कुंडली विवेचन के अन्यान्य सूत्रों का प्रतिपादन महर्षि पराशर ने बृहत् पराशर होरा शास्त्र में किया है। कुंडली विवेचन में अनेक मानदंडों का विशद् व व्यवस्थित अध्ययन करना अति आवश्यक है, अन्यथा फलकथन में त्रुटि संभाव्य है। इस आलेख में कुंडली विवेचन के मुख्य घटकों की व्याख्या की जा रही है:
1. जन्मकुंडली/राशिचक्र (लग्न कुंडली)
2. चंद्र कुंडली - चंद्र से अन्य बारह भावों का विवेचन।
- लग्न व चंद्र- दोनों भावों की स्थिति
- अच्छी स्थिति
- जातक धनी, संपत्तिवान
- विपरीत स्थिति होने पर धन संपदा सामान्य या निर्धन
3. नवांश तथा अन्य वर्ग कुंडलियों का विवेचन
- कोई ग्रह राशि (लग्न) कुंडली में अनुकूल हो परंतु वर्ग कुंडलियों में शत्रु, नीच या अशुभ स्थिति में हो तो राशि कुंडली के शुभ परिणामों में कमी।
- विपरीत स्थिति या सुधार होने की स्थिति में शुभ फल
- दोनों ही स्थिति में बली होने पर या शुभ स्थिति में होने पर सर्वोत्तम फल।
4. दशाफल
- दशा अनुकूल न होने पर योग होने पर भी व्यर्थ ही है अर्थात फल नहीं मिलेंगे।
- दशानाथ को लग्नेश की तरह मानकर सभी भावों का विचार करना चाहिए और देखना चाहिए की उसकी दशा में कौन से भाव कैसे-कैसे फल देंगे जैसे दशानाथ से द्वितीय भाव धन, तृतीय सहोदर, चतुर्थ भू-संपत्ति, पंचम- विद्या-संतान, षष्ठ से प्रतियोगिता, सप्तम
- व्यापार, अष्टम- खोज, अन्वेषण, बीमा, गुप्तता, नवम- धर्म-धार्मिक कार्य/यात्रा, दशम- कर्म, एकादश आमदनी तथा द्वादश से व्यय/ बाहर, विदेश आदि-आदि।
5. कुंडली में ग्रहों की स्थिति व ग्रहीत राशियों की प्रकृति
- अधिकतर ग्रह चर राशियों में- यात्रा का शौकीन, परिवर्तनशील विचार - स्थिर राशियों में
- रूढ़िवादी, निश्चित कार्यशैली, एक स्थान पर रहना, समयबद्ध कार्य करना, कल-कारखानों की दक्षता
- द्विस्वभाव राशियों में मिश्रित परिणाम, अस्थिरता
- अग्नि तत्वों में स्थित ग्रह जातक को साहसी, उत्साही, उच्च विचार व जीवन में उपलब्धियां प्राप्त करने की प्रबल इच्छा देते हैं।
- पृथ्वी तत्वों में स्थित ग्रह जातक को प्रयोगात्मक सोच अर्थात व्यावहारिक व उद्योगी बनाते हैं।
- वायु तत्वों में स्थित ग्रह जातक को बुद्धिमान, पठन-पाठन में आसक्त बनाते हैं।
- जल तत्वों में स्थित ग्रह जातक को भावुक, सम्मानित, बुद्धिमान व अस्थिर मानसिक स्थिति देते हैं।
6. ग्रहों की सबल/निर्बल स्थिति
- उच्च, मूल त्रिकोण, स्वराशि, मित्रराशि, शुभकर्तरी की स्थिति बली
- नीच, शत्रुराशि, पापकर्तरी निर्बल स्थिति
7. कुंडली में स्थित योग
8. विषम राशि के अंतिम 6 अंश तथा समराशि के प्रारंभिक 6 अंश ग्रहों के बल को खो देते हैं। ऐसी स्थिति के ग्रह मृत्यु भाग में स्थित माने जाते हैं।
9. भाव-भावेश-कारकों का विवेचन
- विचारणीय भाव का स्वामी (भावेश) या कारक लग्न से या भाव से 6, 8, 12 में स्थित हो तो भाव का नाश, यदि भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो शुभ फल प्राप्त।
- लग्न या विचारणीय भाव से 6, 8, 12 भावों में अशुभ ग्रह हों तो भाव का नाश।
- लग्नेश सदैव शुभफलदायी, जिस भाव में स्थित हो उसकी उन्नति व शुभफल प्राप्त, यदि उस भाव का स्वामी भी लग्नेश की युति या दृष्टि से प्रभावित हो तो शुभ परिणाम और अधिक।
- एक ही राशि का स्वामी होने के कारण सूर्य व चंद्रमा को अष्टमेश या मारकेश का दोष नहीं अर्थात अष्टमेश होने पर भी सूर्य-चंद्र अशुभ नहीं।
- विचारणीय भाव का स्वामी जन्म नक्षत्र से तीसरे नक्षत्र में हो तो विपत तारा, पांचवें नक्षत्र में हो तो प्रत्यरि तारा तथा सातवें नक्षत्र में हो तो वध तारा होती है। इन नक्षत्रों का स्वामी अशुभ प्रभाव देने वाला होता है।
10. राजयोग पहले प्रकार के राजयोग से उच्च पद की प्राप्ति होती है:
- नवम-दशम भाव में परिवर्तन योग हो
- नवमेश - दशमेश उच्च के हों
- नवम - दशम में स्वराशि के ग्रह हों
- शनि तुला राशि में स्थित हो या तुला राशि को दृष्टि दे।
- मंगल नवमेश या दशमेश हो
- नवमेश या दशमेश नवम, दशम या एकादश में हो
- गुरु - शनि की युति हो या दोनों उच्च के हों दूसरे प्रकार के राजयोग में उच्चाधिकारी बनने का योग होता है
