त्रिबल शुद्ध दाम्पत्य जीवन
त्रिबल शुद्ध दाम्पत्य जीवन

त्रिबल शुद्ध दाम्पत्य जीवन  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4360 | आगस्त 2006

परस्पर सामंजस्य एवं सुख समृद्धियुक्त दाम्पत्य जीवन ही स्वस्थ समाज की संरचना में सहायक हो सकता है। पारस्परिक समन्वय एवं वैचारिक सामंजस्य का अभाव दाम्पत्य जीवन को ही दूषित नहीं करता अपितु उससे संतति सृजन एवं सृष्टि संरचना पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। युवक-युवती दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करते ही सपनों की स्वर्णिम दुनिया संजोने में लग जाते हैं, किंतु सपनों की स्वर्णिम दुनिया को साकार करने के लिए दाम्पत्य जीवन की गाड़ी को संचालित करने में दोनों की सकारात्मक भूमिका आवश्यक है।

पति का पुरुषार्थ एवं पत्नी का सौभाग्य जब दोनों की पारस्परिक संयुक्त मानसिकता के एक सूत्र में बंध जाते हैं तो दाम्पत्य जीवन निश्चय ही सुख समृद्धि की ओर अग्रसर होता है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण से दाम्पत्य जीवन में प्रवेश के लिए वर-कन्या की त्रिबल शुद्धि होना अत्यंत आवश्यक है। इस त्रिबल शुद्धि में वर को सूर्य बल प्राप्त होना आवश्यक है, क्योंकि जीवन में सूर्य ही पुरुषार्थ, प्रतिष्ठा एवं पराक्रम का कारक है। इसलिए पुरुष पक्ष के लिए सूर्य की प्रबलता दाम्पत्य निर्वाह में अत्यावश्यक है। इसका विचार जन्मराशि से किया जाना चाहिए,।

कहा गया है: जन्मराशेस्त्रिषष्ठायदशमेषु रविः शुभः । पश्चात् त्रयोदशिभ्यो द्विपंचनवमेष्वपि।। अर्थात विवाह के समय जन्मराशि से तीसरा, छठा, दसवां या ग्यारहवां सूर्य शुभ होता है। यदि सूर्य, राशिगत 13 अंश से अधिक हो जाए तो दूसरा, पांचवां या नौवां सूर्य भी शुभ होता है। जन्मन्यथ द्वितीये वा पंचमे सप्तमेऽपि वा ।। नवमे च दिवानाथे पूजया पाणिपीडनम्।। अर्थात विवाह के समय वर की राशि से पहला, दूसरा, पांचवां सातवां या नौवां सूर्य हो तो शास्त्र सम्मत आराधना के बाद शुभ फलकारक होता है। इसके अतिरिक्त - अष्टमे च चतुर्थे च द्वादशे च दिवाकरे। विवाहितो वरो मृत्युं प्राप्नोत्यत्र न संशयः।।

अर्थात विवाह के समय वर की राशि से चैथा, आठवां या बारहवां सूर्य हो तो निःसंदेह वर की मृत्यु हो जाती है। कन्या के लिए गुरु का बल प्राप्त होना आवश्यक है, क्योंकि गुरु सुख-सौभाग्य एवं सदाचार का कारक है। इसलिए दाम्पत्य जीवन में नारी के सुख-सौभाग्य एवं सदाचार के लिए गुरु की प्रबलता भी अत्यंत आवश्यक है। इसका विचार भी जन्मराशि से ही किया जाता है। वटुकन्याजन्मराशेस्त्रिकोणायद्विसप्तगः। श्रेष्ठो गुरुः खषट्तृयाद्ये पूजयान्यत्र निन्दितः।। अर्थात विवाह के समय कन्या की जन्मराशि से दूसरा, पांचवां, सातवां, नौवां या ग्यारहवां गुरु शुभ होता है तथा पहला, तीसरा, छठा या दसवां जप आराधना से शुभ और अन्यत्र अशुभ। अष्टमे द्वादशे वापि चतुर्थे वा बृहस्पतौ। पूजा तत्र न कत्र्तव्या विवाहे प्राण नाशकः।।

अर्थात विवाह के समय कन्या की राशि से गुरु चैथा, आठवां या बारहवां हो तो प्राणनाशक होता है। दाम्पत्य जीवन में परस्पर मानसिक सामंजस्य के लिए दोनों को चंद्रबल प्राप्त होना भी अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि चंद्र मन का कारक है। चंद्र शुद्धि होने पर ही दाम्पत्य जीवन में परस्पर स्वस्थ मनःस्थित के कारण पारस्परिक सामंजस्य एवं स्नेह का संचार होता है। जन्मराशेस्त्रिषष्ठाद्य-सप्तमायखसस्थितः। शुद्धचंद्रो द्विकोणस्थः शुक्ले च अन्यत्र निन्दितः ।। अर्थात वर-कन्या दोनों की जन्म राशियों से पहला, तीसरा, छठा, सातवां, दसवां या गयारहवां चंद्र विवाह के समय शुभ फल कारक होता है, दूसरा, पांचवां या नौवां चंद्र शुक्ल पक्ष में शुभ रहता है और चैथा, आठवां या बारहवां चंद्र अशुभ एवं अनिष्ट फलकारक होता है।

इस प्रकार पुरुषार्थ, सौभाग्य एवं स्निग्ध स्नेह की संयुक्त प्रबलता, दाम्पत्य जीवन को सुख-समृद्धियुक्त बनाने एवं स्वस्थ समाज की संरचना में अत्यंत ही आवश्यक है। गर्ग मुनि ने भी यही संकेत दिया है: स्त्रीणां गुरुबलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम्। तयोश्चंद्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण भाषितम्।। विवाह संस्कार में त्रिबल शुद्धि के लिए अन्य आचार्यों ने भी यही सिद्धांत दिया है।



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