्य तथा एक है। आत्मानात्मविवेक का दूसरा साधन इहामुत्रविराग है।
अर्थात इस लोक में देहधारण व्यतिरिक्तजो स्रक, चंदन वनिता इत्यादि विषय है, अनेक भोगों के विषय में होने वाले विराग को इहविराग कहा जाता है। यह विराग आद्य शंकराचार्यकृत शिवभुजंगम स्तोत्र करुणावरुणात्मय भगवान श्री आद्यशंकराचार्य ने जहां सत्यं ज्ञानमनन्त ब्रह्म का प्रतिपादन करके प्राणिमात्र को उसके नित्य शुद्ध कुछ मुक्त स्वरूप का बोध कराया वहीं लौकिक व्यवहार की पूर्णता के लिए अनेक सिद्धिप्रद स्तोत्रों की रचना भी की। उन्हीं में से यह एक शिवभुजंग नामक स्तोत्र अपने पाठकों के लिए इस अंक में दिया जा रहा है जिसका नित्य प्रातः श्रद्धापूर्वक पाठ करने से सुपुत्र, आयु आरोग्य एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
गलद्दानगण्डं मिलद्भृगषण्डं चलच्चरुशुण्डं जगत्राणशौण्डम्। कनद्दन्तकाण्डं विपद्भंगचण्डं शिवप्रेमपिण्डं भजे वक्रतुण्डम्।। 1 ।।
तत्त्वमर्थं चिदाकारमेकं तुरीयं त्वमेयम्। हरिब्रह्ममृग्यं परब्रह्मरूपं मनोवागतीतं महःशैवमीडे।। 2।।
स्वशक्त्यादिशक्त्यन्तसिंहासनस्थं मनोहारिसर्वागरत्नोरुभूषम्। जटाहीन्दुगंगास्थिशम्याकमौलिं पराशक्तिमित्रं नुमः पंचवक्रम्।। 3।।
शिवेशानतत्पूरुषाघोरवामा दिभिः पंचभिर्हृन्मुखैः षड्भिरगै:। अनौपम्य षट्त्रिंशतं तत्व विद्यामतीतं परं त्वां कथं वेत्ति को वा।। 4।।
प्रवालप्रवाहप्रभाशोणमर्धं गुरुत्वन्मणिश्रीमहः श्याममर्धम्। गुणस्यूतमेतद्वपुः शैवमन्तः स्मरामि स्मरापत्तिसंपत्तिहेतोः।। 5 ।।
स्वसेवासमायातदेवासुरेन्द्रा- नमन्मौलिमन्दारमालाभिषक्तम्। नमस्यामि शम्भो पदाम्भोरुहं ते भवाम्भोधिपोतं भवानीविभाव्यम्।। 6 ।।
जगन्नाथ मन्नाथ गौरीसनाथ प्रपन्नानुकम्पिन्विपन्नार्तिहारिन्। महःस्तोममूर्ते समस्तैकवन्धो नमस्ते नमस्ते पुनस्ते नमोऽस्तु।। 7 ।।
विरूपाक्ष विशवेश विश्वादिदेव त्रयीमूल शम्भो शिव त्रयम्बक त्वम्। प्रसीद स्मर त्राहि पश्यावमुक्त्यै क्षमां प्राप्नुहि त्रयक्ष मां रक्ष मोदात्।। 8 ।।
महादेव देवेश देवबादिदेव स्मरारे पुरारे यमारे हरेति। ब्रुवाणः स्मरिष्यामि भक्त्या भवन्तं ततो मे दयाशील देव प्रसीद।। 9 ।।
त्वदन्यः शरण्यः प्रपन्नस्य नेति प्रसीद स्मरन्नेव हन्यास्तु दैन्यम्। न चेत्ते भवेद्भक्तवात्सल्यहानिस्ततो मे दयालो सदा सन्निधेहि।। 10 ।।