- नवमेश व दशमेश की युति नवम- दशम में हो - नवम-दशम में उच्च के ग्रह हों
- नवम-दशम में उच्च ग्रहों की दृष्टि हो।
- नवम-दशम में दृष्टि परिवर्तन योग हो। तीसरे प्रकार के राजयोग जातक को अधिकारों की प्राप्ति कराते हैं:
- दशमेश की दशम पर तथा एकादशेश की एकादश पर दृष्टि हो
- नवमेश-दशमेश एक दूसरे के विपरीत अवस्था में स्थित हों तथा कोई एक ग्रह उच्च का हो और कोई भी ग्रह 6, 8 या 12 भावों में न हो
- नवमेश-दशमेश की केंद्र में युति चतुर्थ श्रेणी के राजयोग जातक को सुख-सम्मान देते हैं:
- अधिकांश ग्रह आमने सामने हों परंतु 6, 8, या 12 भावों में न हो।
11. फलादेश हेतु दो महत्वपूर्ण सूत्रों का भी विचार करना आवश्यक है:
- जीवित वस्तुएं
- निर्जीव या जो जीवित न हों (मकान, जमीन इत्यादि)। भले ही ग्रह स्वराशि के ही क्यों न हों, अशुभ ग्रह यदि जीवित वस्तुओं वाले भावों में स्थित हों तो उनको (जीवित वस्तुएं) हानि ही पहुंचाते हैं और जो जीवित वस्तुएं न हों उनको लाभ पहुंचाते हैं।
शुभ ग्रह जीवित वस्तुओं वाले भावों की वृद्धि करते/लाभ पहुंचाते हैं और मृत वस्तुओं की हानि करते हैं या तत्सम्बन्धी फलों में कमी करते हैं। अशुभ ग्रह एक सर्प की तरह शुभ भावों या जीवित वस्तुओं वाले भावों का फल देते हैं जैसे कि सर्पनी अंडे तो बहुत देती है किंतु लगभग सभी को स्वयं ही खा जाती है।
12. भाव मजबूत (बली होना)
- स्वामी से दृष्ट हो।
- उच्च के ग्रह से दृष्ट हो या उच्च के ग्रह हों।
- दृष्टि परिवर्तन से/राशि परिवर्तन से/ स्वामी से। - स्वराशि के ग्रह से।
- भावेश उच्च की राशि में हो।
- शुभ कर्तरी योग हो। भाव कमजोर (निर्बल होना)।
- भावेश 6, 8 या 12 भावों में स्थित हो
- 6, 8 या 12 के स्वामी जिस भी भाव में स्थित हों
- भावेश नीच का या नीचाभिलाषी हो
- पापकर्तरी में हो
- भावेश बारहवें भाव या अपने से 12वें भाव में हो या फिर 12वें भाव में सूर्य व बुध हों।
13. ग्रहों का किसी भाव में अकेले स्थित होना
- कोई भी ग्रह किसी भी भाव में यदि अकेले स्थित हो तो वह अपने फलों को पूर्ण रूप से देने/फैलाने या करने की प्रवृत्ति का होता है।
- जैसे राहु किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में किंकर्तव्यविमूढ़ता या अनिश्चय की स्थिति बनाते हैं।
- सूर्य किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में अधिक साहस व दबाव युक्त बनाते हैं।
- चंद्रमा किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में उतार-चढ़ाव की स्थिति तथा दिल व हृदय को मजबूत बनाते हैं।
- मंगल किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में दबाव बनाने, मनमानी करने की प्रवृत्ति देते हैं।
- बुध के किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में मिलनसार, बचपना या जिद करने अथवा आसानी से मानने वाला तथा व्यावहारिक बनाते हैं।
- गुरु किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव से संबंधित शुभता, बुद्धि, विवेक तथा धन-संपत्तिवान बनाने के अलावा भाव का ह्रास भी कराते हैं।
- शुक्र के भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव से संबंधित शुभता, आमोदी-प्रमोदी, मधुरता, सामंजस्य बनाने की प्रवृत्ति देते हैं
- शनि भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में किंकर्तव्यविमूढ़ता या अनिश्चय की स्थिति बनाते हैं।
- केतु किसी भी भाव में अकेले स्थित होने पर जातक को उस भाव के फलों में कमी, नकारात्मकता, अंधेरापन या रिसर्च करने की प्रवृत्ति देते हैं।
14. पति-पत्नी से संबंधित विशेष योग
- लग्नेश मंद गति वाला ग्रह होकर केंद्र में स्थित होने पर पुरुष बली होगा
- सप्तमेश मंद गति वाला ग्रह केंद्र में स्थित होने पर स्त्री बलशाली।
- दोनों यदि केंद्र में स्थित हों तो दोनों बलशाली।
- सूर्य (पुरुष ग्रह), शुक्र (स्त्री ग्रह)
- शुक्र के आगे सूर्य हो तो पुरुष पहले मोक्ष को प्राप्त करेगा।
- सूर्य के आगे शुक्र हो तो स्त्री पहले जायेगी।
- पुरुष की राशि आगे हो तो पुरुष पहले जायेगा।
- स्त्री की राशि आगे हो तो स्त्री पहले जायेगी
- भकुट दोष होने की स्थिति में विपरीत प्रभाव होगा।