अयं दानकालस्त्वहं दानपात्रं भवानेव दाता त्वदन्यं न याचे। भवद्भक्तिमेव स्थिरां देहि मह्यं कृपाशील शम्भो कृतार्थोऽस्मि तस्मात्।। 11 ।।
पशुं वेत्सि चेन्मां तमेवाधिरूढः कलंकीति वा मूध्र्नि धत्से तमेव। द्विजिह्वः पनः सोऽपि ते कण्ठभूषा त्वदंगीकृताः शर्व सर्वेऽपि धन्याः ।। 12।।
न शक्नोमि कर्तुं परद्रोहलेशं कथं प्रीयसे त्वं न जाने गिरीश। तथाहि प्रसन्नोऽसि कस्यापि कान्तासुतद्रोहिणो वा पितृद्रोहिणो वा ।। 13 ।।
स्तुतिं ध्यानमर्चां यथावद्विधातुं भजन्नप्यजानन्महेशावलम्बे। त्रसन्तं सुतं त्रातुमग्रे मृकण्डोर्यमप्राणनिर्वापणं त्वत्पदाब्जम्।। 14 ।।
शिरोदृष्टिहृद्रोगशूलप्रमेह ज्वरार्शोजरायक्ष्महिक्काविषार्तान्। त्वमाद्यो भिषग्भेषजं भस्म शम्भो त्वमुल्लाघयास्मान्वपुर्लाघवाय।। 15 ।।
दरिद्रोऽस्म्यभद्रोऽस्मि भग्नोऽस्मि दूये विषण्णोऽस्मि सन्नोऽस्मि खिन्नोऽस्मि चाहम्। भवान्प्राणिनामन्तरात्मासि शम्भो ममाधिं न वेत्सि प्रभो रक्षा मां त्वम्।। 16 ।।
त्वदक्ष्णोः कटाक्षः पतेत्त्रयक्ष यत्र क्षणं क्ष्मा च लक्ष्मीः स्वयं तं वृणीते। किरीटस्फुरच्चामरच्छत्रमालाकलार्चिर्गजक्षौमभूषाविशेषैः।। 17 ।।
भवान्यै भवागापि मात्रे च पित्रे मृडान्यै मृडायाप्यघघ्न्यै मखघ्ने। त्रशिवांगै शिवाङ्गाय कुर्मः शिवायै शिवायाम्बिकायै नमस्त्र्यम्बकाय।। 18 ।।
भवद्गौरवं मल्लघुत्वं विदित्वा प्रभो रक्ष कारुण्यदृष्ट्यानुगं माम्। शिवात्मानुभावस्तुतावक्षमोऽहं स्वशक्त्या कृतं मेऽपराधं क्षमस्व।। 19 ।।
यदाकर्णरन्ध्रं व्रजेत्कालवाहद्विषत्कण्डघण्टाघणात्कारनादः। वृषाधीशमारुह्य देवौपवाह्यं तदा वत्स मा भीरिति प्रीणय त्वम्।। 20 ।।
यदा दारुणाभाषणा भीषणा मे भविष्यन्त्युपान्ते कृतान्तरय दूताः। तदा मन्मनस्त्वत्पदाम्भोरुहस्थं कथं निश्चलं स्यान्नमस्तेऽस्तु शम्भो।। 21 ।।
यदा दुर्निवारव्यथोऽहं शयानो लुठन्निः श्वसन्निः सृताव्यक्तवाणिः । तदा जह्नुकन्याजलालंकृतं ते जटामण्डलं मन्मनोमंदिरं स्यात्।। 22।।
यदा पुत्रमित्रादयो मत्सकाशे रुदन्त्यस्य हा कीदृशीयं दशेति। तदा देवदेवेश गौरीश शम्भो नमस्ते शिवायेत्यजस्रं व्रवाणि ।। 23 ।।
यदा पश्यतां मामसौ वेत्ति नास्मा नयं श्वास एवेति वाचो भवेयुः । तदा भूतिभूषं भुजंगावनद्धं पुरारे भवन्तं स्फुटं भावयेयम्।। 24 ।।
यदा यातनादेहसंदोहवाही भवेदात्मदेहे न मोहो महान्मे। तदा काशशीतांशुसंकाशमीश स्मरारे वपुस्ते नमस्ते स्मराणि ।। 25 ।।
यदापारमच्छायमस्थानमद्भिर्जनैर्वा विहीनं गमिष्यामि मार्गम्। तदा तुं निरुन्धन्कृतान्तस्य मार्गं महादेव मह्यें मनोज्ञं प्रयच्छ ।। 26 ।।
यदा रौरवादि स्मरन्नेव भीत्या व्रजाम्यत्र मोहं महादेव घोरम्। तदा मामहो नाथ कस्तारयिष्यत्यनाथं पराधीनमर्धेन्दुमौले।। 27 ।।
यदा शवेतपत्रायतालंघ्यशक्तेः कृतान्ताद्भयं भक्तवात्सल्यभावात्। तदा पाहि मां पार्वतीवल्लभान्यं न पश्यामि पातारमेतादृशं मे। 28।।
इदानीमिदानीं मृतिर्मे भवित्रीत्यहो सन्ततं चिन्तया पीडितोऽस्मि। कथं नाम मा भून्मृतौ भीतिरेषा नमस्ते गतीनां गते नीलकण्ठ ।। 29 ।।
अमर्यादमेवाहमाबालवृद्धं हरन्तं कृतान्तं समीक्ष्यास्मि भीतः । मृतौ तावकांघयब्जदिव्यप्रसादाद्भवानीपते निर्भयोऽहं भवानि।। 30 ।।
जराजन्मगर्भाधिवासादिदुःखान्यसह्यानि जह्यां जगन्नाथ देव। भवन्तं विना मे गतिर्नैव शम्भो दयालो न जागर्ति किं वा दया ते। 31।।
शिवायेति शब्दो नमः पूर्व एष स्मरन्मुक्तिकृन्मृत्युहा तत्त्ववाची। महेशान मा गान्मनस्तो वचस्तः सदा मह्यमेतत्प्रदानं प्रयच्छ।। 32 ।।
त्वमप्यम्ब मां पश्य शीतांशुमौलिप्रिये भेषजं त्वं भवव्याधिशान्तौ। बहुक्लेशभाजं पदाम्भोजपोते भवाब्धौ निमग्नं नयस्वाद्य पारम् ।। 33।।
अनुद्यल्ललाटाक्षिवह्निप्ररोहैरवामस्फुरच्चारुवामोरुशो भैः । अनङ्गभ्रमद्भोगिभूषाविशेषैरचन्द्रार्धचूडैरलं दैवतैर्नः ।। 34 ।।
अकण्ठेकलंकादनंगेभुजंगादपाणौकपालादफालेनलाक्षात। अमौलौशशांकादवामेकलत्रादहं देवमन्यं न मन्ये न मन्ये।। 35 ।।
महादेव शम्भो गिरीश त्रिशूलिंस्त्वयीदं समस्तं विभातीति यस्मात्। शिवादन्यथा दैवतं नाभिजाने शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहम्।। 36।।
यतोऽजायतेदं प्रपंच विचित्रं स्थितिं याति यस्मिन्यदेकान्तमन्ते। स कर्मादिहीनः स्वयं ज्योतिरात्मा शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहम्।। 37 ।।
किरीटे निशेशो ललाटे हुताशो भुजे भोगिराजो गले कालिमा च । तनौ कामिनी यस्य तत्तुल्यदेवं न जाने न जाने न जाने न जाने ।। 38 ।।
अनेन स्तवेनादरादम्बिकेशं परां भक्तिमासाद्य यं ये नमन्ति। मृतौ निर्भयास्ते जनास्तं भजन्ते हृदम्भोजमध्ये सदासीनमीशम्।। 39 ।।
भुजंगप्रियाकल्प शम्भो मयैवं भुजंगप्रयोतेन वृत्तेन क्लृप्तम्। नरः स्तोत्रमेतत्पठित्वोरुभक्त्या सुपुत्रायुरारोग्यमैश्वर्यमेति ।। 40 ।।